मार देब कट्टा कपार में कल्चर पर केहु न बोली

खरी-खरी            May 17, 2023


हेमंत कुमार झा।

एक-डेढ़ दशक पहले बिहार में एक गाना बहुत बजता था, "मार देब गोली, केहू न बोली।"

यानी, हम तुम्हे गोली मार देंगे और कोई कुछ नहीं बोलेगा।

बेहद तेज संगीत के बीच एक डायलॉग की शक्ल में यह पंक्ति बोली जाती थी और शादी, विवाह या किसी अन्य आयोजन में खुद को रंगदार समझने वाले युवक अक्सर कट्टा हाथ में लिए इस गाने पर झूम झूम कर नाचते थे और हाथ उठा-उठा कर कट्टे को भी नचाते थे।

सच भी था, 'केहू' इस पर कुछ नहीं बोलता था। सार्वजनिक रूप से अवैध हथियार लहराने पर अक्सर पुलिस भी ऐसी किसी घटना के प्रति अनभिज्ञता जताते हुए कुछ नहीं करती थी। उन दिनों वीडियो वायरल होने की संस्कृति डेवलप नहीं हुई थी क्योंकि ऐसे स्मार्ट फोन नहीं थे और जो थे उनकी पहुंच बेहद सीमित थी।

आजकल भी, जब कट्टा लहरा कर नाचने के वीडियो वायरल हो जाते हैं तो मजबूरन पुलिस को कुछ कानूनी खानापूरी करनी होती है।

हमारे बिहार में ऐसे कट्टा लहराने वालों का बहुत सम्मान है।

तो, उस दौर में उस लोकप्रिय गाने के कई वर्जन सामने आए, हर वर्जन सुपर हिट हुआ...मार देब गोली, केहू न बोली।

अभी पिछले सप्ताह बिहार के ही किसी जिले की खबर एक अखबार में दिखी। किसी शादी में नाच गाना के प्रोग्राम में दूल्हे का 20 वर्षीय छोटा भाई और उसका एक साथी अपने अपने हाथों में पिस्तौल लिए डांसर के साथ नाच रहे थे।

हाथ उठा-उठा कर पिस्तौल लहरा-लहरा कर वे दोनों जमाने को जैसे चुनौती दे रहे थे, "केहू न बोली"। उनमें से एक ने डांसर से किसी खास गाने की फरमाइश की। डांसर ने इंकार कर दिया। फिर क्या था, पलक झपकते ही सैकड़ों की भीड़ के सामने धांय धांय...और डांसर तत्क्षण वहीं गिर कर मर गया। हथियार लहराते दोनों साथी आराम से वहां से निकल गए।

उस घटना को पढ़ने के बाद मैं कई दिनों तक अखबारों और अन्य खबरों की टोह लेता रहा कि उन दोनों हत्यारों का क्या हुआ, 'केहू ' कुछ बोला या नहीं, पुलिस ने क्या किया आदि। लेकिन कोई खबर कहीं नजर नहीं आई।

अब जब, सार्वजनिक रूप से कोई हत्या ही हो गई तो पुलिस तो जरूर आई होगी। क्या हुआ नहीं पता।

हमारे बिहार की संस्कृति का बहुत गुणगान किया जाता है, यहां नालंदा, विक्रमशिला विश्वविद्यालय थे, बुद्ध, महावीर थे, गांधी जी यहीं से राष्ट्रपिता बनने की यात्रा पर निकले थे आदि आदि लेकिन, यह सब इतिहास की बातें हैं। बीते दशकों में यहां कट्टा संस्कृति खूब फली फूली।

यही कारण है कि बिहार के गांवों में बाजार और व्यापार उस अनुपात में विकसित और समृद्ध नहीं हुए जैसा अन्य कुछ राज्यों में हुआ। यहां किसी ग्रामीण बाजार में आपका व्यवसाय थोड़ा फला फूला कि आप कट्टा धारियों की नजर पर चढ़े। अक्सर पुलिस से भी आपको कानूनी संरक्षण मिलने में कोताही होगी।

असल में, आप पुलिस के पास ऐसी शिकायत ले कर जाने से भी डरेंगे। क्यों डरेंगे, इस के डिटेल में जाने की जरूरत नहीं। डरते ही हैं लोग, और सुधी जन ऐसे मामलों में अक्सर सलाह भी देते हैं, "डरना जरूरी है"।

नतीजा, अपने गांव या कस्बे में रह कर अपना मनपसंद व्यवसाय करने के बदले बहुत सारे लोग पूरब-पच्छिम की ट्रेन पकड़ लेते हैं जहां वे मेहनत मजदूरी करते हैं, कभी कभार स्थानीय लोगों से मार पिटाई भी खाते हैं, जिनकी खबरें आती ही रहती हैं और बिहारी संवेदना को बिना छुए बासी हो कर गुजर जाती हैं।

बिहारियों को फलां राज्य में मारा पीटा गया, यह कोई नई या अनहोनी खबर तो है नहीं, आती ही रहती हैं ऐसी खबरें। कितना संवेदनशील हुआ जाए।

जैसे, भीड़ में कट्टा लहराया जाता देखना यहां कतई अनोखी बात नहीं, वैसे ही अपने भाई बंधुओं का बाहर मार खाना हमारे लिए कोई अनोखी बात नहीं। हम इन सबके अभ्यस्त हैं।

इधर, एकाध वर्षों से हमारे गांवों में लाउडस्पीकर पर एक गाना खूब बजता है।

शादियों में, मुंडन में, बर्थ डे आदि में, "हमर सिक्सर के छौ गोली छाती में रे...।" खूब मन लगा कर कितने नौजवान नाचते हैं इस गाने पर, सिक्सर हाथों में लिए।

मुझे नहीं पता, सिक्सर और कट्टे में क्या अंतर होता है। हो सकता है, गाना में सिक्सर बजता हो और नाचने वालों के हाथों में कट्टा हो। छाती तो अक्सर किसी निर्दोष की ही होनी है।

देश के विकसित राज्यों में रहने वाले मित्र गण बताएंगे कि क्या उधर भी वहां की भाषा में ऐसे गाने बनाए और बजाए जाते हैं, क्या वहां भी शादियों और बारातों की शोभा तब तक नहीं होती जब तक कुछ शोहदे सार्वजनिक रूप से अवैध हथियार लहराते नाचें नहीं, बेवजह की धांय धांय नहीं करें?

यहां तो ऐसे धांय-धांय से हर लगन के सीजन में दर्जनों हृदय विदारक मौतें दर्ज होती हैं, घायलों की तो कोई गिनती ही नहीं।

अब तो बर्थ डे आदि में भी कुछ लोग धांय धांय के बिना अधूरापन महसूस करते हैं।

गीत-गाने अक्सर वहां की संस्कृति की आंतरिक बुनावट को भी व्यक्त करते हैं। हमारे यहां अगर ऐसे गीत बनते हैं और खूब शौक से बजाए जाते हैं तो ये बताता है कि "किसी निर्दोष या कमजोर की छाती में बेवजह सिक्सर की छौ गोलियां ठोक देने वालों" का बहुत भौकाल रहता है और किसी गाने के ही शब्दों में ,"केहू कुछ न बोली"।

बिहार में अक्सर मजबूती या कमजोरी इस तथ्य से भी आंकी जाती है कि आप किस जाति से आते हैं और आपके इलाके में किस जाति का बोलबाला है।

अगर आप प्रचलित अर्थों में कमजोर हैं तो आधुनिक अर्थशास्त्र की भाषा के एक शब्द "स्टार्ट अप" आदि को साइड में रखिए और बाहर जा कर किसी नौकरी की तलाश करिए।

यही स्टार्ट अप आप बाहर किसी जगह कर सकते हैं, लोग आपको हाथों-हाथ लेंगे। अपने गांव कस्बे में हजार तरह की दुश्वारियां हैं।

कुछ तो कारण है कि इतनी उर्वरा धरती वाले बिहार में न छोटे उद्योग पनपते हैं न बड़े उद्योग स्थापित होते हैं।

जब तक हमारे गांवों, कस्बों में शोहदे "मार देब कट्टा कपार में" जैसे गानों पर हथियार लहराते नाचते नजर आते रहेंगे तब तक न यहां का बाजार विकसित होगा, न व्यवसाय।

तब तक, रोजगार के लिए लोग बाहर भागने को विवश होते रहेंगे, बिहारी शब्द एक गाली की तरह दुहराया जाता रहेगा, बिहारियों की मार कुटाई चलती रहेगी

 

 



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