राकेश कायस्थ।
नीरज चोपड़ा ने अपना सीजन बेस्ट थ्रो किया लेकिन पाकिस्तान के अरशद नदीम ने ओलंपिक रिकॉर्ड तोड़ दिया। आपका अधिकार सिर्फ अपने कर्म पर है, दूसरे के प्रदर्शन पर नहीं।
जो भारतीय आमतौर पर कभी खेल और खिलाड़ियों रुचि नहीं लेते वे अचानक हताश, निराश और बौखलाये से ओलंपिक दौरान प्रकट होते हैं। शिकायत की जाती है, खिलाड़ियों को उलाहने दिये जाते हैं, तरह-तरह की थ्योरी लाई जाती है, फलां छोटा सा देश गोल्ड मेडल ले आया लेकिन हमारे पास एक भी नहीं ऐसा क्यों?
ऐसा इसलिए क्योंकि भारत में राष्ट्रीय स्तर स्पोर्ट्स कल्चर नाम की कोई चीज़ नहीं है। सिर्फ कुछ पॉकेट्स है, जहां लोग अपने बच्चों को खेलने के लिए प्रेरित करते हैं लेकिन पूरे देश के स्तर पर ऐसा नहीं है। ओलंपिक स्पोर्ट्स को गंभीरता से लेना तो बहुत दूर की बात है। इसके बावजूद भारत अंतराष्ट्रीय स्तर पर हर खेल में लगातार प्रगति कर रहा है।
मैं बचपन से ओलंपिक फॉलो करता आया हूं। 1984 से लेकर 1992 तक तीन ऐसे ओलंपिक थे, जहां एक भी मेडल नहीं मिला। 1996 से लेकर 2004 तक के अगले तीन ओलंपिक में सिर्फ एक-एक मेडल मिले। लेकिन उसके बाद की कहानी सबको मालूम है।
हम ये बात बड़ी आसानी से भूल जाते हैं कि ओलंपिक दुनिया का सबसे प्रतिस्पर्धी प्लेटफॉर्म है। हॉकी के ब्रांज मेडल मैच में भारत से हार के बाद स्पेनिश खिलाड़ी जिस तरह मैदान पर रोये, उससे पता चलता है कि दुनिया हर खिलाड़ी किस तरह की तैयारी और जज्बे के साथ इस इवेंट में आता है।
भारत आज जहां तक पहुंचा है, उसके लिए उसने लंबा सफर तय किया है। शूटिंग में मेडल जीतने के इरादे से व्यवस्थित कोशिशें लगभग 36 साल पहले (1988) के आसपास शुरु हुई और नतीजे अब आने शुरू हुए हैं।
आर्चरी को लेकर भी स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया का क्वेस्ट फॉर गोल्ड प्रोग्राम नब्बे के दशक में शुरू हुआ और नतीजे में दीपिका कुमारी जैसे खिलाड़ी सामने आये। माना किसी ने पोडियम फिनिश नहीं किया लेकिन ये भी देखना चाहिए कितने खिलाड़ी पदक जीतते-जीतते रह गये।
प्रति व्यक्ति आय से लेकर कुपोषण और हंगर इंडेक्स तक अलग-अलग सूचकांकों में भारत की जो स्थिति है, उसे देखते हुए खेल के मैदान पर प्रदर्शन कतई बुरा नहीं है। एशियाड में भारत ने इस बार अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया।
अगर तकदीर ने साथ दिया होता, निशा दहिया जैसे हादसे और विनेश जैसी बदकिस्मतियां नहीं हुई तो संभव था कि टोक्यों के मुकाबले हमें एकाध मेडल ज्यादा मिल जाता।
अव्यवस्था, उपेक्षा और खेलों की राजनीति अपनी जगह है और हमारे खिलाड़ियों जज्बा अपनी जगह। हमने कब सोचा था कि भारतीय खिलाड़ी एक दिन जिम्नास्टिक (दीपा कर्माकर रियो 2016) और गोल्फ जैसे खेल में भी ओलंपिक मेडल के दावेदार बनेंगे। किसने सोचा था कि भवानी देवी जैसी कोई प्लेयर फेसिंग जैसे अनजान खेल में ओलंपिक तक पहुंचेगी। ओलंपिक में आधी आबादी की पुरजोर भागीदारी भी बदलते हुए भारतीय समाज की कहानी कहती है।
जो मेडल लेकर आ रहे हैं और जो मेडल नहीं जीत पाये, उन सबको सलाम।
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