राकेश दुबे।
ऐसा देश जहां मेडिकल और इंजीनियरिंग की डिग्री पाने की दीवानगी हो, वहां यह अप्राकृतिक नहीं होगा कि जिन विद्यार्थियों को बीए-एमए की डिग्री पाने की खातिर कॉलेज-यूनिवर्सिटी आने की मजबूरी है, उनमें ज्यादातर खुद को पराजित और हतोत्साहित समझते हैं।
आगे बढ़ने के लिए निजी ट्यूशन या कोचिंग केंद्रों का सहारा लेते हैं। जहां वे बुरी तरह लिखी गाइड-कुंजियां या नोट्स पढ़ते हैं, अदूरदर्शी इम्तिहान देते हैं, जिनमें रट्टा लगाकर डिग्री पाने के अलावा और कुछ करने की जरूरत नहीं है–मसलन, संस्कृत में बीए, बौद्ध अध्ययन में एमए, बॉटनी में एमएससी इत्यादि।
हर चीज को महत्वहीन कर दिया लगता है– बीएड से लेकर पीएचडी तक।
भारतीय पुलिस सेवा से निवृत्त एक मेरे मित्र मध्यप्रदेश निजी विश्वविद्यालय नियामक आयोग के सदस्य चुने गए और आयोग के अध्यक्ष तक पहुंचे, परन्तु वे आज तक मुझे यह नहीं समझा सके कि देश में शिक्षा की दुर्दशा क्यों है?
हकीकत में हमारे देश में अधिकांश कॉलेज-यूनिवर्सिटियों में शायद ही कहीं अर्थपूर्ण पढ़ाई और अनुसंधान होता दिख रहा है।
हमारा देश विरोधाभासों से भरा है, एक ओर अभिजात्य इलाकों में पांच सितारा अंतर्राष्ट्रीय स्कूल हैं तो दूसरी तरफ घटिया गुणवत्ता वाले सरकारी विद्यालय या फिर एनआईआरएफ अनुमोदित टॉप-रैंकिंग यूनिवर्सिटियों के नाम पर पतनोन्मुख संस्थान हैं, जिसका मकसद सिर्फ इम्तिहान करवाना, डिग्री-डिप्लोमा बांटना है।
इस सोचनीय परिदृश्य में सवाल पैदा होता है,क्या इन टॉप रैंकिंग यूनिवर्सिटियों में कोई आशा की किरण है?
हमारे में अधिकांश–छात्र और अध्यापक, विज्ञानी और अर्थशास्त्री– जो इन यूनिवर्सिटियों से संबंधित हैं, प्राप्त रैंकिंग देख-देखकर मुग्ध होते रहते हैं।
इससे हमारा अहम तुष्ट होता है, हम स्वयं को बधाई देते हैं और अपनी उपलब्धियों पर गौरवान्वित होते रहते हैं।
पुरस्कार एवं प्रकाशन, सेमिनार और अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्किंग, प्लेसमेंट के दावे और हमारे ‘उत्पाद’ का बाजार भाव।
इस जश्न के बीच–यह पता करना कि कौन-सा ब्रांड बेहतर है, दिल्ली का लेडी श्रीराम कॉलेज या सेंट स्टीफन्स कॉलेज।
इस सबके बीच प्रतिभा न जाने कहाँ खो जाती है और कुछ साल बाद वो विदेश में कहीं जाकर चमकती है।
हो सकता है, इनमें कुछ अध्ययन केंद्रों में अच्छा अनुसंधान, सक्रिय कक्षा संस्कृति, कक्षा से बाहर निकलकर पढ़ाई करवाने वाले उत्साही शिक्षक और युवा विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं का बेहतर निदान होता हो।
आज रैंकिंग और ब्रांडिग को लेकर बनी सामाजिक लालसा को नहीं भूलना चाहिए।
नवउदारवाद का पैमाना प्रत्येक खोज को अपने उपयोगितावादी ध्येय में बदल रहा है।
छात्र को जो कुछ पढ़ना-सीखना है वह बाजार की मांग सर्वोपरि रखकर तय हो रही है।
अब एक उपभोक्ता वस्तु की तरह, शिक्षा के कार्यक्षेत्र यूनिवर्सिटी को निर्मित किया जा रहा है, इससे तीन नुकसान साफ दिखते हैं।
1.यह ज्ञान की रिवायती व्यवस्था में पदानुक्रम बना देता है क्योंकि उदार संकाय जैसे कि कला और मानवता संकाय की तुलना में बाजार चालित तकनीकी-वैज्ञानिक, प्रबंधन और अर्थशास्त्र के कोर्सों को धन, बुनियादी ढांचा और अनुसंधान हेतु अनुदान की अधिक मात्रा ।
2. कौशल प्रशिक्षण पर जबरिया जोर इससे यूनिवर्सिटी में बतौर एक महत्वपूर्ण अवयव रही अकादमिक संस्कृति में शिक्षा-विज्ञान का ह्रास होकर ही रहेगा।
3. यह विद्यार्थी की वृत्ति को बिगाड़ देता है। अब छात्र एक जिज्ञासु, जागृत नागरिक नहीं रहा, इसकी बजाय वह उपभोक्ता है, जो ब्रांड के पीछे दौड़ रहा है । इससे एक शिक्षक का स्वरूप भी बदल रहा है।
इस बिगाड़ को रोकने के लिए हमें बुद्धिमत्ता और नैतिक बल पर जोर देना है। इसके बगैर हमारे बेहतर भविष्य की कल्पना संभव नहीं?
Comments