सोमदत्त शास्त्री
डॉ अंजनी चौहान मेरे बरसों पुराने अभिन्न मित्र हैं। वे सिर्फ चिकित्सक नहीं हैं, बल्कि नामचीन साहित्यकार भी हैं। बरसों धर्मयुग, दिनमान, कादम्बनी जैसी पत्र - पत्रिकाओं में उनके लेखन के डंके बजते रहे हैं। डॉ ज्ञान चतुर्वेदी और प्रभुजोशी जैसे विश्व स्तर की ख्याति के साहित्यकार उनके मित्रों में शामिल हैं। खास बात यह है कि, सन 1975 के प्रथम हिंदी सम्मलेन में वे आमंत्रित किये गए थे लेकिन भोपाल के विश्व हिंदी सम्मलेन में उन्हें पूछा तक नहीं गया। हिंदी साहित्य के जाने -माने समीक्षक, लेखक डॉ विजय बहदुर सिंह ने पहले ही सम्मलेन को लेकर कई आशंकाएं डॉ रामबहादुर राय साहब की पत्रिका यथावत् के अगस्त अंक में जाहिर की थी। मेरी समझ से परे यह है कि कुछ समय पहले तक 10 हजार अतिथियों के आगमन कि बात करने वाला राज्य का सरकारी तंत्र अब सिर्फ दो हजार साहित्यकारों के आने की बात कैसे कह रहा है?
जब पैंतीस साल पहले 6 हजार हिंदी सेवी साहित्यकार-लेखक यदि तत्कालीन आयोजन में जुटे थे तो अब सिर्फ दो हजार हिंदी सेवी क्यों ? इतने लोग तो मुख्यमंत्री निवास में होली और 'फाग पर यूं ही जुट जाते हैं।
बरसों- बरस हिंदी मेें लिखने पढ़ने वाले हिंदी सेवी-साहित्यकर्मी और यहां तक की हिंदी भाषी अखबारों के नामचीन पत्रकार भी प्रवेश पत्रों के लिए या तो भिखारियों की तरह सरकारी दफ्तरों के चक्कर काट रहे हैं या फिर शांत बैठ गये हैं। कुछ इस अंदाज में कि गर बुलाया तो चले जायेंगे वरना घर पर तो बने हैं। वहां से कौन बेदखल करेगा!
पांच दिन पहले राज्य सरकार ने कलेक्टरों से कहा ''बुला लो सबको, भेज दो न्यौता। अब जिला प्रशासन सूचियां खंगाल रहा है। यह कोई आसान काम तो नहीं है। कैसे बुला लें, किसको बुला लें, दूर दराज तक समय पर न्यौता कैसे पहुंचे?
सरकारी तंत्र ने तो यह भी नहीं सोचा कि हिंदी सेवियों को प्रवास की तैयारी का समय तो मिलना चाहिए था। अब आनन-फानन में भीड़ जुटाने की सरकारी तैयारी! यानी अपमान दर अपमान। इसके विपरीत अभी तक हिंदी सम्मेलन में शिरकत करने वाले जिन महानुभावों की सूची जारी हुई है, उनमें से अनेक तो ऐसे भी हैं जिन्होंने और तो और, बरसों से अपना नाम भी देवनागरी में नहीं लिखा लेकिन उन्हें 'हिंदी विद्वान का नया सरकारी तमगा मिल गया है। धन्य हो।
लेखक दैनिक भास्कर में संपादक (समन्वय) के पद पर कार्यरत हैं
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