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क्या परमाणु समझौते से हमारा भला होगा?

खरी-खरी            Feb 03, 2015


कुंवर समीर शाही भारत और अमेरिकी संबंधों को नए आयाम पर पहुंचाने वाली दोनों देशों के बीच हुई नवोन्मेषी असैन्य परमाणु संधि कागजों पर तो वर्ष 2006 में ही हो गई थी लेकिन उसके बाद परमाणु जवाबदेही पर भारतीय कानूनों के चलते धूल ही फांकती रही, जिसके अब सिरे चढऩे की उम्मीद नजर आ रही है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के गणतंत्र दिवस के दौरान हुए भारतीय दौरे में जिन अहम बातों पर सहमति बनी है, उनमें से यह एक है, जिसके चार पहलू हैं। भारत अपनी परमाणु जवाबदेही नहीं बदलेगा, इसके बजाय वह किसी आशंकित दुर्घटना की स्थिति में दावों के निपटान के लिए एक सरकारी कोष बनाएगा। इसके साथ ही भारत अपने कानून के प्रावधान को नए नजरिये से देखेगा, जो नुकसान के लिए खराब कानून के तहत दावों को मंजूरी देता है तो वहीं अमेरिका ने शांतिपूर्ण परमाणु कार्यक्रम के तहत आपूर्ति किए जाने वाले पदार्थों पर नजर रखने की अपनी मांग छोड़ दी है। अभी केवल व्यापक प्रावधान ही तय किए गए हैं और उम्मीद की जानी चाहिए कि जब इसका विस्तृत ब्योरा सामने आएगा तो भारत सरकार उन पहलुओं पर कमजोर महसूस नहीं करेगी, जो मायने रखते हैं। आखिरकार विस्तृत ब्योरे से अगर कोई नकारात्मक तस्वीर बनती है तो सवाल यही उठेगा कि वह तस्वीर किसके लिए नकारात्मक होगी? इसमें भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का काफी कुछ दांव पर लगा है क्योंकि एक परमाणु शक्ति के तौर पर भारत उसके दिल के बेहद करीब है और यह दर्जा केवल परमाणु बम रखने तक ही तार्किक नहीं है बल्कि एक सुगम परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम और परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह जैसी संस्थाओं का हिस्सा बनने पर ही अर्थपूर्ण होगा। इसका निर्णायक पुरस्कार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता ही होगी लेकिन यह तभी संभव होगा, जब अमेरिकी सरकार इस मुहिम को मजबूती से चलाए, जो अपनी कंपनियों द्वारा भारत को अरबों डॉलर के परमाणु रिएक्टर बेचने में मदद के बाद ही होगा। मगर वे ऐसा नहीं करेंगे, अगर किसी दुर्घटना की स्थिति में जवाबदेही उनके कंधों पर डाली जाएगी। परमाणु हादसों के संबंध में पूरी हकीकत यही है कि वे भारी नुकसान कर सकते हैं और अगर तीसरे पक्ष को होने वाले नुकसान के दावों के लिए बिजली संयंत्र आपूर्तिकर्ता (अमेरिकी) और संचालक (भारतीय) जिम्मेदार होंगे तो उन दावों के निपटारे में वे दोनों ही दिवालिये हो सकते हैं। इन दावों के आकार ने अमेरिकी सहित कई सरकारों को जोखिम साझा करने के लिए तैयार किया है और भारत द्वारा प्रस्तावित कोष का वादा भी उसी दिशा में एक कदम है। मसला यही है कि अगर 1,500 करोड़ रुपये की सार्वजनिक रकम (राष्ट्रीयकृत बीमा कंपनियों और भारत सरकार द्वारा दी जाने वाली) से बनाया जाने वाला बीमा कवर दावों के लिए नाकाफी होगा तो फिर क्या ऐसी स्थिति में संयंत्र आपूर्तिकर्ताओं का सहारा लिया जाएगा? अगर ऐसा नहीं होता और कोई हादसा हो जाता है तो फिर उसका दंश पूरी तरह भारत को ही झेलना होगा। यह एक तरह से भोपाल की पुनरावृत्ति होगी और उसके पीडि़तों के साथ हुई नाइंसाफी के बाद ही ऐसे भारतीय कानून बने हैं। जैसा कि सिद्घार्थ वरदराजन बताते हैं कि दुनिया में सबसे सबसे मजबूत जवाबदेही कानूनों में से एक कानून को लेकर भारतीय आग्रह थ्री माइल आइसलैंड और फुकुशिमा हादसा मामलों में आपूॢतकर्ताओं के नुकसान के दावों पर अमेरिकी अदालतों की सुनवाई करने की तत्परता पर निर्भर करती है। यह सवाल पूछना भी वाजिब है कि एक कार कैसे परमाणु बिजली संयंत्र से अलग है। अमेरिकी अदालतों ने न केवल खस्ताहाल कारों से होने वाले हादसों के मामले में तमाम दावों को मंजूरी दी है, बल्कि पीडि़तों के दावों के मामले में नियामक अदालती फैसले से पहले ही हरकत में आ जाते हैं। टोयोटा पर 1.2 अरब डॉलर का भारी-भरकम हर्जाना लगाया गया तो वहीं जनरल मोटर्स के खिलाफ जांच शुरू हो चुकी है। उपकरण के डिजाइन में सुरक्षा सुनिश्चित करने का सबसे बेहतरीन तरीका गड़बड़ी के मामले में हर्जाना बढ़ाना ही होगा, जिसमें आपराधिक अनदेखी के लिए भारी आर्थिक हर्जाने और अदालत द्वारा निर्धारित लोक दावों दोनों के जरिये किया जाए। अहम मसला यही है कि अगर परमाणु हादसे से नुकसान इतना ज्यादा हो सकता है तो फिर परमाणु बिजली की राह क्यों अख्तियार की जाए? दरअसल शक्तिशाली भारत के विचार के साथ ही इसकी शुरुआत होती है, जिसमें बम रखने के साथ ही उसमें परमाणु शक्ति का आग्रह भी शामिल है। दूसरी ओर फुकुशिमा हादसे के बाद जापान ने अपने सभी परमाणु बिजलीघर बंद कर दिए और जब हादसे के चार साल बाद इस वर्ष शुरू होंगे तो सभी संयंत्र शुरू नहीं होंगे। कुछ की अवधि 40 वर्ष पहुंच जाएगी और उन्हें बंद किया जाएगा, जो एक खर्चीली प्रक्रिया है। फुकुशिमा हादसे के बाद जर्मनी ने वर्ष 2022 तक अपने सभी परमाणु बिजली संयंत्र बंद करने का निर्णय किया। फुकुशिमा के बाद 'परमाणु बिजली की नैतिकता' विषय पर कार्यरत एक जर्मन आयोग ने कहा, 'हमें और हमारे बच्चों पर असर डालने के लिहाज से परमाणु बिजली में भी बहुत अंतर्निहित जोखिम हैं।' एक मेगावॉट के परमाणु बिजली संयंत्र के लिए करीब 6 से 8 करोड़ रुपये की दरकार होती है, जो कमोबेश तापीय बिजली संयंत्र के ही बराबर है। सभी बुद्घिमान देशों को पवन, सौर और गैस आधारित बिजली (ये कम प्रदूषण तो करते ही हैं, साथ ही मांग और आपूर्ति को पूरा करने के लिहाज से उन्हें शुरू करना और बंद करना भी आसान है) के संयोजन की दिशा में काम करना चाहिए। अच्छी खबर यही है कि अमेरिका ने जबरदस्त सौर ऊर्जा क्षमता तैयार करने में भी वादा किया है, जिसकी तकनीक तेजी से परिपक्व होती जा रही है। जहां तक परमाणु बम की बात है तो यह सुरक्षा को नहीं बढ़ाता। पाकिस्तान ने भी 1998 में ही भारत के तुरंत बाद अपने परमाणु परीक्षण कर दिए और इस तरह परमाणु शक्ति के मामले में दोनों देशों की बराबरी हो जाने से अरसे से परंपरागत रक्षा क्षमताओं के मामले में भारत की बढ़त हवा हो गई।


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