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मुन्नवर का सम्मान लौटाना संघ परिवार के गले में हड्डी फंसने सरीका

खरी-खरी            Oct 22, 2015


punya-prasoon-vajpaiपुण्य प्रसून वाजपेयी आप सम्मान वापस लौटाने के अपने ऐलान को वापस तो लीजिए। एक संवाद तो बनाईए। सरकार की तरफ से मैं आपसे कह रहा हूं कि आप सम्मान लौटाने को वापस लीजिए। देश में एक अच्छे माहौल की दिशा में यह बड़ा कदम होगा। आप पहले सम्मान लौटाने को वापस तो लीजिए। यही न्यूज चैनल की बहस के बीच में आप कह दीजिए। देश में बहुत सारे लोग देख रहे हैं। आप कहिए इससे देश में अच्छा माहौल बनेगा। 19 अक्टूबर को आजतक पर हो रही बहस के बीच में जब संघ विचारक राकेश सिन्हा ने उर्दू के मशहूर शायर मुन्नवर राणा से अकादमी सम्मान वापस लौटाने के ऐलान को वापस लेने की गुहार बार—बार लगायी तब हो सकता है जो भी देख रहा हो उसके जहन में मेरी तरह ही यह सवाल जरुर उठा होगा कि चौबीस घंटे पहले ही तो मुन्नवर राणा ने एक दूसरे न्यूज चैनल एबीपी पर बीच बहस में अकादमी सम्मान लौटाने का ऐलान किया था तो यही संघ विचारक बकायदा पिल पड़े थे। ना जाने कैसे कैसे आरोप किस-किस तरह जड़ दिए। लेकिन महज चौबीस घंटे बाद ही संघ विचारक के मिजाज बदल गए तो क्यों बदल गए। क्योंकि आकादमी सम्मान लौटाने वालों को लेकर संघ परिवार ने इससे पहले हर किसी पर सीधे वार किए। कभी कहा लोकप्रिय होने के लिए। तो कभी कहा न्यूज चैनलो में छाये रहने के लिए। तो कभी कहा यह सभी नेहरू की सोच से पैदा हुए साहित्यकार है जिन्हें कांग्रेसियों और वामपंथियों ने पाला पोसा। अब देश में सत्ता पलट गई तो यही साहित्यकार बर्दाश्त कर नहीं पा रहे हैं। सिर्फ हिंसा नहीं हुई बाकि वाक युद्द तो हर किसी ने न्यूज चैनलो में देखा ही, सुना ही। और यही हाल 18 अक्टूबर को उर्दू के मशहूर शायर मुन्नवर राणा के साथ भी हुआ। लेकिन अंदरुनी सच यह है कि जैसे ही मुन्नवर राणा ने अकादमी पुरस्कार लौटाने का ऐलान किया, सरकार की घिग्गी बंध गई। संघ परिवार के गले में मुन्नवर का सम्मान लौटाना हड्डी फंसने सरीका हो गया। क्योंकि अकादमी सम्मान लौटाने वालों की फेहरिस्त में मुन्नवर राणा पहला नाम थे, जिन्हें साहित्य अकादमी सम्मान देश में सत्ता परिवर्तन के बाद मिला। सीधे कहें तो मोदी सरकार के वक्त मिला। 19 दिसंबर 2014 को जिन 59 साहित्यकारों, लेखकों, कवियों को अकादमी सम्मान दिए गए, उनमें मुन्नवर राणा अकेले शख्स निकले जिन्होंने उसी सरकार को सम्मान लौटा दिया जिस सरकार ने दस महीने पहले सम्मान दिया था। यानी नेहरू की सोच या कांग्रेस-वाम के पाले पोसे आरोपो में भी मुन्नवर राणा फिट नहीं बैठते। तो यह मुस्किल मोदी सरकार के सामने तो आ ही गई। लेकिन सवाल सिर्फ मोदी सरकार के दिए सम्मान को मोदी सरकार को ही लौटाने भर का नहीं है। क्योंकि संघ विचारक के बार बार सम्मान लौटाने को वापस लेने की गुहार के बाद भी अपनी शायरी से ही जब शायर मुन्नर राणा यह कहकर स्टूडियो में जबाब देने लगे कि, ‘हम तो शायर है सियासत नहीं आती हमको/हम से मुंह देखकर लहजा नहीं बदला जाता।’ तो मेरी रुची भी जागी कि आखिर मुन्नवर राणा को लेकर संघ परेशान क्यों है? मुन्नवर राणा के स्टूडियो से निकलते ही जब उनसे बातचीत शुरू हुई और संघ की मान-मनौवल पर पूछा तो उन्होंने तुरंत शायरी दाग दी, ‘जब रुलाया है तो हंसने पर ना मजबूर करो/रोज बीमार का नुस्खा नहीं बदला जाता।’ यह तो ठीक है मुन्नवर साहब लेकिन कल तक जो आपको लेकर चिल्लम पो कर रहे थे आज गुहार क्यों लगा रहें हैं? अरे हुजूर यह दौर प्रवक्ताओं का है। और जिन्हें देश का ही इतिहास–भूगोल नहीं पता वह मेरा इतिहास कहा से जानेंगे। कोई इन्हें बताए तो फिर बोल बदल जायेंगे। यह जानते नहीं कि शायर किसी के कंधे के सहारे नहीं चलता। और मैं तो हर दिल अजीज रहा है क्योंकि मै खिलंदर हूं। मेरा जीवन बिना नक्शे के मकान की तरह है। पिताजी जब थे तो पैसे होने पर कभी पायजामा बनाकर काम पर लौट जाते तो कभी कुर्ता बनवाते। और इसी तर्ज पर मेरे पास कुछ पैसे जब होते तो घर की एक दीवार बनवा लेते। कुछ पैसे और आते तो दीवार में खिड़की निकलवा लेता। अब यह मेरे ऊपर सोनिया गांधी के ऊपर लिखी कविता का जिक्र कर मुझे कठघरे में खडा कर रहे हैं। तो यह नहीं जानते कि मेरा तो काफी वक्त केशव कुंज (दिल्ली में संघ हेडक्वार्टर) में भी गुजरा। मैंने तो नमाज तक केशव कुंज में अदा की है। तरुण विजय मेरे अच्छे मित्र हैं। क्योंकि एक वक्त उनसे कुम्भ के दौरान उनकी मां के साथ मुलाकात हो गई। तो तभी से। एक वक्त तो आडवाणी जी से भी मुलाकात हुई। आडवाणी जी के कहने पर मैंने सिन्धु नदी पर भी कविता लिखी। सिन्धु नदी को मैंने मां कहकर संबोधित किया। यह नौसिखियों का दौर है इसलिए इन्हें हर शायरी के मायने समझाने पड़ते हैं। और यह हर शायरी को किसी व्यक्ति या वक्त से जोड़कर अपनी सियासत को हवा देते रहते है। मैंने तो सोनिया पर लिखा, ‘मैं तो भारत में मोहब्बत के लिये आईं थीं/कौन कहता है हुकूमत के लिए आई थीं/ नफरतों ने मेरे चेहरे का उजाला छीना/जो मेरे पास था वो चाहने वाला छीना।’ शायर तो हर किसी पर लिखता है। जिस दिन दिल कहेगा उस दिन मोदी जी पर भी शायरी चलेगी। अब नई पीढ़ी के प्रवक्ता क्या जाने कि संघ के मुखपत्र पांचजन्य ने मेरे ऊपर लिखा और कांग्रेस की पत्रिका में भी मेरी शायरी का जिक्र हो चुका है। तो फिर ऐसे-वैसों के सम्मान वापस लौटाने के बाद कदम पीछे खींचने की गुहार का मतलब कुछ नहीं, ‘सबों के कहनें से इरादा नहीं बदला जाता/हर सहेली से दुपट्टा नहीं बदला जाता।’ तो यह माना जाये मौजूदा वक्त से आप खौफ ज्यादा है। सवाल खौफ का नहीं है। सवाल है कुछ लिख दो तो मां की गालियां पड़ती है। यह मैंने ही लिखा, मामूली एक कलम से कहां तक घसीट लाए/हम इस गजल को कोठे से मां तक घसीट लाए। लेकिन हालात ऐसे है जो रूठे हुए है तो मुझे अपनी ही नज्म याद आती है, ‘लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती/बस एक मां है जो मुझसे खफा नहीं होती।’ लेकिन सवाल सिर्फ गालियों का नहीं है सवाल तो देश का भी है। ठीक कह रहे हैं आप। कहां ले जाकर डुबोएंगे उन्हें जिन्हें आप गालियां देते है। कहते हैं कि औरंगजेब और नाथूराम गोडसे एक था। क्योंकि दाराशिकोह को मारने वाला भी हत्यारा और महात्मा गांधी को मारने वाला भी हत्यारा। तब तो कल आप दाराशिकोह को महात्मा गांधी कह देंगे। इतिहास बदला नहीं जाता। रचा जाता है। यह समझ जब आ जाएगी। तब आ जाएगी। अभी तो इतना ही कि, ‘ऐ अंधेरे! देख लें मुंह तेरा काला हो गया/मां ने आंखे खोल दी घर में उजाला हो गया।’ ब्लॉग से साभार


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