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कभी नौकरशाही तो कभी कमज़ोर नेता का शिगूफ़ा!

खरी-खरी            Jun 26, 2016


ravish-kumar-ndtvरवीश कुमार। ब्रिटेन यूरोपियन यूनियन से बाहर जाता दिख रहा है। जनमत संग्रह के नतीजों में बाहर निकलने वालों का प्रतिशत बढ़त बनाए हुए हैं। दुनिया भर में इन नतीजों के दूरगामी और तात्कालिक प्रभावों का अध्ययन और अनुमान लगाया जा रहा है। यह फ़ैसला ब्रिटेन को लंबे समय के लिए बदल देगा। ब्रिटेन की राजनीति भी अब कुतर्कों का बंडल बन जाएगी जैसे भारत की राजनीति हो गई है। यूरोप और अमरीका तक की राजनीति में कुतर्की दक्षिणपंथी उभार हो ही रहा है। जानकार इसे दक्षिणपंथ और धुर दक्षिणपंथ के विस्तार के रूप में देखेंगे लेकिन दक्षिणपंथ के पास क्या इस संकट का समाधान है? ज़ाहिर है नहीं है। नेता चाहे जितना ग़ुस्से का लाभ उठा लें और स्वर्ण युग लाने का वादा कर लें मगर मौजूदा आर्थिक नीतियों के संकट में कोई नहीं झाँक रहा है। उनमें संभावनायें नहीं बची हैं। दक्षिणपंथी पार्टियाँ पहचान और सामुदायिक नफ़रत की भावना फैला कर तरह तरह के ईंवेंट रच रही हैं। क्रोध और नफ़रत का मेला लगाया जा रहा है। बड़े बड़े आयोजनों की रूपरेखा के पीछे मंशा यही है कि दक्षिणपंथ की तरफ मुड़ी जनता का मोहभंग इतनी जल्दी न हो जाए। किसी भी मुल्क में दक्षिणपंथी पार्टियों ने अर्थ संकट का स्थायी समाधान नहीं किया है। समाधान के नाम पर तरह तरह के ग्लोबल और लोकल ईंवेंट हैं। ब्रिटेन का फ़ैसला बता रहा है कि जिन लोगों को नौकरियाँ नहीं मिलीं हैं वे ख़ुद को इस ग्लोबल नव उदारवादी दौर में ठगा महसूस कर रहे हैं। जिन्हें नौकरियाँ मिली हैं उनका भी बड़ा तबक़ा ठगा महसूस कर रहा है। काम करने की स्थिति और असुरक्षा भयानक है। फ्रांस में चल रहे मज़दूरों की हड़ताल देखिये। भले ही वो सारे फ्रांस की हकीकत न हो मगर मार्च से लेकर अभी तक जारी है। ब्राज़ील भयानक मंदी की चपेट में हैं। हिलेरी क्लिंटन कह रही हैं कि अमरीका की अर्थव्यवस्था अस्तव्यस्त हो गईं है। दो साल पहले भारत में जो दलील दी जा रही थी ठीक वही हिलेरी कह रही हैं। उनका कहना है कि वाशिंगटन डीसी की नौकरशाही सुस्त और बेपरवाह हो गई है। भारत में इसे policy paralysis के नाम से प्रचारित किया गया था। सुपर पावर अमरीका में तो सबसे ताक़तवर ओबामा थे। क्या वहाँ भी मनमोहन सिंह थे? मूल सवाल यह है कि हम इस संकट का सही अपराधी नहीं खोजना चाहते। कभी नौकरशाही तो कभी कमज़ोर नेता का शिगूफ़ा ले आते हैं। क्या अमरीका, फ्रांस, ब्राज़ील और ब्रिटेन की सत्ता शिखर पर भी कमज़ोर नेता हैं? आर्थिक नीतियों का संबंध नेताओं की शारीरिक चुस्ती और राजनीतिक बहुमत से नहीं है। ट्रेडमिल पर आर्थिक नीतियाँ नहीं बनती हैं। इस वक्त जो भी अर्थव्यवस्था हमारे सामने हैं दुनिया के किसी भी हिस्से में सबको अवसर देने में नाकाम है। सारी संस्थाओं का निजीकरण कर बाज़ार के हवाले कर दिया गया और लोगों को उस बाज़ार से कुछ नहीं मिला। स्कूल कालेज अस्पताल सब कुछ महँगा है। सब एक अधूरे सपने के पीछे भाग रहे हैं। सारे मज़बूत नेता दुनिया को टहला रहे हैं। 2008 की मंदी से निपटने का सपना दिखाते रहे। इसके नाम पर कारपोरेट को जनता के लाखों करोड़ सौंप दिये गए फिर भी मंदी नहीं गई। अरबों ख़रबों हवा हो गए। अब खुद कह रहे हैं कि मंदी चल रही है। आठ साल से मंदी चल रही है। नव उदारवाद के आर्थिक विचार अब दरकने लगे हैं। अवसरों को ग्लोबल रूप देने का अभियान ध्वस्त हो रहा है। मेरे यहाँ की नौकरी उनके यहाँ क्यों जाए अब इसकी राजनीति ज़ोर पकड़ रही है। इमिग्रेशन और नौकरियों को लेकर हो रही राजनीति बता रही है कि एक बड़े तबके का धीरज समाप्त हो गया है। असामनता भयानक है। मीडिया असंतोष को कुचलने का हथियार है। विकल्प के रूप में किसी के पास नया आर्थिक आइडिया नहीं है। जो भी है वो पहले फ़ेल हो चुका है। ग्लोबल स्तर पर मुल्कों के नए नए समूह बन रहे हैं। कूटनीति का तरह तरह से क्षेत्रीकरण हो गया है। हास्यास्पद तरीके से गुट बन रहे हैं। कहीं ब्रिक्स है तो कहीं एस सी ओ है तो कहीं कुछ है। पचासों प्रकार के ये कूटनीतिक संगठन बताते हैं कि नवउदारवाद दुनिया के समाज को ग्लोबल नागरिकों के समाज में नहीं बदल सका। इसका असर और भी भयानक होने वाला है। कुतर्की दक्षिणपंथी नेता राष्ट्रवादी जुमलों से फटीचर किस्म के स्वाभिमान की राजनीति तो रच देंगे मगर उनके पास भी समाधान नहीं है। तो भड़काऊ नारों पर मुक्के लहराने के लिए तैयार रहें। एक पीढ़ी इसी में निकल जाएगी। ब्रिटेन के नागरिकों का ग़ुस्सा सिर्फ ब्रिटेन में नहीं है। अमरीका में सिर्फ ट्रंप के समर्थकों में नहीं है। हिलेरी भी कई तरीके से ट्रंप की ही बात कह रही हैं।यही ग़ुस्सा भारत के मुंबई में है। बिहार में है और गुजरात में है। हर जगह अवसरों के विस्तार को लेकर संघर्ष है। बिज़नेस बढ़ा कर अवसर पैदा करने के अभियानों के पास अनंत आकाश नहीं है। अब यह दिख रहा है। दिख तब भी रहा था। नव उदारवाद को लेकर तमाम आशंकायें सही साबित हो रही हैं। अफ़सोस ये है कि किसी के पास कोई उम्मीद नहीं है। किसी के पास कोई नया आइडिया नहीं है। कोई किसी का असफल आइडिया चुरा रहा है तो कोई किसी का सफल आइडिया। कस्बा से साभार।


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