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डा.गौर-2 पिता का फैसला और भाई का आधार

वीथिका            Nov 26, 2017


सागर से रजनीश जैन।
डा. सर हरिसिंह गौर के परिवार को जरियाकाट ठाकुर कहा जाता था। यह स्थानीय पहचान के लिए दिया गया शब्द है। सागर शहर की शनीचरी टौरी सागर तालाब के सबसे निकट ज्वालामुखी के लावे से बनी लाल पत्थर की पहाड़ी है। इस पर बड़े दरख्तों के बजाय बेरी की झाड़ियां ऊगती थीं जिन्हें यहां जरियां कहा जाता है।

आटोबायोग्राफी और उनके रिश्तेदारों के लेखों से गणना करने पर पता लगता है कि सन् 1818 से 1820 के बीच कभी हरिसिंह के दादा मानसिंह गौर बंडा तहसील के गांव चीलपहाड़ी से सागर की शनीचरी आये होंगे। यहां बसने की अनुमति उन्हें इसी साल सागर में काबिज हुए अंग्रेजों से मिली होगी। अपना घर बनाने के लिए उन्हें जरियों से भरी पहाड़ी के हिस्से को साफ करना पड़ा। पहले से बसे लोगों ने उन्हें ऐसा करते देख कर जरियाकाट ठाकुर संज्ञा दे दी।

वैसे मानसिंह गौर राजपूत थे और किसी बुंदेला राजा की फौज में सैनिक रहे होंगे। संभवतः गढ़ाकोटा के राजा मर्दन सिंह और अर्जुन सिंह की फौज में। क्योंकि चीलपहाड़ी उसी रियासत का गांव था। 1805 से 1815 के बीच गढ़ाकोटा बुंदेलों से सिंधियाओं के पास चला गया था तब फौजियों के कैंप भी बदले होंगे।

हरिसिंह गौर के पिता तखत सिंह की शादी 1828 के आसपास मालथौन तहसील के सेमरखेड़ा गांव में लाडलीबाई से हुई थी। अपनी सुंदरता और गौरवर्ण के कारण लाडली को भूरीबाई भी कहा जाता था। 5.5 फीट के तगड़े तखतसिंह से वे एक दो इंच लंबी और छरहरी थीं।
दादा मानसिंह की नाटकीय रूप से मृत्यु का विवरण हरिसिंह को उनकी माँ से सुनने मिला।

प्रतिदिन की तरह स्नान और पूजापाठ के बाद सैनिक वेशभूषा पहन कर मानसिंह घर के बरामदे में आए। परिवार और पड़ोसियों को बुलाया। उनसे कहा कि अब मेरे जाने का समय हो गया है। बिछावन पर अपनी तलवार निकाल कर बाजू रखी, लेटे और फिर कभी नहीं उठे। इस घटना को बताने वाली हरिसिंह की मां उस वक्त 12 साल की थीं और उसी साल शादी होकर ससुराल आई थीं। बेटे तखतसिंह को अंग्रेजी पुलिस में हेड कांस्टेबिल का पद मिला था।

इससे भी यही पता लगता है कि यह घर मूलरूप से सैनिक का ही था।और शांतिकाल के लिए सैनिकों को खेती योग्य भूमि मिलती थी सो ये किसान भी थे। लेकिन चीलपहाड़ी की जमीनें तो आज भी उपज कम देती हैं,तो उस समय की मुख्य फसलें कोदों, कुटकी,ज्वार थीं।

तखतसिंह और भूरी यानि लाडलीबाई के कुल चार बेटों में सबसे बड़े ओंकार सिंह बाल्यकाल में ही मरे। दूसरे बेटे आधार सिंह को चेचक हुई लेकिन सकुशल रहे। तीसरे गनपतसिंह के बाद हरिसिंह हुए। फिर दो बेटियां जिनमें से सबसे छोटी मोहन स्कूली छात्रा और गणित में तेज थी। सोचिये कि यदि मोहन लंबे समय जीवित रही होती तो सागर की पहली ग्रेजुएट महिलाओं में यमुनाताई के भी पहले हम मोहनबाई का भी इतिहास लिख रहे होते।

मोहन से बड़ी बहिन लीलावती की पढ़ने में कोई रूचि नहीं थी सो उसने स्कूल ज्वाइन ही नहीं किया। उनकी शादी मोहारा गांव के एक गरीब परिवार में हुई और हरिसिंह पूरी जिंदगी उसके परिवार की चिंता करते रहे। हरिसिंह की माँ की कोख से प्रथम पुत्र ओंकार सिंह 1830 के लगभग हुए और अंतिम पुत्री मोहन लगभग 1875 के बाद। ये दोनों ही बाल्यावस्था में नही रहे। बड़े भाई आधारसिंह और हरिसिंह की उम्र में ही कोई तीस साल का फासला था।

हरिसिंह के पिता तखतसिंह गौर के किरदार का आकलन करते हुए हम पाते हैं कि वे ऐसे सौभाग्यशाली और प्रगतिशील पिता थे कि उनकी पहली संतान के जन्म के साथ ही सागर एंड नर्मदा टैरेटरीज के इंचार्ज और बंगाल आर्टीलरी के कैप्टन अंग्रेज अफसर जेम्स पैटन ने सागर में 1927 में अंग्रेजी पद्धति वाली क्रमशः नौ स्कूलों की शुरूआत की। तखतसिंह अपनी हेड कान्स्टेबिली की नौकरी करते यह आकलन कर पाए कि अब मराठे सत्ता में लौटेंगे नहीं और अंग्रेजी सरकार का जमाना स्थायी रूप से आ चुका है सो अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने से वे तनिक भी नहीं हिचके जैसे कि सागर शहर के दीगर बाशिंदे हिचक रहे थे।

सागर में उस वक्त तक निजी पाठशालाऐं थीं जिन्हें 'गुरू पाठशाला' या 'सीदा पाठशाला' कहा जाता था। गुरू पाठशाला इसलिए कि ये अपने संस्कृतनिष्ठ विख्यात गुरूओं के नाम पर चलती थीं। इनमें बिहारी गुरू की गेंडाजी मंदिर पाठशाला, नन्हें गुरू, रामगुलाम गुरू, शत्रू गुरू आदि पाठशालाऐं सागर की मशहूर पाठशालाऐं थीं। इन्हें सीदा पाठशाला इसलिए कहते थे कि इनमें फीस के रूप में अनाज और कुछ आने नकद आदि दान देना पड़ता था। शिक्षा दी जाती थी बेची नहीं जाती थी ,इसके एवज में दान दिया जाता था शुल्क नहीं लिया जाता था।

धार्मिक और लौकिक शिक्षा इनमें मिलती थी। लेकिन अंग्रेजी सरकार को अपने सिस्टम के अनुरूप कर्मचारी तैयार करना थे। 90 साल से मराठों का शासन देख रही प्रजा इन नये स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने से कतरा रही थी। तखतसिंह गौर ने आधार सिंह को पढ़ाने का फैसला लेकर एक तरह से उस दौर के राजपूत समाज में क्रांतिकारी कदम उठाया था।

नयी सरकार एकदम मुफ्त में शिक्षा दे रही थी। कागज, किताब, स्लेट, पेंसिल के साथ मिठाइयां और स्कालरशिप के इंतजाम थे छात्रों को ललचाने के। लेकिन फैसले बच्चे नहीं उनके परिवार और समाज लेते थे अतः अंग्रेजी स्कूल एक वर्जना थी जिसमें एक ही समय अवसर और जोखिम दोनों थे। तखतसिंह ने जोखिम को चुना जो बाद में अवसर साबित हुआ। कटरा पड़ाव स्कूल में पढ़ने गये आधार सिंह ने गवर्नमेंट हाईस्कूल से हायर सेकेंडरी की डिग्री ली।

डा. हरिसिंह गौर ने ' माई एनसेस्टी एंड अर्ली लाइफ' में लिखा है कि उस वक्त स्कूल में डिग्री के साथ समाजसेवा और सबका साथ देने की शपथ दिलाई जाती थी। आगे की पढाई के लिए आगरा में कालेज था लेकिन वहां पढ़ने भेजने की हैसियत हवलदार पिता की नहीं थी। आधार सिंह ने नौकरी कर ली लेकिन आगे पढ़ने की ख्वाहिश को जिंदा रखा। आधार सिंह के साथ बालमुकुंद पुरोहित, रामकृष्ण श्रीखंडे, गजाधर शुक्ल पढ़ते थे और उनके दोस्तों में थे। इनमें से रामकृष्ण श्रीखंडे अपनी दबंग लंबरदारी संभालने लगे।

बालमुकुंद शिक्षा प्रशासन में निरीक्षक हुए लेकिन गजाधर शुक्ल एग्जीक्यूटिव इंजीनियर आफिस के एकाउंटेंट का पद छोड़कर त्रावन्कोर रियासत में ऊंचे पद तक गये और यहां आधार सिंह जिला कार्यालय में क्लर्क बन गये। प्रमोट होकर तहसीलदार धमतरी बने। उन्होंने 50 साल की उम्र तक अपने आगे पढ़ने की इच्छा को दबाऐ रखा क्योंकि पूरे परिवार का बोझ उन पर था। उनके क्लर्क बनते ही पिता ने पुलिस की नौकरी छोड़ दी।

1889 में आधार सिंह ने ला विद आनर्स की डिग्री ली और उन्हें ला ट्रियोज के सेकंड डिवीजन में डाला गया जो बीए की डिग्री का फायनल एग्जामिनेशन जैसा था। इस धीमी प्रगति से भी वे एक बाबू के पद से कैरियर शुरू करके जिला जज के समतुल्य "ईएसी" पद से होशंगाबाद से रिटायर होकर वहीं बार में प्रैक्टिस करने लगे। जुडीशियल सेवाकाल में 'डिस्पोजल विद डिस्पैच' यानि त्वरित सुनवाई और प्रकरण खत्म की शैली बाररूम को पसंद नहीं आती थी। क्योंकि बार चाहता था मामले लंबे चलें और फीस मिलती रहे।

आधार सिंह ने जीवन भर जो कमाया उससे अपना और पिता का घर चलाया,खूब किताबें खरीदीं और अंत में आंशिक लकवे का शिकार होकर सागर वापस आऐ। होशंगाबाद का लाल रंग से पुता हुआ शानदार बंगला बैरिस्टर आधारसिंह गौर ने दीवान बहादुर पंडित सीताचरण दुबे एड्व्होकेट को बेचा था।आधारसिंह का वेतन डेढ़ सौ रूपये था जिसमें से 50 रु वे अपने पिता तखतसिंह को भेजते थे।हरिसिंह की उच्च शिक्षा का आधार भी आधारसिंह ही थे। अपने बड़े बेटे मुरली मनोहर सिंह को आधारसिंह ने केंब्रिज पढ़ने भेजा। अपने भतीजे से छोटी उम्र के चाचा हरिसिंह भी उनके ही बाद इंग्लैंड पढ़ने गये।

बड़े भाई आधार सिंह को डा. गौर ने अपने पिता की तरह स्थान दिया है क्योंकि उनके पैदा होने के कई साल पहले से पिता कुछ नहीं कर रहे थे और आधारसिंह ही नौकरी करके घर चला रहे थे। अपने जीवनकाल में आधारसिंह ने कोई पांच सौ किताबों की लाइब्रेरी बनाई जो उस समय के हिसाब से एक्सक्लुसिव चीज थी।

ऐसी बेहतरीन लाइब्रेरी और हरिसिंह के पढ़ने के चस्के ने ही वह डा. सर हरिसिंह बनाया जो आज हम पाते हैं। ज्यादातर किताबें कानून , धर्म दर्शन, विचारधाराओं, साहित्य, वनस्पति और प्राणियों की थीं। इन सारी पुस्तकों से बने मानसिक आधार की झलक हम डा.सर गौर के व्यक्तित्व में पाते हैं। यह पढ़ते हुए हम सबको सोचना चाहिए कि आज हमारे घरों में क्या कोई लाइब्रेरी है।?यदि है तो उसमें कितनी और कैसी पुस्तकें हैं। वह कब आखिरी वर्ष था जब हमने कोई किताब खरीदी थी। शुक्र कीजिए कि आज हमारे बच्चों के पास इंटरनेट है। लाखों किताबें आनलाइन उनकी पहुंच में हैं। लेकिन तकनीक के इस संक्रमण काल में हम तखतसिंह और आधार सिंह की मानिंद बच्चों की पढ़ने की रूचियों को समृद्ध कर पा रहे हैं? क्रमश:
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं

 



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