श्रीकांत सक्सेना।
इस सौरमंडल का सबसे ख़ूबसूरत नीला ग्रह अनंत संसाधनों से भरपूर होने के बावजूद, बहुत थोड़े से लोगों का शानदार एंटीलिया बनकर रह गया है।
ये वे' विजेता' हैं जो बिना कोई लड़ाई लड़े या संघर्ष किए सिर्फ़ सत्ता संस्थान से मिलीभगत करके धरती के संसाधनों पर मालिकाना हक़ हासिल कर चुके हैं।
आम लोगों की मेहनत के बल पर अपने निजी लाभों का संचय कर रहे हैं।
उनके इसी षड्यंत्र के कारण अधिसंख्य मनुष्यों को ‘मनुष्य’ से निचले स्तर पर जीना पड़ रहा है।
नया ढाँचा या कहें कि नई विश्व व्यवस्था ये बनी है कि अगर किसी तरह व्यक्ति अपनी वैयक्तिकता को भुलाकर मनुष्य से निचले स्तर पर जीने के लिए तैयार हो जाए।
यानि मनुष्य होते हुए भी सिर्फ मनुष्य जैसा दिखने भर पर राज़ी हो जाए, तो ही उसे जीवित रहने की छूट दी जा सकती है।
कोई विकल्प शेष न देखकर संभवतः' पराजितों 'को यह बात मान लेनी पड़ी है।
हालाँकि यह कहना तो मुनासिब न होगा कि वे आसानी से इसके लिए तैयार हुए हैं।
दरअसल यह इस बात को कहने का बस एक शालीन और शिष्ट तरीक़ा है।
वरना सच्चाई तो यह है कि कोई भी व्यक्ति अपनी वैयक्तिकता से किसी प्रकार का कोई समझौता करने को कभी तैयार ही नहीं होता।
उन्होंने तो इस अवैध लूट को रोकने और अपनी मानवीय गरिमा को खोने से पहले यथाशक्ति जमकर प्रतिरोध तो किया ही होगा।
लेकिन जब राज्य जिसने उनकी गरिमा और जानमाल की सुरक्षा करने, उन्हें विकास के अवसर मुहैया करने के अपने वादों से मुकर जाए और लुटेरों से मिल जाए तो लोगों का प्रतिरोध टिक नहीं सका होगा।
जब लड़ाई का नक़्शा बदलने लगा तो पराजित लोगों को विजेताओं और राज्य की बेतुकी शर्तों को भी स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प शेष न बचा, सो उन्होंने भी आखिरकार हामी भर ली।
यह स्थिति एकपक्षीय और असंतुलित होगी लेकिन इसके पलड़ों को बराबर दिखाने के लिए संस्कार,भक्ति,श्रद्धा,कर्मफल वग़ैरह से लेकर अनंत जन्मों की कल्पनाओं को 'इतिहास' कहकर संभावित विस्फोट को टालने के लिए बहुत से उपक्रम किए गए होंगे।
कभी किसी विजेता ने अपने सबसे प्रबल और तेजस्वी शत्रु को पराजित करके पराजित समुदाय से ये कालनिरपेक्ष समझौता कर लिया कि वे अब सदैव विजेताओं की गंदगी साफ़ करेंगे।
उनका मल अपने सिर पर रखकर ढोएँगे, उनके कुओं से पानी नहीं पी सकेंगे और पराजितों की स्त्रियों को विजेतापक्ष जैसे चाहे भोग सकेंगे।
पराजित शूरों ने विकल्पहीनता की स्थिति को समझते हुए इसे स्वीकार भी कर लिया होग।
वचनबद्ध होकर सदैव उस असमान समझौते का अक्षरश: पालन करते रहे होंगे।
कभी वचन भंग न करने का आश्वासन दिया।
आज भी वे अपने दिए वचन का पालन कर रहे हैं।
कभी किसी ‘उदार’ विजेता ने उन्हें ‘मेहतर’का सुंदर विशेषण देकर उनके अपमान को कुछ सहनीय बनाने की कोशिश की तो कभी उन्हीं में से एक ने पराजितों को ‘हरिजन’ कहकर पुरानी ज़्यादतियों का हिसाब बराबर मान लिया होगा।
बहरहाल इस 'ग़लती' को सुधारने के सुदीर्घ शब्दविलास से निरपेक्ष दूसरा पक्ष आजतक उस तथाकथित "समझौते" का मल ढोता रहा होगा।
सहस्राब्दियों के बाद भी उन गर्वीले पराजित शूरों ने कभी स्वयं को "वचनभंगी" कहलाना पसंद नहीं किया होगा और मल ढोने को ही अपनी नियति स्वीकार कर लिया होगा।
सभ्यता और संस्कृति की सुदीर्घ युगयात्रा में जब ख़ुदा का स्थान बाज़ार ने ले लिया तो ऐसे ही लोग नये ख़ुदा यानि बाज़ार के चौधरी और आढ़तिए बन गए होंगे।
अपना मनुष्यत्व छिनने पर विरोध करके ख़ुद के मनुष्य होने का हक़ दोबारा हासिल करने के बजाय ग़ैरबराबरी पर टिके उस अन्यायपूर्ण समझौते का अक्षरश: पालन करते हुए ये लोग आज भी मल ढोना जारी रखे होंगे।
और अब भी विद्रोह नहीं करते होंगे, वे लोग अब न कोई शिकायत करते हैं न ही जूझते हैं।
फिलहाल यह ग्रह एक बड़ी मंडी में तब्दील हो चुका है।
क्या अब वचनअभंगियों की ज़मात में इस ग्रह के अधिसंख्य ‘जीवजंतु’ शामिल होंगे जो बस मनुष्य जैसे दिखाई देंगे?
कुल मनुष्यों का सत्तर फ़ीसदी से ज्यादा हिस्सा मनुष्यत्व से वंचित रहेगा?
इस ग्रह के मात्र पाँच फ़ीसदी से भी कम लोग समस्त संसाधनों,और शेष जीवों की सामर्थ्य के स्वामी होकर स्वयं को जन्मना श्रेष्ठ घोषित करते हुए प्रेम तक करने में असमर्थ देवतुल्य जीवन भोगते हुए,
एंटीलियाओं के छोटे-छोटे द्वीपों में क्षीरसागर पर लेटे हुए, अपनी थुलथुल तोंदों के साथ, अपनी अशक्त टाँगों को फैलाए लेटे रहेंगे और सुंदर लक्ष्मियां उनके पैर दबाती रहेंगी।
वे बस उनींदी आँखों से षड्यंत्रकारी ऋचाएँ गढ़ते रहेंगे?
कुछ चाटुकार और दलाल भी दूसरी या तीसरी श्रेणी का ’स्वर्ग’ जी रहे होंगे?
नये द्वीप बनते रहेंगे और मनुष्य,मनुष्य का मल ढोते हुए स्वयं को ‘मेहतर’में तब्दील होने के इस वीभत्स खेल को चुपचाप स्वीकार करेगा?
यह विद्रोह लंबित रहे इसलिए उनके बच्चों को भी सुबह-शाम टीवी पर सुन्दर विजुअल्स के साथ मंडियों की ऋचाएँ सुनाई जाती रहेंगी?
जिससे उनके बच्चों में भी वचनअभंगियों सा ‘संस्कार’ बना रहे।
सुरक्षित,सफल व्यापार चलता रहे,इसके वास्ते ये हिफ़ाज़त जरूरी है।इस देश में संस्कारवान होना अच्छा माना जाता है चाहे वे संस्कार मनुष्य को मनुष्यता से वंचित करने का कारण ही क्यों न हों।
हालाँकि ये भी इसी धरती पर हुआ कि ढाई हज़ार साल पहले ही एक दृष्टा ने अपनी देशना में स्पष्ट कहा कि मनुष्य की गरिमा चाहते हो तो सदियों से ढोए जा रहे इन संस्कारों के मल को पूरी तरह भस्म करो।
भस्म करो उनको भी जिन्होंने तुम्हें ये ‘संस्कार’और मल ढोते रहने का धार्मिक षड्यंत्र रचा है।
दृष्टा की बात उसके अपने देश के अलावा दुनियाभर ने सुनी है।
लेकिन उसके अपने देश में असंख्य वचनअभंगी आज भी वो मैला पूरी आस्था और आस्तिकता के साथ ढोए जा रहे हैं। शुभमस्तु ।
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