शारीरिक अंधत्व का इलाज संभव है, वैचारिक अंधत्व का आसान नहीं

खरी-खरी            Sep 26, 2022


हेमंत कुमार झा।

यूं तो इस खबर में कोई नई बात नहीं है। अक्सर ऐसी खबरें अखबारों में छपती हैं और भारतीय मध्यम वर्ग के वैचारिक खोखलेपन और सैद्धांतिक सन्नाटे को एक्सपोज कर गुम हो जाती हैं।

लेकिन, जब भी ऐसी खबरें आती हैं, अखबार वाले रस ले-ले कर इसे छापते हैं।

फिलहाल, ऐसी खबर छत्तीसगढ़ से आई है,  वहां पर राज्य सरकार ने अपने कुछ विभागों में चपरासी पद के लिए परीक्षा ली।

सरकारी शब्दावली में इस पद को 'भृत्य पद' कहा गया।

भाषा के जानकार भृत्य शब्द के अर्थ को जानते ही होंगे।

जाहिर है, यह कोई ऐसा शब्द तो नहीं ही है जिससे अधिक सम्मान का बोध होता हो।

वैसे, इसका एक समानार्थी शब्द 'चपरासी' अधिक चलन में है।

बहरहाल, विज्ञापन निकला, परीक्षा हुई,  कुल 91 मात्र पद के लिए दो लाख से अधिक लोगों ने परीक्षा दी।

देखा गया कि परीक्षा देने वालों में बड़ी संख्या में इंजीनियर, पीएचडी, पोस्ट ग्रेजुएट, ग्रेजुएट डिग्रीधारी आदि भी थे।

वैसे, इस पोस्ट के लिए निर्धारित योग्यता आठवीं पास थी।

परीक्षा दे कर निकले बबुआन घरों के इंजीनियर और पोस्ट ग्रेजुएट बच्चों/बच्चियों से जब पत्रकारों ने पूछा कि आप तो इतनी ऊंची डिग्री वाले हो, फिर आठवीं पास चपरासी के पोस्ट के लिए क्यों परीक्षा देने आए?

सबका एक ही जवाब था , "पोस्ट सरकारी विभाग का है न, भले ही चपरासी का ही हो। अगर नौकरी मिल गई तो जिंदगी सेट हो जाएगी।"

इस पूरे प्रकरण से दो बातें उजागर होती हैं।

पहली तो यह कि दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने का दम भरने वाले और जल्दी ही विश्व गुरु और विश्व महाशक्ति बन जाने का सपना देखने-दिखाने वाले देश में तकनीकी और उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों में कितनी भयानक बेरोजगारी है।

न सिर्फ बेरोजगारी की भयानकता है, बल्कि इन उच्च शिक्षित लोगों के बीच भविष्य को लेकर कोई खास उम्मीद भी नहीं है।

वरना कोई इंजीनियर और पोस्ट ग्रेजुएट डिग्रीधारी चपरासी की परीक्षा में बैठने के बदले बेहतर विज्ञापन की प्रतीक्षा करता।

लेकिन, यहां तो सरकारें ही सरकारी पद खत्म करने में लगी हैं और जो पद रिक्त हैं भी, उनकी वैकेंसी निकलने की उम्मीदें दम तोड रही हैं।

दूसरी बात, जो अधिक काबिलेगौर है वह यह कि इस देश में अभी भी बीटेक और पोस्ट ग्रेजुएट की डिग्री लेने वालों में बहुतायत मध्यम वर्गीय परिवारों के बच्चों की ही है।

दिहाड़ी या खेतिहर मजदूरों, हाशिए पर के लोगों, जिनकी बड़ी आबादी है इस देश में, के बच्चों में उंगली पर गिने जाने लायक ही बीटेक या अन्य उच्च डिग्रीधारी होंगे।

माना कि सरकारी नौकरी में सेवा सुरक्षा और कर्मियों के अन्य अधिकारों की सुरक्षा है, उनके प्रति बेरोजगारों का आकर्षण स्वाभाविक है।

लेकिन, इसके साथ ही जब हम देखते हैं कि सरकारी चपरासी तक बन जाने को लालायित इन युवाओं और 'बबुआन ग्रेड' के उनके अभिभावकों की राजनीतिक प्राथमिकताएं क्या हैं?  

देश की आर्थिक संरचना में किए जा रहे बदलावों के संदर्भ में उनकी प्रतिक्रियाएं क्या हैं तो फिर...उनका वैचारिक खोखलापन एकदम से सामने आ जाता है।

रेलवे, बैंक, पब्लिक सेक्टर की अन्य इकाइयों आदि के अंधाधुंध निजीकरण पर भारतीय मध्यम वर्ग की प्रतिक्रिया उनके सोशल मीडिया एकाउंट्स, सार्वजनिक और व्यक्तिगत जीवन में उनकी आपसी बातों-बहसों आदि से समझी जा सकती हैं।

यह शोध का विषय है कि इस वर्ग की राजनीतिक प्राथमिकताओं ने उन्हें वैचारिक रूप से खोखला बनाया है या 'इकोनॉमिक लिबरलाइजेशन' और उससे जन्मे प्रचंड उपभोक्तावाद, स्वार्थवाद और इन सबकी परिणति से प्रेरित उनकी विचारहीनता ने उनकी राजनीतिक प्राथमिकताओं का निर्धारण किया है।

जो भी हो, अब दौर ऐसा आ गया है कि मझोले महानगरों में सरकारी इंजीनियर, प्रोफेसर और ऑफिसर आदि के न जाने कितने बेरोजगार बच्चे भी जोमेटो, स्विगी, फ्लिपकार्ट, अमेजन आदि के डिलीवरी बॉय बनने को विवश होकर अपनी बेरोजगारी के दिन काट रहे हैं।

उनके अरमानों, उनके परिश्रम और उनकी योग्यता के अनुरूप रोजगारों के सृजन में सरकारें बुरी तरह विफल साबित हुई हैं।

निजी क्षेत्र में जो रोजगार हैं भी, उनमें सेवा की सुरक्षा और पारिश्रमिक के स्तर को लेकर युवाओं में व्यापक असंतोष और भय है।
निजी क्षेत्र की बेहद उच्च स्तर की नौकरियों की बात यहां नहीं हो रही, जिनकी संख्या बेहद बेहद कम है।

आर्थिक सुधारों और "ईज ऑफ डूइंग बिजनेस" के नाम पर श्रम सुधारों के जो सिलसिले चले हैं और चल रहे हैं, वे स्पष्ट रूप से कामगार विरोधी और कंपनी हितैषी रुझानों के हैं।

मुश्किल यह है कि सरकारें जब श्रम कानूनों में कामगारों के मानवीय और नैसर्गिक हितों के विरुद्ध संशोधन करती हैं तो न यह खबर बन पाती है न कारपोरेट मीडिया इसे खबर बनने देता है।

नतीजा, युवा वर्ग या तो प्रियंका-निक जोंस, करीना-सैफ आदि की ठिठोलियों, कोहली-रोहित के शतकों की खबरों में रमा रहता है।

या फिर, उन खबरों से लहालोट होता रहता है कि कश्मीर में प्लॉट खरीदना अब आसान हो गया, कि पाकिस्तान को उसकी औकात बताई जा रही है, कि चीन के सैनिक सीमा पर से दबार दिए गए।

मीडिया जब मनुष्य विरोधी हो कर कारपोरेट का गुलाम बन जाता है तो दुनिया ऐसी बनने लगती है जहां सिर्फ भ्रम का कुहासा हो।

 मनुष्यता के अधिकारों की हत्याएं हों और आम आदमी की समकालीन से लेकर आने वाली पीढ़ियों तक का जीवन कठिन से कठिनतर होता जाए।

स्वतंत्रता के बाद की पीढ़ी ने अपने अग्रजों के संघर्षों और बलिदानों से प्राप्त अधिकारों और विरासतों को मजबूती दी।

सत्तर के दशक में जवान हुई पीढ़ी ने उन सपनों के साथ जीवन जिया और सामाजिक जीवन से वैचारिकता का लोप होने नहीं दिया।

लेकिन 90 के दशक में जवान होने वाली पीढ़ी को अहसास भी नहीं हुआ कि मुक्त बाजार की कृत्रिम चकाचौंध और स्वार्थी उपभोक्तावाद के प्रायोजित खेल ने विरासत से प्राप्त वैचारिकता को किस तरह उनसे छीन लिया।

नई सदी में पैदा हुई पीढ़ी को तो पता भी नहीं कि किन मूल्यों और सपनों के लिए उनके पूर्वजों की पीढ़ी ने संघर्ष और तपस्या की थी।

आज सबसे अधिक संकट में यही पीढ़ी है जिसने नई सदी में आंखें खोली हैं।

इसी पीढ़ी में ऐसे बीटेक और डॉक्टरेट की भरमार है जो निजीकरण के विरोध में की जा रही राजनीतिक लामबंदी का मजाक उड़ाते हैं।

प्रायोजित राष्ट्रवाद और षड्यंत्रकारी संप्रदायवाद के आसान शिकार बन कर अपनी राजनीतिक प्राथमिकताओं का निर्धारण करते हैं और..., जब किसी सुदूर प्रांत में भी किसी सरकारी विभाग में चपरासी, माली, सफाईकर्मी आदि की परमानेंट पोस्ट निकलती है तो उसकी परीक्षा में शामिल होने की दौड़ लगा देते हैं।

मुक्त बाजार की अमानवीय अराजकताओं और प्रचंड उपभोक्तावाद की पृष्ठभूमि में रची जा रही राजनीतिक साजिशों ने पहले भारतीय मध्यम वर्ग को हाशिए पर के लोगों का वैचारिक शत्रु बनाया।

फिर बिल्कुल किसी स्वाभाविक प्रक्रिया के तहत अपने बाल-बच्चों की पीढ़ियों का शत्रु बना दिया।

मुश्किल यह है कि शारीरिक अंधत्व का इलाज तो संभव है, लेकिन वैचारिक अंधत्व का इलाज इतना आसान नहीं।

 

इस अंधत्व से लड़ने में हमारे बाल बच्चों की कितनी पीढ़ियां खप जाएंगी, क्या पता।

 

 



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