केजरीवाल के कारण भाजपा के लिये दिल्ली बड़ी चुनौती
खरी-खरी
Feb 05, 2015
कुंवर समीर शाही
दिल्ली के चुनाव नतीजों पर देश की राजनीति का भावी रुख निर्भर करने जा रहा है। यह अकारण नहीं है कि दिल्ली में एक नई-नवेली पार्टी के खिलाफ भाजपा ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है, क्योंकि दिल्ली में जीत का भाजपा के लिए प्रतीकात्मक महत्व है। दूसरी तरफ, अगर अरविंद केजरीवाल की पार्टी बहुमत हासिल करने और सरकार बनाने में कामयाब हो गये तो विश्लेषकों को वैकल्पिक राजनीति के नाटकीय उभार और मोदी युग के समापन की घोषणा करने का अवसर मिल जाएगा।
हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड और जम्मू-कश्मीर के चुनावों से पहले भाजपा ने अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा नहीं की थी। इन चुनावों में उसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे के दम पर जीत हासिल करने का भरोसा था। लेकिन दिल्ली के लिए उसने अपनी रणनीति बदली और किरन बेदी को अपना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया, जिन्होंने एक दिन पहले ही पार्टी ज्वॉइन की थी! यह भाजपा जैसी संगठन-आधारित पार्टी के लिए एक चौंकाने वाला निर्णय था। शायद भाजपा ने यह सोचा हो कि लोहा लोहे को काटता है और अरविंद केजरीवाल की तरह अण्णा आंदोलन का प्रमुख चेहरा रहीं किरन बेदी केजरीवाल को कड़ी टक्कर दे सकेंगी। इंडिया अगेंस्ट करप्शन के मंच पर तिरंगा झंडा फहरातीं किरन बेदी की छवि दिल्लीवासियों में मन में अब भी ताजा थी।
लेकिन भाजपा ने अपनी रणनीति क्यों बदली? दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक प्रारंभिक रैली अपेक्षानुसार कामयाब साबित नहीं हुई थी और शायद प्रधानमंत्री और उनके सलाहकारों ने सोचा हो कि दिल्ली जैसे शहर के लिए उन्हें एक चेहरा पेश करना ही होगा। किरन बेदी के नाम पर इसलिए भी विचार किया गया होगा क्योंकि ईमानदारी का दम भरने वाली आम आदमी पार्टी के समक्ष भाजपा एक ऐसा चेहरा उतारना चाहती थी, जिसके साथ ईमानदारी व कर्मठता के मिथक जुड़े हुए हों। आखिर किरन बेदी एक लंबे समय से उन भारतीय महिलाओं की आदर्श रही हैं, जो कि घर से बाहर निकलकर काम करना चाहती हैं। भाजपा ने किरन को दिल्ली में अपना नेता चुनने के लिए उनके उन पुराने ट्वीट्स को भी नजरअंदाज कर दिया, जिनमें उन्होंने मोदी की आलोचना की थी।
लेकिन अगर ताजा रुझानों पर गौर करें तो किरन बेदी के नेतृत्व में भाजपा दिल्ली के चुनावों में पिछड़ती हुई नजर आ रही है। एबीपी-नीलसन का ताजा सर्वे तो केजरीवाल और बेदी के बीच 9 फीसद का फासला बता रहा है। इससे पहले यह फासला 4 फीसद बताया गया था और यह माना जा रहा था कि भाजपा का मजबूत प्रचार तंत्र बड़ी आसानी से इस फासले को पाट देगा। लेकिन अभी इसके ठीक विपरीत हो रहा है। दिल्ली में किरन बेदी विरोधी प्रचार की हवा चल रही है और किसी को वास्तव में यकीन नहीं है कि वे मोदी के लिए दिल्ली की जंग जीत सकेंगी। रास्ते चलते किसी से भी बात करें और वह हमें यही बताएगा कि 'आप" बढ़त बनाए हुए है। यह स्थिति तब है, जब एक 'भगोड़े" और 'अराजक" नेता के रूप में केजरीवाल के प्रति आम धारणा आज भी न केवल कायम है, बल्कि भाजपा द्वारा उसका दोहन कर उसे निरंतर बलवती भी किया जा रहा है।
आधी-अधूरी तैयारी के साथ मीडिया से बातचीत करने के दो-तीन प्रसंगों के कारण भी किरन बेदी के प्रति लोगों का भरोसा डिगा है। प्राइम टाइम पर एक इंटरव्यू को उन्होंने जल्दबाजी में छोड़ दिया। बाद में एक अन्य टीवी चैनल से बातचीत करते समय वे इतनी अस्थिर नजर आईं कि लोग सोचने लगे वे दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी संभाल सकेंगी भी या नहीं। जैसा कि एक राजनीतिक टिप्पणीकार ने कहा, किरन बेदी में शीला दीक्षित जैसी राजनीतिक परिपक्वता कतई नहीं है और उनकी ख्याति एक ऐसी पुलिस अफसर के रूप में है, जो अपने कपड़ों पर ठीक से इस्तरी नहीं करने वाली धोबन को निरंतर भला-बुरा कहती रहती थीं।
दिल्ली को हाथ से जाता देख भाजपा का सावधान हो जाना स्वाभाविक ही था। लिहाजा, केंद्रीय वित्त मंत्री और भाजपा के कुशल रणनीतिकार माने जाने वाले अरुण जेटली के नेतृत्व में 14 केंद्रीय मंत्रियों व सौ से अधिक सांसदों को दिल्ली में चुनाव प्रचार के लिए झोंक दिया गया। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दिल्ली में चार सभाओं को संबोधित करने को राजी हुए, जिनमें से दो सभाएं वे पहले ही ले चुके हैं। दिल्ली में 7 फरवरी को मतदान होना है और इसके मद्देनजर प्रधानमंत्री के लिए यह बहुत ही व्यस्ततापूर्ण कार्यक्रम साबित होगा।
लेकिन केजरीवाल आत्मविश्वास से भरे नजर आ रहे हैं। उनके आत्मविश्वास का एक कारण यह भी है कि जयंती नटराजन के सनसनीखेज खुलासों के बाद दिल्ली में पहले ही मैदान से बाहर मानी जा रही कांग्रेस को और नुकसान पहुंचा है और यह तय है कि कांग्रेस के परंपरागत मुस्लिम और पिछड़े मतदाता अब आम आदमी पार्टी को वोट देंगे। अजय माकन मंजे हुए राजनेता हैं, लेकिन अब कोई भी यह नहीं मान रहा है कि दिल्ली के चुनावों में कांग्रेस किसी तरह का उलटफेर करने में सक्षम साबित होगी। मजे की बात यह है कि ज्यादा वक्त नहीं हुआ, जब यही दिल्ली कांग्रेस का गढ़ बनी हुई थी और वहां 15 वर्षों से शीला दीक्षित की सरकार थी, जबकि केंद्र में 10 वर्षों से डॉ. मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार काबिज थी। 15 वर्षों की अवधि में शीला सरकार द्वारा किए गए सभी विकास कार्यों को मतदाताओं ने जैसे भुला दिया है और अब दिल्ली के चुनाव पूरी तरह से किरन बनाम केजरीवाल बनकर रह गए हैं।
केजरीवाल की उम्मीद का एक आधार यह भी है कि खबरों के मुताबिक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा दिल्ली के चुनावों में ज्यादा दिलचस्पी नहीं ली जा रही है। अण्णा आंदोलन के दौरान भी इंडिया अगेंस्ट करप्शन को संघ का समर्थन रहा था और अब अगर आम आदमी पार्टी दिल्ली में कांग्रेस का खात्मा कर रही है तो संघ को इससे ऐतराज नहीं होगा। दूसरी तरफ, प्रधानमंत्री मोदी के पैर जमीन पर रहें, इसके लिए भी यह जरूरी होगा कि दिल्ली में भाजपा को कड़ा मुकाबला करना पड़े। वैसे भी संघ की यह धारणा रही है कि व्यक्ति संगठन से बड़ा नहीं होना चाहिए।
दिल्ली का विधानसभा चुनाव किसी नगर पालिका चुनाव सरीखे मुद्दों पर लड़ा जाता है, लेकिन इसके बावजूद दिल्ली जीतने का एक प्रतीकात्मक महत्व है। यही कारण है कि हमें कड़ा संघर्ष देखने को मिल रहा है। इतना तो तय है कि अगर भाजपा दिल्ली हार गई तो इससे मोदी की छवि को नुकसान पहुंचेगा और यही कारण है कि भाजपा अब इन चुनावों में अपनी पूरी ताकत झोंक रही है। केजरीवाल के प्रति भाजपा के प्रतिकूल रुख का एक कारण यह भी है कि अगर केजरीवाल मुख्यमंत्री बन गए तो वे रोज ही कोई न कोई बखेड़ा कर सकते हैं, जिससे कि वे लगातार सुर्खियों में बने रहें। और अपनी विकासगाथा को सुर्खियों में शामिल रखना चाहने वाली भाजपा को यह कतई मंजूर नहीं होगा।
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