तेरा तुझको अर्पण:जन-धन के बलबूते चुनावी छल
खरी-खरी
Feb 02, 2015
कुंवर समीर शाही
चुनाव आए तो समझो कि उत्सव आ गया, जनता की पौ बारह हो गई। चुनावों में ही तो जनता के दुखों की परवाह की जाती है, उन पर मरहम लगाया जाता है। दिल्ली बहुत लकी है कि पिछले चार सालों से यह उत्सव देख रही है-2012 में नगर निगम, 2013 में असेम्बली, 2014 में लोकसभा और अब 2015 में फिर से असेम्बली चुनाव। अगर असेम्बली में किसी को बहुमत नहीं मिला तो उत्सवों का यह सिलसिला और आगे बढ़ सकता है। चुनाव उत्सव क्यों होते हैं, यह अपने आप में विचार का विषय है क्योंकि बहुत-से लोग तो इनसे खफा होते हैं क्योंकि दिल्ली में हर चुनाव पर करीब 500 करोड़ का खर्चा हो जाता है। बार-बार के चुनाव जनता पर ही तो बोझ डाल रहे हैं। मगर, राजनीतिक दल जो वादे कर रहे हैं या जिन वादों के दम पर वे सत्ता में आ जाते हैं, जनता को उसका लाभ मिलना चाहिए, न कि नुकसान। यह बात जनता समझने की कोशिश नहीं करती कि वास्तव में वह धन जनता की जेब से ही जा रहा है। जनता का धन खैरात के रूप में जनता पर लुटाकर वे वाह-वाही लूट ले जाते हैं।
‘आप’ ने दिल्ली को बिजली के बिलों में कटौती करने का वादा किया है। जनता ‘आप’ सरकार के वे 49 दिन नहीं भूल पाई जब सचमुच बिलों में कटौती हो गई थी। तीन महीने की कटौती के बदले सरकार को 272 करोड़ रुपये की सब्सिडी देनी पड़ी थी। 20 हजार लीटर मुफ्त पानी पिलाने पर भी मोटी रकम जाती है। जनता इन्हीं वादों के कारण ‘आप’ की दीवानी हुई थी। हालांकि कांग्रेस भी पहले छोटी-मोटी सब्सिडी देती रही है लेकिन अब ‘आप’ की देखादेखी वह भी सब्सिडी की होड़ में कूद पड़ी है। कांग्रेस ने पहले 200 यूनिट तक बिजली की कीमत घोषित कर दी है और कहा है कि जनता को 1.50 रुपये प्रति यूनिट की दर से बिजली देगी। इससे अधिक बिजली इस्तेमाल करने पर भी आधी कीमत ही देनी होगी यानी साल भर में 200 करोड़ रुपये की सब्सिडी का प्लान है। बीजेपी ने अभी वादों का पिटारा नहीं खोला है लेकिन बिजली के बिलों में 30 फीसदी की कटौती की बात वह करती आई है।
जनता को बिजली सस्ती मिलनी चाहिए, यह सभी जानते हैं। यह एक दिमागी कसरत है कि 3.70 रुपये प्रति यूनिट बिजली खरीदकर उसे सस्ता कैसे बेचा जा सकता है? अगर राजनीतिक दल यह वादा करते हैं कि वे निजी कंपनियों से बिजली सस्ती दिलाएंगे तो वाकई यह जनता के हित की बात होती लेकिन सब्सिडी देकर जनता को सस्ती बिजली दिलाने में तो जनता का ही घाटा है। केजरीवाल ने पीडब्ल्यूडी और एमसीडी की मदों से राशि लेकर सब्सिडी का भुगतान किया था यानी जनता के किसी और काम की राशि बिजली सब्सिडी के रूप में खर्च कर दी गई। हो सकता है कि उस राशि से फ्लाईओवर का निर्माण होता या आपके घर के बाहर की सड़क पक्की हो जाती। यहां यह सवाल उठता है कि क्या चुनाव के समय सब्सिडी के रूप में जनता को यह लालच दिया जाना एक रिश्वत का रूप नहीं है? चुनाव के समय नेता तरह-तरह के वादे करते हैं। जयललिता ने चुनाव जीतने पर सभी वोटरों को टीवी देने की बात कही थी तो सुप्रीम कोर्ट भड़क उठा था। कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी थी। इसी तरह चंद्रबाबू नायडू ने अब किसानों के कर्जे माफ करने की बात कही है। यूपीए सरकार इसी तरह कर्जे माफ कर चुकी है जिस पर हजारों करोड़ रुपये खर्च हुए। रिजर्व बैंक भी इस प्रवृति पर चिंता जाहिर कर चुका है। एक तरफ तो देश की इकॉनमी को काबू में लाने के लिए सब्सिडी हटाने की बात कही जाती है। पेट्रोल-डीजल को खुले बाजार पर छोड़ दिया गया है। दूसरी तरफ जनता के धन को सब्सिडी के रूप में देने के लिए चुनावी वादे किए जाते हैं। जनता को सस्ती बिजली मिले, मुफ्त पानी मिले, यह सरकार की जिम्मेदारी है लेकिन यह सामाजिक कार्य नहीं है। इसकी बजाय अगर मुफ्त हेल्थ सुविधाओं या एजुकेशन फ्री करने की बात की जाती तो समझ में आ सकता था। हैरानी की बात यह है कि चुनाव आयोग इन वादों पर कान नहीं धर रहा और मूकदर्शक बनकर सब देख रहा है।
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