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कश्मीर में आज की पीढ़ी और आतंकियों से निपटने में श्रेय लेने की होड़

खरी-खरी            Jun 29, 2016


punya-prasoon-vajpaiपुण्य प्रसून बाजपेयी। श्रीनगर से 3 से 6 घंटे की दूरी पर कूपवाडा का केरन, तंगधार,नौ गाम और मच्चछल ऐसे क्षेत्र है जहां से लगातार घुसपैठ होती है। पहली ऐसी घुसपैठ बांदीपुरा के गुरेज सेक्टर से होती थी। लेकिन सेना ने वहा चौकसी बढाई को घुसपैठ बंद हो गई। तो यह सवाल हर जहन में आ सकता है कि सेना चाहे तो ठीक उसी तरह इन इलाकों में घुसपैठ रोक सकती है, लेकिन पहली बार वादी में सवाल सीमापार से घुसपैठ से कहीं आगे देश के भीतर पनपते उस गुस्से का हो चला है जिसकी थाह कोई ले नहीं रहा और जिसका लाभ आंतकवादी उठाने से नहीं चूक रहे। क्योंकि जिस तरह कूपवाडा में मारा गया आतंकवादी समीर अहमद वानी के जनाजे में शामिल होने के लिये ट्रको में सवार होकर युवाओं के जत्थे दर जत्थे सोपोर जा रहे हैं। उसने यह नया सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या आंतक की परिभाषा कश्मीर में बदल रही है या फिर आतंक का सामाजिकरण हो गया है क्योंकि नई पीढी को इस बात का खौफ नहीं कि मारा गया समीर आंतकवादी था और वह उसके जनाजे में शामिल होंगे तो उनपर भी आतंकी होने का ठप्पा लग सकता है। बल्कि ऐसे युवाओं को लगने लगा है कि उनके साथ न्याय नहीं हो रहा है और हक के लिये हिंसा को आंतक के दायरे में कैसे रखा है। जाहिर है यह एेसे सवाल हैं जो 1989 के उस आंतक से बिलकुल अलग जो रुबिया सईद के अपहरण के बाद घाटी में शुरु हुआ। दरअसल 90 के दशक में आंतक से होते हुये अलगाववाद की लकीर कश्मीरी समाज में खौफ पैदा भी कर रही थी और आंतक का खौफ कश्मीरी समाज को अलग—थलग भी कर रही थाी लेकिन अब जिस तरह सूचना तकनीक ने संवाद और जानकारी के रास्ते खोले है। दिल्ली और धाटी के बीच सत्ता की दूरी कम की है। राजनीतिक तौर पर सत्ता कश्मीर के लिये शॉ़टकट का रास्ता अपना रही है। उसने घाटी के आम लोगों और सत्ता के बीच भी लकीर किंच दी है और यह सवाल दिल्ली के उस नजरिये से कही आगे निकल रहा है जहां खुफिया एजेंसी सीमा पार के आंतक का जिक्र तो कर रही है लेकिन घाटी में कैसे आतंक को महज हक के लिये हिंसा माना जा रहा है और उसी का लाभ सीमापार के आंतकवादी भी उठा रहे हैं इसे कहने से राजनीतिक सत्ता और खुफिया एजेंसी भी बच रही है। यानी घाटी गिलानी और यासीन मलिक के आंतक से कही निकल कर युवा कश्मीरियों के जरीये आतंक का सामाजिकरण कर रही है। लेकिन दिल्ली श्रीनगर का नजरिया अभी भी घाटी में आंतक को थामने के लिये बंदूक की बोली को ही आखिरी रास्ता मान कर काम रहा है। इसीलिये कश्मीर को लेकर हालात कैसे हर दिन हर नयी घटना के साथ सामने आने लगे हैं यह कभी पंपोर तो कभी कूपवाड़ा तो कभी सोपोर से लेकर घाटी के सीमावर्ती इलाकों में गोलियों की गूंज से भी समझा जा सकता है और श्रीनगर में विधानसभा के भीतर बीजेपी विधायकों का पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में आतंकवादी कैंपों पर हवाई हमले करने की तक की मांग से भी जाना जा सकता है। तो दिल्ली में गृहमंत्री राजनाथ सिंह की तमाम खुफिया एजेंसियों के प्रमुखों के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और गृह सचिव के बीच इन हालातों को लेकर मंथन की कैसे आतंकी हमलो से सीआरपीएफ बचे और उपाय के तौर पर यही निर्णय लेना कि सीआरपीएफ भी बख्तरबंद गाडी में निकले। सेना के साथ घाटी में मूवमेंट करसे आगे बात जा नहीं रही है। तो क्या दिल्ली और श्रीनगर के पास घाटी में खड़ी होती आंतक की नयी पौघ को साधने के कोई उपाय नहीं है। या फिर घाटी को देखने समझने का सरकारी नजरिया अब भी 1989 के उसी आतंकी घटनाओं में अटका हुआ है जब अलगाववादी नेताओ की मौजूदा फौज युवा थी। यानी तब हाथों में बंदूक लहराना और आंतक को आजादी के रोमान्टिज्म से जोडकर खुल्ळम खुल्ला कानून व्यवस्था को बंधूक की नोक पर रखना भर था। अगर ऐसा है तो फिर कश्मीर में आतंक के सीरे को नहीं बल्कि आतंक से बचने के उपाय ही खोजे जा रहे है और आतंक पर नकेल कसने का नजरिया हो क्या इसे लेकर उलझने ही ज्यादा है। क्योंकि विधानसभा में जम्मू कश्मीर की सीएम महबूबा पाकिस्तान से बातचीत की वकालत करती है और सत्ता में महबूबा के साथ बीजेपी के विधायक रविन्द्र रैना पीओके के मिलिटेंट कैप पर हवाई हमले की मांग करते हैं। दिल्ली में उसी बीजेपी की केन्द्र सरकार सीमा पर सेना को खुली कार्रवाई की इजाजत देने की जिक्र कर खामोश हो जाती है। यानी घाटी में जो पांच बड़े सवाल हैं उसपर कोई नहीं बोल रहा, क्योंकि वह सत्ता के माथे पर शिकन पैदा करते हैं। पहला सवाल तो बढ़ती बोरजगारी का है। दूसरा सवाल कश्मीर के बाहर कश्मीरियों के लिये बंद होते रास्तों का है। तीसरा सवाल दफन कश्मीरियों की पहचान का है। चौथा सवाल किसी भी आतंकी भेड़ के बाद उस इलाके के क्रेकडाउन का है जिसके दायरे में आम कश्मीरी फंसता है और चौथा सवाल सेना से लेकर अर्द्धसैनिक बलों में श्रेय लेने की होड़ का है। जिसमें मासूम फंसता है या आपसी होड कश्मीर को बंदूक के साये में ही देखना पसंद करती है। यह ठीक उसी तरह है जैसे कूपवाडा में दो आतंकवादियों को मारा किसने इसकी होड़ सेना और सीआरपीएफ में लग गई। दोनों की तरफ से ट्विट किये गये, लेकिन सीआरपीएफ ने जब वीडियो फुटेज दिखायी तो सेना ने माना कि सीआरपीएफ ने ही आतंकवादियों को मारा और इस बहस में यह सवाल गौण हो गया कि कैसे आंतकवादी पंपोर में हमले से पहले आतंकी करीब छह घंटे तक श्रीनगर शहर में घूमते रहे,जबकि पुलिस हाईअलर्ट पर थी। कैसे जिस कार में आतंकवादी सवार थे,उसने कई नाके क्रॉस किए लेकिन हमले के बाद कार मौका-ए-वारदात से फरार होने में कामयाब रही। कैसे सीआरपीएफ की रोड ओपनिंग पार्टी यानी आरओपी हाईवे को सुरक्षित करने में विफल रही और आतंकी हमले का जवाब नहीं दे पाई। कैसे सीआरपीएफ की बस,जिसमें जवान जा रहे थे,वो अलग थलग चल रही थी। कैसे सेना के काफिले में आगे और पीछे की गाड़ी में हथियारबंद जवानों का होना जरुरी है लेकिन ऐसा पर में नहीं हुआ। कैसे ट्रैफिक के दौरान सीआरपीएफ की गाड़ियां आगे-पीछे हो गई,जिसका मतलब है कि उनके बीच सामंजस्य नहीं था। यानी एक तरफ रवैया ढुलमुल तो दूसरी तरफ आधुनिक तकनीक के आसरे दुनिया से जुडता पढा लिखा कश्मीरी। जिसके सामने कश्मीर से बाहर दुनिया को जानने का नजरिया इंटरनेट या सोशल मीडिया ही है। जो भारत को कहीं तेजी से समझता है यानी दिल्ली जबतक कश्मीर को समझ उससे काफी पहले समझ लेता है।


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