ममता यादव
विश्व हिंदी सम्मेलन के समापन सत्र में सदी के महानायक अमिताभ बच्चन को आमंत्रित किये जाने पर सवाल उठाये जा रहे हैं। लेकिन यह सवाल उठाने वाले अपने दिल पर हाथ रखकर ईमानदारी से जवाब दें कि क्या उनका सवाल वाजिब है? अमिताभ बच्चन को जहां बुलाया जाता है वे मान से जाते हैं। हिंदी लेखन में योगदान न सही लेकिन हिंदी से वे प्रेम करते हैं यह जगजाहिर है। सिर्फ इस आधार पर भी उनका विरोध करना जायज नहीं कहा जा सकता कि वे तो फिल्मी सितारे हैं, कई राज्यों या कई कंपनियों के ब्रांड हैं। अमिताभ इतने भी सिरे से खारिज किये जाने लायक नहीं हैं। दरअसल यह सवाल आयोजकों पर उठाये जाने चाहिये और पूछे जाने चाहिये न कि अमिताभ बच्चन पर।
आप सरकार से नाराज हैं ठीक है। बतौर साहित्यकार या पत्रकार आपने हिंदी में बहुत योगदान दिया आपको झूठे मुंह नहीं पूछा गया यहां भी आपका विरोध सही है लेकिन, सिर्फ अपनी इस नाराजगी की वजह से आप भारत के उस इंसान का अपमान कर रहे हैं जिसने फिल्मों के माध्यम से ही सही विदेशों में हिंदी पहुंचाई है। किसी न किसी तरह भारत का मान बढ़ाया है
प्रधानमंत्री मोदी के भाषण की उन लाईनों से मैं इत्तेफाक रखती हूं कि फिल्मों ने हिंदी को विदेशों में फैलाया है प्रसिद्ध् किया है। आप आपत्ति ले सकते हैं कि फिल्मी सितारे रोमन में लिखी हिंदी पढ़कर डायलॉग याद करते हैं,वाजिब है लेकिन सवाल यहां सिर्फ ये है कि अगर रोमन में लिखकर भी हिंदी पढ़ी जा रही है तो उसमें मान तो हिंदी का ही बढ़ रहा है। क्या किसी और भाषा की लिपी में वो ताकत है कि उसे उसकी लिपी में लिखकर सही—सही पढ़ा जाये? जहां तक मेरी जानकारी है नहीं इतनी आसानी से तो बिलकुल नहीं। वाकई हिंदी से प्यार करते हैं तो जिस भी लिपी में हिंदी आगे बढ़ रही है उसे बढ़ने दें। हिंदी को सर्वग्राह्य भाषा ऐसे ही नहीं कहा जाता।
बहरहाल, हिंदी के हिंग्लिश स्वरूप पर आपत्ति वो उठाते हैं जो अपने लेखन में
'कि' और
'की' में फर्क नहीं कर पाते। जो
'मैं' और
'में' में हमेशा बिंदी खा जाते हैं,जिन्होंने चंद्रबिंदी को लगभग भुला दिया है, जो अनुप्रास में भी भेद नहीं कर पाते। जो पूर्णविराम के बाद भी अपना अगला वाक्य
'और' से शुरू करने का फैशन चला रहे हैं।
सरकार अगर तकनीकी तौर पर भाषा का विस्तार करने की बात करती है तो उसे मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये। इस बात से कौन इन्कार करेगा कि तकनीक ने ही हिंदी को लोकल से ग्लोबल बनाया है। न होते फोंट कन्वर्टर तो क्या कर लेते आप? क्या चाणक्य या कृति में लिखे अपने मैटर को आप आॅनलाईन जस का तस दे सकते थे? नहीं ना तब आप क्या करते जाहिर है आपको अपनी हिंदी वाली बात रोमन में ही लिखनी पड़ती।
आज हर कोई आॅनलाईन है लेकिन इस तकनीक का सही प्रयोग कर कितने लोग रहे हैं। फेसबुक पर चौबीसों घंटे बिताने वाले लोगों में भी आधे से ज्याद ऐसे लोग हैं जिन्हें नहीं पता कि न्यू मीडिया या वेबन्यूज क्या है? मुझे हंसी नहीं आती तरस आता है उस समय जब कोई सोशल मीडिया पर मल्हार मीडिया की लिंक को लाईक तो कर देता है मगर मैसेज बॉक्स में आकर पूछता है कि यह पेपर है या मैग्जीन...?
प्रधानमंत्री मोदी ने भी विश्व हिंदी सम्मेलन के उद्घाटन सत्र के भाषण में स्वीकार किया है कि डिजीटल मीडिया में भविष्य में सिर्फ तीन भाषाओं का दबदबा रहेगा हिंदी,अंग्रेजी और चाईनीज। तो साहब हिंदी अगर आसान सी तकनीक के साथ विश्वस्तरीय भाषा बनती है तो उसमें बुराई वाली बात नहीं। विरोध करिये खूब करिये मगर उस विरोध में सकारात्मक और नकारात्मक का ध्यान रखिये। सबको एक डंडे से मत हांकिये।
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