इस लड़ाई की अलग और नई तरह की चुनौतियां हैं

खरी-खरी            Nov 08, 2021


हेमंत कुमार झा।
कारपोरेट परस्त सत्ता के खिलाफ सड़कों पर उतरे किसान सिर्फ अपनी लड़ाई ही नहीं लड़ रहे, वे अपने दौर की राजनीतिक विकृतियों से भी लड़ रहे हैं। उन विकृतियों से, जिनसे जूझने में हिन्दी पट्टी के छात्र-नौजवान और कामगार वर्ग अक्षम साबित हो रहे हैं, उन विकृतियों से, जिन्होंने मध्य वर्ग की चेतना पर कब्जा कर लिया है और राजनीतिक संस्कृति को प्रदूषण के एक नए मुकाम पर पहुंचा दिया है।

कुछ वर्ष पहले जिन राजनीतिक शक्तियों ने उत्तर प्रदेश और हरियाणा के बड़े इलाकों में धार्मिक वैमनस्य को हवा दे कर अपनी चुनावी रोटियां सेंकने में भारी सफलता हासिल कर ली थी, किसानों के समूह उस प्रायोजित वैमनस्य को पाटने में लगे हैं।

उनका आंदोलन ऐसी चुनौतियों से भी जूझ रहा है जो पूर्ववर्त्ती आंदोलनों के सामने नहीं आई होंगी। उन्हीं के बीच ऐसे तत्वों की घुसपैठ, जो अपनी योजनाबद्ध हरकतों से आंदोलनकारियों को तरह-तरह से बदनाम करने की तमाम कोशिशें करते रहे हैं। सत्ता-संरचना में बदलावों के साथ ही उसका चरित्र भी बदला है। आंदोलित किसानों को आम लोगों की नजरों में गिराने की कोशिशों के लिये सत्ता-संरचना में बेहद ताकतवर बन चुके उन समूहों की अधिक जिम्मेवारी है जिनके आर्थिक मंसूबों और हितों को यह आंदोलन चुनौती दे रहा है।

किसान आंदोलन हमें यह भी बता रहा है कि अतीत के उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ाई और अब नव औपनिवेशिक शक्तियों के खिलाफ लड़ाई के बीच क्या फर्क है। इस लड़ाई की अलग और नई तरह की चुनौतियां हैं।

चुनौतियों से जूझने का तरीका और जज्बा आंदोलन के चरित्र पर निर्भर करता है और जाहिर है, किसी भी आंदोलन का चरित्र आंदोलन कारियों के चरित्र बल पर निर्भर करता है।

यही चरित्र बल आंदोलित किसानों को सार्वजनिक क्षेत्र के उन आंदोलित कर्मचारियों से अलग करता है जो अपने संस्थानों के निजीकरण के खिलाफ अक्सर सड़कों पर उतरे दिखाई पड़ते हैं।

किसानों ने अपना चरित्र बल दिखाया है, लड़ने का अपना जज्बा दिखाया है। अपने आंदोलन और उसके पीछे की सैद्धांतिकी के प्रति उनकी आस्था है। कोरोना, भयानक ठंड, तपती गर्मी और भीषण बरसात के सिलसिलों के बीच साल भर से अधिक समय से दिल्ली की देहरी पर जमे रहने के लिये इसी आस्था, इसी जज्बे और इसी चरित्र बल की जरूरत है।

इसके विपरीत, निजीकरण मुर्दाबाद का नारा लगाते सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मियों की खुद की आस्था ही उस सैद्धांतिकी के प्रति नहीं रह गई थी जो उनके संस्थानों के अस्तित्व को वैचारिक आधार देती है। यही कारण है कि उनके आंदोलनों में भी वह जज्बा नजर नहीं आया और न सरकार ने ही उनकी चीख-चिल्लाहटों को कोई तवज्जो दी।

कोई समूह सिर्फ इस आधार पर सार्वजनिक क्षेत्र को बचाने की लड़ाई नहीं लड़ सकता कि उसमें उसे सेवा सुरक्षा और वेतन आदि की गारंटी मिलती है। उसे उन विचारों के प्रति भी प्रतिबद्ध होना होगा जो उन संस्थानों से जुड़े हैं। वैचारिक प्रतिबद्धता का यही अभाव निजीकरण के खिलाफ आंदोलित कर्मियों के समूहों को चरित्र बल से हीन करता है।

किसानों के साथ विचार हैं, विचारों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता है। यह उन्हें सबल बनाता है, उनके प्रतिरोध को धार देता है।

किसी आंदोलन के दौरान अगर अलग-अलग समुदायों के लोग आपस में गले मिलते हुए अतीत की भूलों-गलतियों के लिये एक-दूसरे से माफी मांगें, जीवन और जीविका से जुड़ी वोट की राजनीति में इन कृत्रिम विभाजनों को हावी न होने देने का संकल्प दोहराएं तो यह ऐसा दृश्य है जो आश्वस्त करता है कि बहुत कुछ बचा है अभी...कि अंधेरे चाहे जितने गहन हों, उजाले की आस बनी रहती है।

एक उम्मीद जगी थी कि अपने सामूहिक हितों की रक्षा के लिये, अपनी भावी पीढ़ियों को कारपोरेट की गुलामी से बचाने के लिये जाग्रत किसान संगठनों के साथ छात्रों, नौजवानों और कामगारों के अन्य समूह भी उठ खड़े होंगे।
लेकिन, ऐसा होता नहीं दिखा।

कारपोरेट के शिकंजे में कृषि का आना अगर किसान समुदायों के लिये घातक है तो छात्रों के भी बड़े हिस्से के लिये शिक्षा का कारपोरेटीकरण अभिशाप ही तो साबित होने वाला है।

विकसित होती ऐसी शिक्षा-संरचना, जो पैसे वालों के लिये गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की सुविधा देगी और हाशिये पर के असंख्य नौजवानों के लिये भविष्य की राह दुरूह बना देगी।

श्रम कानूनों में मजदूरों के हितों की कीमत पर कंपनियों का हित पोषण करने वाले बदलाव हों या शिक्षा-संरचना में बदलावों की प्रक्रिया में शिक्षकों के आर्थिक हितों और उनकी गरिमा के साथ खिलवाड़ हो, विरोध की कोई ऐसी आवाज नहीं गूंज रही जो नीति-निर्धारकों की पेशानी पर बल ला सके।

इन अर्थों में, किसान संगठन अगर पूरे तंत्र पर हावी होती कारपोरेट संस्कृति के खिलाफ, उनकी षड्यंत्रकारी राजनीति के खिलाफ खड़े हैं तो वे सिर्फ अपनी लड़ाई ही नहीं लड़ रहे, वे उन छात्रों की भी, उन शिक्षकों की भी, उन मजदूरों की भी लड़ाई लड़ रहे हैं जिन्हें आज सड़कों पर उनके साथ होना चाहिये था।

 



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