राकेश दुबे।
नुपुर शर्मा ने जो कुछ कहा उसके खिलाफ विश्व में जो हो रहा है, सबको पता है।
इसके विपरीत भारत में जो हो रहा है, उसका जैसे प्रचार हो रहा है और इसके क्या परिणाम होंगे ? कोई सोचने को तैयार नहीं है।
भारत में भारत के खिलाफ भारत को तैयार किया जा रहा है, जिसके नियंत्रण में सरकार की तो बड़ी भूमिका है। पर सरकार का लक्ष्य अगले चुनाव के पहले मतों का ध्रुवीकरण है।
वतनपरस्ती के नाम पर अपनी सेकुलर कालर खड़ी करने वाले भी पीछे नहीं हैं और मीडिया शायद अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं करना चाहता।
एक भारत में अनेक भारत आमने—सामने हैं।
मीडिया के मुगलों! पड़ोसी देश पाकिस्तान से ही कुछ सीखिए।
भारत में पीईएमआरए पकिस्तान जैसी कोई संस्था नहीं है।
पाकिस्तान में यह संस्था ताक़तवर इसलिए है, क्योंकि उसे टीवी चैनलों को लाइसेंस देने और उन्हें रद्द करने का अधिकार प्राप्त है।
इमरान के शासन में अनुच्छेद-19 को संशोधित कर पीईएमआरए के अधिकार क्षेत्र में सोशल मीडिया प्लेटफार्म को भी लगाम लगाने की कोशिश भी हुई थी।
भारत में सेल्फ़ रेगुलेशन के नाम पर जो कुछ हुआ है,उसका मूल्यांकन जरूरी है। वह कितना सही है?
क्या हमारे टीवी वाले सचमुच स्व -नियमन को मानते हैं? इसे मीडिया की आज़ादी कहें, कि उछृंखलता?
सूचना प्रसारण मंत्रालय ने 2019 तक 920 चैनलों को लाइसेंस दे रखा था। चैनल इसलिए खुलते हैं कि विज्ञापन के पैसे बटोरे जा सकें।
ब्राडकास्ट आडियंस रिसर्च कौंसिल (बार्क) की रिपोर्ट है कि टीवी चैनलों पर विज्ञापनों की बाढ़ में तेज़ी से बढ़ोत्तरी हो रही है।
‘बार्क’ के अनुसार, 2021 की पहली तिमाही में टीवी पर 4175 विज्ञापनदाता थे, जो 2022 में बढ़कर 4259 हो गये।
सबसे अधिक 45 प्रतिशत विज्ञापन हिंदी चैनल वाले बटोर रहे हैं।
शायद यही कारण है कि धूम-धड़ाके की खबरों की पहली बयार यहीं से चलती है।
एक सामान्य फार्मूला है, ‘जो दिखता है, वही बिकता है।’ अब इस दिखने-दिखाने के लिए क्या कुछ करना पड़ता है, सब जानते हैं।
मूल विषय है, इस देश में अखबार, पत्र-पत्रिकाएं आचार संहिता के ज़रिये कमोवेश कंट्रोल में हैं, तो सहस्रमुखी टीवी नियंत्रित क्यों नहीं है?
आप टेलीविज़न की भाषा और अखबार की भाषा से ही तुलना कर लीजिए। मन लायक ख़बर न मिले, अखबार पढ़ने से विरक्ति हो सकती है।
टीवी पर बहस या हिंसक कार्यक्रम तो आपको दिमाग़ी रूप से बीमार करता है, या फ़िर ब्लड प्रेशर बढ़ा देता है।
वहां ‘दिखता है’ के वास्ते गलाकाट प्रतिस्पर्धा चल रही है।
अब तो विज्ञापन के ज़रिये पैसे यू-ट्यूब भी दे रहा है, वहां भी डालर की आशा में तथाकथित चैनल खरपतवार की तरह गांव की गली से लेकर दिल्ली तक उग आये हैं।
सवाल यह है कि कनखजूरे चैनलों को ‘सेल्फ रेगुलेशन’ के ज़रिये नियंत्रित कर सकेंगे क्या?
स्व-नियमन (सेल्फ रेगुलेशन) शब्द ही अपने आप में एक भद्दा मज़ाक है।
सरकार ने टेलीग्राफ एक्ट, इंडियन वायरलेस टेलीग्राफी एक्ट, फ़िर केबल टीवी नेटवर्क नियमन क़ानून के हवाले से प्रसारकों को नियंत्रित करने की दिखावटी चेष्टा की थी, पर साबित यह हुआ सरकार में कलेजा नहीं है।
सवाल यह भी है इस नये निज़ाम में इस देश का टीवी उद्योग कितनी ज़िम्मेदारी से काम कर रहा है?
अगस्त 2021 में ब्राडकास्टर एंड डिज़ीटल एसोसिएशन (एनबीडीए) जैसी संस्था को नई पैकिंग के साथ पेश किया गया।
यदि ये बिना दांत के साबित हुए, तो इन्हें भंग क्यों नहीं करते?
70-8. चैनल ‘एनबीडीए’ के सदस्य हैं, बाकी चैनल स्व नियमन के आधार पर चल रहे हैं।
‘एनबीडीए’ में भी जो दबंग सदस्य हैं, उनके चैनल किसी नियमन की परवाह नहीं करते।
अब बात वक्तव्य वीरों की।
पिछले दिनों ढाई हजार के करीब ऐसे बयान थे, जो विद्वेष फैलाने वाले अतिसंवेदनशील थे।
इस आधार पर 38 नेताओं को चेतावनी दी गई है कि इससे बाज़ आयें।
अब सवाल बाक़ी पार्टियों से भी है कि क्या उनके प्रवक्ताओं-नेताओं ने टेलीविज़न और सोशल मीडिया पर उन्माद फैलाने का काम नहीं किया होगा?
देश के सभी दलों को आत्म-निरीक्षण करना चाहिए। वैसे मेरी इस अपील को की मानने वाला नहीं है।
सबको भारत के खिलाफ भारत करने का मजा चाहिए, देश को जो सजा मिले उससे इन्हें कोई सरोकार नहीं है।
लेखक प्रतिदिन पत्रिका के संपादक हैं।
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