Breaking News

अखबारों में लगातार लिखते रहने के अलावा भी पत्रकारिता होती है

मीडिया, वीथिका            Jul 05, 2019


राकेश दीवान।
अखबारों में लगातार लिखते रहने के अलावा भी पत्रकारिता होती है, इसे अपने कामकाज से बार-बार साबित करते रहने वालों की पीढ़ी के एक और स्‍तंभ जवाहरलाल राठौर गुजर गए।

50 के दशक में मामा बालेश्‍वरदयाल के शराब बंदी आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाते झाबुआ से इंदौर आए राठौर साब यहीं के हो गए।

लिखकर अपनी बात सत्‍ता और समाज के सामने रखने की फितरत थी इसलिए तब के राष्‍ट्रीय कहे जाने वाले दैनिक 'नई दुनिया' में प्रमुख लेखकों की जमात का हिस्‍सा बन गए और धीरे-धीरे अपनी बेबाक लेकिन बेहद चुस्‍त-दुरुस्‍त लेखनी के बल पर विशाल पाठक वर्ग के चहेते बने।

उन दिनों कोई भी पेचीदा-से-पेचीदा मुद्दा, जो गहरी समझ और अध्‍ययन के बिना नहीं लिखा जा सकता, राठौर साहब की कलम से ही बेहद सरल रूप में निकलता था। मध्‍यप्रदेश में बिजली के निजीकरण और उपभोक्‍ताओं पर उसके प्रभाव को लेकर लिखी राठौर साहब की श्रंखला आज भी याद आती है।

'नर्मदा बचाओ आंदोलन' के दौर में कई मौके आए जब उनकी लेखनी और प्रतिबद्धता की बानगी देखने का मौका मिला। कईयों में से एक उदाहरण है।

बांध बनाने को उतारू तीनों राज्‍य सरकारों समेत केंद्र की सरकार भी जब 1989 तक नर्मदा घाटी में पुनर्वास का कोई काम नहीं कर पाई तो उसने इंदिरा गांधी की समर्थक, सहयोगी रहीं निर्मला देशपांडे की अगुआई में स्‍थानीय एनजीओ जमातों की मदद लेनी चाही।

इनका एक सम्‍मेलन इंदौर में 'नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण' के नौलखा स्थित दफ्तर में आयोजित किया गया। कहीं से खबर लगी तो 'आंदोलन' के कार्यकर्ताओं ने सामने धरना लगा दिया।

बैठक के लिए भागवत साबू जी आए और उन्‍होंने पहले धरने पर बैठे आंदोलनकारियों से बात करना मुनासिब समझा। साबू जी ने भीतर भी आंदोलन के मुद्दों को रखा।

दोपहर होते-होते बैठक के लिए शहर की पंच सितारा होटल का खाना आ गया और इसके ठीक बाद निर्मला देशपांडे के साथ केंद्रीय जल संसाधन सचिव राधाकुमार तमतमाती बाहर निकलीं।

आंदोलनकारी थोड़े भौंचक थे कि पता नहीं क्‍या हुआ, लेकिन शीघ्र ही पता चल गया कि राठौर साहब के सवालों ने उन्‍हें बेचैन कर दिया है।

राधाकुमार पत्रकारों के सवालों पर बिफर गईं थीं और उन्‍होंने यहां तक कह दिया था कि इंदौर के पत्रकार 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' के कार्यकर्ता की तरह बर्ताव कर रहे हैं।

जबाव राठौर साहब का था--'विस्‍थापित आदिवासियों, किसानों की बात पूछना यदि आपको 'आंदोलन' का कार्यकर्ता होना लगता है तो मैं ऐसा पत्रकार कहलाना पसंद करता हूं। धन्‍यवाद।

यह दौर 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' की शुरुआत का था और तब न तो आंदोलनकारी और न ही राठौर साहब एक दूसरे को ठीक जानते थे।

इस तरह बेलाग बोल राठौर साहब की खासियत थी और 'आंदोलनकारी' भी उन्‍हें इसी तरह जानने लगे थे। ऐसे भी अनेक मौके हैं जब पश्चिमी मध्‍यप्रदेश के वरिष्‍ठ और नामधारी सामाजिक, राजनीतिक कार्यकर्ताओं, नर्मदा आंदोलनकारियों ने राठौर साहब की तीखी डांट भी खाई है।

बरसों-बरस 'दैनिक हिन्‍दुस्‍तान' के पश्चिमी मध्‍यप्रदेश संवाददाता रहने और जबर्दस्‍त खबरों, रिपोर्टों के बाद राठौर साहब की विरासत को संभालना मेरे जैसों के लिए कठिन फैसला था।

एक तरह से मुझे थोड़ा डर भी था कि पता नहीं राठौर साहब को यह कैसा लगेगा इसलिए मैंने उन दिनों इंदौर आए 'दैनिक हिन्‍दुस्‍तान' के समाचार संपादक अरुण त्रिपाठी के साथ राठौर साहब से मिलने का तय किया।

राठौर साहब सुनकर खुश होते हुए बोले कि तुमने मेरी चिंता कम कर दी। मैं सोच रहा था कि अब बढ़ती उम्र के कारण 'दैनिक हिन्‍दुस्‍तान' छोडूंगा तो पता नहीं कौन इसे संभालेगा।

पता नहीं, बाद के सालों में उनकी तरह हमने कभी पत्रकारिता या सामाजिक काम संभाला भी या नहीं, लेकिन इस बात का हमेशा गौरव रहेगा कि कई साल उनके साथ, सान्निध्‍य में रहकर उन्‍हें काम करते हुए देखा। मेरी श्रद्धांजलि।

 



इस खबर को शेयर करें


Comments