आस्था सड़क पर रसूख अखाड़ों पंडालों में

खरी-खरी            Feb 02, 2025


नितिन मोहन शर्मा।

बड़े भव्य पंडालों के दरवाज़े आम श्रद्धालुओं के लिए खुल जाते तो टल जाता हादसा

 करोडों लोगों को खुले में सोना पड़ा, बड़े पांडालों में वक्त पर जगह मिल जाती तो कुचलने से बच जाते

करोड़ों की भीड़ देखकर भी नही खोले अस्थाई पूल,  न जाने किनके लिए पूल पर आवाजाही रोकी गई

मेला क्षेत्र में तैनात तंत्र की भारी गलती,  भीड़ के दबाव को देखकर भी अधिकारी बने रहे लकीर के फ़कीर

गिरते-पड़ते, दबते-कुचलते, मरते लोगों को देखकर भी भव्य पांडालों का दिल नही पसीजा_

मेला क्षेत्र में सामान्य हुए हालात, बसंत पंचमी स्नान की बढ़ने लगी फ़िर भीड़

तीर्थराज़ प्रयाग से लौटकर

तीर्थराज़ के भरोसे कुंभनगरी को छोड़कर हम प्रयाग से लौट आये। गंगा मैया के चरणों में मृतकों के प्रति श्रद्धासुमन अर्पित कर प्रार्थना कर आये कि शेष बचे कुंभ के दिन सकुशल, आनंदमय व निर्विघ्न बीते। हम आम श्रद्धालुओं की तरह भीड़ का हिस्सा बन कुंभ में समाहित हुए थे ताकि हक़ीक़त से हम ही नहीं, सब रूबरू हों।

अन्यथा कुंभ की रिपोर्टिंग सुविधाजनक स्थानों से सुविधा से हो ही रही है। हादसे के बाद सब तरफ सवाल जवाब तो मांगे जा रहें है लेक़िन ये हालत क्यों बने, इस पर तो कहीं कोई बात सवाल ही नहीं?  

हक़ीक़त बस ये ही है कि सनातन का ये अनादिकालीन पर्व भी अब रसूख के कब्ज़े में चला गया है। सब कुछ उनके लिए आसान है, जो टेंट, पाण्डाल, अखाड़ों और स्विस कॉटेज में विराजे हुए थे। आस्थावानों के लिए सिर्फ़ सड़क थी और था भरचक ठंड में खुला आसमान।

 आस्था के हिस्सें में मीलों लंबा पैदल चलना और धक्के खाना आया। रसूख वाहनों में सवार हो अपने ठिकानों तक पहुँच गया। हद तो तब हो गई जब इन भव्य पांडालों का मन तब भी नही पसीजा, जब मौत का तांडव अपना काम कर गया। लोग गिरते-पड़ते, दबते-कुचलते, दम तोड़ते रहे लेक़िन अखाड़ों के भव्य दरवाज़े व बड़े पांडालों के प्रवेश द्वार बंद रहे।

अगर बड़े भव्य पांडालों के दरवाज़े आम श्रद्धालुओं के लिए वक्त रहते खुल जाते तो सैकड़ों मौत वाला हादसा टल जाता। अगर अखाड़ों, मठों, आश्रमों और पांडालों में वक्त पर लोगो को ठहरने की जगह मिल जाती तो उन्हें खुले में सोना नही पड़ता और कुचलने से बच जाते।

साधु संत समाज के लिए ये चिंतन का विषय होना ही चाहिए कि वे कुंभ के प्रति असली आस्थावानों के लिए कुंभ नगरी में क्या कर रहें हैं? सिर्फ़ पांडाल के अंदर बैठाकर भोजन करा देना औऱ पांडाल के बाहर खिचड़ी बांट देना मात्र ही संत समाज का कर्तव्य हैं? ये लंबी चौड़ी जगह सरकार से मिली, क्या इस जगह पर रुकने, ठहरने का ठेका सिर्फ़ पैसेवालों का ही हैं? क्या अखाड़ों, पांडालों के कमरे, टेंट सिर्फ आमंत्रितों के लिए ही आरक्षित रहेंगे?

वे आरक्षण तब भी नही टूटेगा, जब सड़क पर सैकड़ों का दम घुटेगा या सांस टूटेगी? दबते, कुचलते ओर मरते लोगो को देखकर भी संत समाज के दर आम श्रद्धालुओं के लिए बंद ही रहेंगे? अच्छा नही होता क्या मोनी अमावस्या पर इन पांडालों में आम आदमी को भी शरण मिल जाती?

 _अगर मेला क्षेत्र में पहुँची भारी भीड़ को हज़ारों की संख्या में बने डेरे तंबुओं में जगह मिल जाती तो ये भीड़ सड़क पर बिछोना बिछाती? 50 से ज्यादा किलोमीटर पैदल चलकर मेला क्षेत्र में पहुचे थक के चूर हुए लोगों के भाग्य में सड़क व खुला आसमान ही क्यों? छोटे छोटे बच्चे, बूढे मा बाप, महिलाओं के हाल देखकर किसका दिल नही पसीजे?

 पर ह्रदय का ये पसीजना कम से कम मेला क्षेत्र में तो नज़र नही आया। कुछ पांडालों व अखाड़ों को छोड़ दे तो शेष के दरवाजों पर तो आधार कार्ड जांचे जा रहें थे। वही अंदर जा सकता जो किसी के परिचय से आया। शेष के लिए कोई जगह नहीं, तो फ़िर सरकार से इतनी बड़ा भूखंड अलॉट कराने की क्या जरूरत?

 दोपहर 1 से रात 1 बजे तक बेतहाशा भीड़ को क्यों रोके बैठी थी सरकार?

 वे अफ़सर भी लकीर के फ़क़ीर बने रहे, जिन्हें आंखों के सामने हादसा होता दिख रहा था। बढ़ती बेतहाशा भीड़ जब सामान्य आदमी को विचलित कर रही थी तो मेला क्षेत्र का तंत्र क्यों अविचलित हुए खड़ा रहा। करोडों लोग जब पीपा पूल यानी अस्थाई पुलों तक पहुचकर थाम दिए गए तब भी ये अहसास नही हुआ कि भीड़ आगे नही बढ़ेगी तो पीछे से आने वाला भीड़ का दबाव क्या रंग दिखायेगा? अब कह रहे है भीड़ के दबाव से बेरीकेट्स टूट गए इसलिए लोग एक दूजे पर गिरते चले गए। ऐसा होता क्या अगर पूल से भिड़ आगे बढ़ती जाती।

वह मेला क्षेत्र के दूसरे हिस्से में चली जाती और भीड़ का दबाव दोनों हिस्सों में बराबर हो जाता। हादसा रात 1 से 2 के बीच हुआ। साधु संतों का स्नान सुबह 4 बजे था। शाम से बढ़ती भीड़ को सुबह 4 बजे तक किसके कहने से रोककर तंत्र बेठा रहा?  

उच्च स्तर तक कितने सन्देश गए कि भीड़ बेतहाशा हो गई, पूल नही खुले तो हादसा हो जाएगा? ये न्यायिक जांच दल को जांच में लेना ही चाहिए कि मेला क्षेत्र के अफ़सर क्यो लकीर के फकीर बने रहे। मौके के हालात देख उन्होंने जान बचाने के फैसले क्यो नही लिए? अफसर व कारिंदे तो अपनी आंखों से सारा मंजर देख रहे थे तब भी वे किंकर्तव्यविमूढ़ बनकर क्यो खड़े रहे।

क्या श्रद्धालुओं को रोककर रखना ही उनका काम था? इसके आगे का पाठ उनको नही पढ़ाया गया था कि ऐसे हालत में क्या करना है? जब मोनी अमावस्या के एक दिन पहले ही दोपहर से भिड़ ने अपना रंग दिखा दिया था तो रात 2 बजे तक यॉगी सरकार बेरंग क्यो बनी रही? सवाल तो बहुत हैं। वक्त रहते इनका जवाब नही मिला तो आने वाले कुम्भ, सिंहस्थ में भी आस्था ऐसे ही सड़कों पर कुचली जाती रहेगी और रसूख व जान पहचान तो टेंट पांडाल व आश्रम में आराम फ़रमाता ही मिलेंगी। जैसी प्रयागराज में थी।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह टिप्पणी उनके फेसबुक वॉल से ली गई है।

 


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