गणिका की तरह चारणों भी कभी कोई स्थायी चरित्र नहीं होता

खरी-खरी            Dec 23, 2024


राकेश कायस्थ।

गणिका की तरह चारणों  का भी  कभी कोई स्थायी चरित्र नहीं होता। वे इस द्वार से उस द्वार जाते हैं, जो राजा अशर्फियों से मुंह भर दे, उसका कीर्तिगान गाते हैं और बाकी सबकी खिल्ली उड़ाते हैं। राजा रत्नसेन का दरबारी कवि राघव चेतन जब निकाला गया तो सीधे अलाउद्दीन खिलजी के दरबार में पहुंचा और पद्मिनी की सुंदरता का वर्णन करके सुल्तान को हमले के लिए उकसा बैठा।

कुमार विश्वास के नये व्यवहार को लेकर जो अविश्वास सोशल मीडिया पर जताया जा रहा है, उसमें मासूमियत के सिवा कुछ नहीं है। मंचीय कविता के सुपर स्टार कुमार विश्वास के पूरे व्यवहार में एक खास तरह का पैटर्न रहा है। उन्होंने हमेशा अपने लिए राजनीतिक हैसियत चाही है और उसके लिए यथासंभव जोड़-जतन किये हैं।

जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब कुमार विश्वास ने उनके दरबार में जाकर कसीदे पढ़े थे और मोदी की तुलना हलाहल पी जाने वाले शिव से की थी। परिस्थितियां बदलीं, अन्ना ने दिल्ली में गन्ना बोया और कुमार विश्वास सबसे बड़े लाभार्थियों में शामिल हुए।

अन्ना आंदोलन के दौरान केजरीवाल के बाद सबसे ज्यादा फुटेज कुमार विश्वास को मिला। राहुल गाँधी के खिलाफ चुनाव लड़कर कद और बढ़ा और इन सबका असर उनके धंधे पर हुआ।

आम आदमी पार्टी को सत्ता मिल गई लेकिन केजरीवाल समेत पार्टी का कोई नेता पेशेवर राजनेता नहीं था। हर किसी को जल्दी थी। कुमार विश्वास ठंडा करके नहीं खा पाये और जल्दबाजी में लड़-झगड़कर अपना बना बनाया खेल बिगाड़ बैठे। 

उसके बाद वो दौर आया जब कुमार विश्वास ने नेहरूजी की शान में कई वीडियो जारी किये। बार-बार अपने भाषणों में उनकी महानता का जिक्र किया। राहुल गाँधी की प्रशंसा की और काँग्रेस के जरिये उनके राज्यसभा में पहुँचने की उम्मीदें हवा में तैरने लगीं। लेकिन ये सबकुछ नहीं हुआ।

अब कुमार विश्वास ने वही तिकड़म अपनाया है, जो अपने आपको बौद्धिक कहने वाले इंफ्लुएंसर किस्म के लोग अपना रहे हैं। ऐसे अनगिनत लोग हैं और वो अपने लिए शुद्धिकरण का सबसे आसान रास्ता सरकार प्रायोजित सांप्रादायिकता की आग में ईंधन डालना मान रहे हैं।

चोरी के लिए कुख्यात रहे गीतकार मनोज मुंतशिर को कौन भूल सकता है। सत्ता बदलते ही उनका उपनाम शुक्ला वापस आया और गंगी-जमनी तहजीब की बात करते-करते अचानक मुसलमानों को गालियां बकने लगें।

किसान बिल के दौरान अपनी कारगुजारी  दिखाने वाले राज्यसभा के उप-सभापति हरिवंश नारायण सिंह को किसी जमाने में उपनाम से चिढ़ थी और वो प्रगतिशील पत्रकार बिरादरी के सबसे बड़े नेता हुआ करते थे, अब जो हैं, वो पूरी दुनिया को पता है।

 सेक्यूलरिज्म के चैंपियन रहे आरिफ मोहम्मद खान ने संघ के मन-माफिक राग अलापना शुरु किया लेकिन उनकी दौड़ राज्यपाल से आगे नहीं पहुंच पाई। जो आदमी चालीस साल पहले केंद्रीय कैबिनेट में एक स्टार मिनिस्टर रहा हो, `गोबरनर’ बनकर उसने क्या हासिल कर लिया?

क्या गारंटी है कि ये सब करके कुमार विश्वास को वो सबकुछ मिल जाएगा जो वो चाह रहे हैं। बीजेपी की अपनी लिस्ट बहुत लंबी है। वफादारी बदलकर आये कितने लोगों को कहां तक एडजस्ट करेगी। बोल बचन सुनाकर कोई ज्यादा से ज्यादा चीफ ट्रोल का दर्जा पा सकता है, या फिर छल-छद्म के अपने कुछ काम करवा सकता है।  जो लोग राजनीति समझते हैं उन्हें पता है कि राज्यसभा की सीट अब उतनी सस्ती नहीं कि हर किसी को बख्शीश में दे दी जाये।

बोल-बचन के धनी सत्ताकांक्षी लोगों को पब्लिक इंटलेक्चुअल समझने की गलती ना करें। इंडिपेंडेंट वॉयस बनना सबके के बूते की बात नहीं है।

 


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