राकेश दुबे।
देश में आम चुनाव करीब हैं। विभिन्न राजनीतिक दल अपने आर्थिक प्रदर्शन बखान रहे हैं। अन्य कारक जातीय समीकरण और क्षेत्रीय वफादारी आदि की भूमिका के साथ ही आर्थिक प्रदर्शन सबसे प्रधान कारक बनकर उभर रहा है, इसे नकारा नहीं जा सकता।
यह बड़ा बदलाव है। आने वाले वर्षों में यह और अधिक स्पष्ट होता जाएगा। इसमें कोई संदेह नहीं है।
राज्यों के बीच भी निजी निवेश जुटाने की होड़ जारी है। वे अपने भौतिक और सामाजिक ढांचे में बदलाव ला रहे हैं और कारोबारी सुगमता की अंतरराज्यीय रैंकिंग में सुधार के लिए प्रयासरत हैं।
स्वास्थ्य, पोषण तथा शिक्षण की उपलब्धियों पर काम कर रहे हैं।
यह बात प्रतिस्पर्धी संघवाद के मूल में है और नीति आयोग की विभिन्न अंतरराज्यीय रैंकिंग इसमें अहम भूमिका निभा रही हैं।
युवा आबादी की बढ़ती आकांक्षा हर स्तर पर प्रशासन पर यह दबाव डाल रही है कि वे प्रदर्शन में सुधार करें और बेहतर नतीजे प्रस्तुत करें।
भविष्य में प्रतिस्पर्धी सुशासन मजबूत होगा तो आम नागरिकों को भी बेहतर पारदर्शिता, जवाबदेही और किफायत के रूप में इसका लाभ मिलेगा।
वैसे भी सात दशक तक कमजोर, नरम और हस्तक्षेपकारी शासन के बाद देश के लोगों को विकासोन्मुखी राज्य का लाभ मिलना ही चाहिए।
एक ऐसा राज्य जो अपनी जिम्मेदारियों को समझता हो और उनको पारदर्शी तथा प्रभावी ढंग से अंजाम देता हो।
आर्थिक गतिविधियों को संचालित करने वाले कायदे कानून भी तेजी से बदल रहे हैं। बेनामी लेनदेन संशोधन अधिनियम,अचल संपत्ति नियमन अधिनियम (रेरा) और ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता के साथ अब धोखाधड़ी करना या व्यवस्था को छलना मुश्किल हो गया है।
यही बात बेनामी संपत्ति, बैकों तथा कर्जदारों को धोखा देने पर भी लागू होती है। ढाई लाख से अधिक फर्जी कंपनियों को बंद करके भी सरकार ने इस दिशा में अत्यंत सख्त संदेश दिया है।
उचित ढंग से कारोबार करने वालों को प्रत्यक्ष कर व्यवस्था की सहजता और ९५ प्रतिशत निगमित करदाताओं के लिए कर दरें कम की गई है।
कारोबारी सुगमता के वैश्विक सूचकांक में भारत की स्थिति में सुधार हुआ है और यह चार वर्ष में १४२ वें स्थान से ७७ वें स्थान पर आ गया है।
ऐसे में उम्मीद की जा सकती है आने वाले समय में हालात में और अधिक सुधार आएगा।
एफडीआई मानकों को उदार किया गया है और रक्षा अचल संपत्ति समेत सभी उत्पादन क्षेत्रों को बहुलांश विदेशी निवेश के लिए खोल दिया गया है। अर्थव्यवस्था और अधिक औपचारिक हुई है।
रिजर्व बैंक को लक्षित मुद्रास्फीति दर हासिल करने का सांविधिक प्राधिकार और उत्तरदायित्व भी सौंपा गया।
फिर भी काफी कुछ किया जाना बाकी है इन बदलावों के साथ हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि यह गतिशीलता बरकरार रहेगी।
आने वाले दिनों में भारत के आर्थिक बदलाव को जनांकीय और लोकतांत्रिक लाभांश का पूरा सहयोग मिलेगा। वाणिज्यिक बैंकों से ऋण की आवक दोबारा गति पकड़ रही है।
ऋण और जीडीपी का अनुपात ५० प्रतिशत के आसपास है। देश की अर्थव्यवस्था ऐसे चरण में प्रवेश कर रही है जिसके परिणाम प्रतीक्षित है।
यह व्यवस्था अगर आगे चलती है तो बेहतर परिणामों का अंदाज़ लगता है। विपरीत परिस्थिति में कुछ और दिखेगा जिसका अनुमान अभी लगाना मुश्किल है।
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