हेमंत कुमार झा।
खबरें हैं कि मुजफ्फरपुर वाले, हाल में बहुचर्चित हुए प्रोफेसर ललन कुमार सर का ट्रांसफर कर दिया गया है और उन पर एक जांच कमिटी भी बना दी गई है।
हालांकि, ट्रांसफर तो वे स्वयं चाहते थे लेकिन, जैसा कि कहा जा रहा है, जो ट्रांसफर हुआ है उसका नेचर थोड़ा पनिशमेंट टाइप का है। पनिशमेंट तो बनता है।
आखिर, कैसे कोई अदना शिक्षक विश्वविद्यालयों में अकादमिक और प्रशासनिक सुधार की मांग के साथ सत्याग्रह करने की बात कर सकता है?
बिहार में तो जब भी शिक्षा व्यवस्था, चाहे वह स्कूल की हो या कालेज की, बदनाम होती है तो इसका एक ही नतीजा आता है, "मास्टरों को टाइट करो"।
मास्टरों पर शामत की खबरों को मीडिया भी सुर्खियां बनाने लगता है और लोग बाग अखबारों में ऐसी खबरों को पढ़ कर खुश होते चटखारे लेने लगते हैं, "सब मस्टरवन-परफेसरवन को बिना कुछ किए दरमाहा उठाने का हैबिट हो गया है, ठीक हो रहा है इनके साथ।"
तो, कुल मिला कर मामला इस परसेप्शन के साथ सामने आया कि ललन जी ही विवाद की जड़ हैं और इनका थोड़ा इलाज होना चाहिए।
तो, ट्रांसफर के साथ जांच कमिटी बनाने का निर्णय भी लिया गया।
कहीं पढ़ा, टीचर एसोसियेशन भी ललन जी के साथ नहीं है, होगा कोई कारण।
इतना तो है ही कि अति उत्साह या अति निराशा, जो भी हो, प्रोफेसर ललन बाबू ने भी कुछ अपरिपक्व कदम उठाए और इस कारण उनके साथियों-सहकर्मियों को असुविधाजनक स्थितियों और सवालों का सामना करना पड़ा।
बहरहाल, बनाई गई या बनाई जाने वाली जांच कमिटी की बात पर आते हैं।
अगर युनिवर्सिटी के आला लोगों को लगा कि कुछ ऐसा मामला है जिसकी जांच होनी चाहिए तो इसमें आपत्ति व्यक्त करने की कोई वजह नहीं है।
हो जांच, उसकी रिपोर्ट भी सार्वजनिक हो और उसके आधार पर न्याय संगत निर्णय लिए जाएं। लेकिन, इसी से जुड़े कई सवाल उभरते हैं।
इन पंक्तियों को पढ़ने वाले जो उच्च शिक्षा से जुड़े लोग हैं, उन्हें याद होगा कि छह-आठ महीने पहले बिहार के सभी अखबारों में एक खबर आई थी कि स्पेशल विजिलेंस यूनिट ने राज्य के विभिन्न विश्वविद्यालयों से जुड़े 26 उच्च पदस्थ पदाधिकारियों की जांच के लिए सक्षम प्राधिकार से अनुमति मांगी है।
यह वह दौर था जब मगध विश्वविद्यालय के तत्कालीन वीसी पर केस, छापा, उनकी फरारी आदि के मामले सुर्खियों में थे।
26 बड़े पदाधिकारियों के खिलाफ जांच के लिए विजिलेंस ने जिस भी प्राधिकार से अनुमति मांगी थी उसने अनुमति दी या नहीं, आज इतने महीने बीतने के बाद भी कुछ नहीं पता। इससे जुड़ी फिर कोई खबर नहीं आई।
यह भी पता नहीं चला कि आखिर वे 26 महानुभाव थे कौन और किन विश्वविद्यालयों के किन पदों को सुशोभित कर रहे थे?
अखबार वालों ने भी फिर कोई खोज खबर नहीं ली और जिस विजिलेंस ने जांच के लिए अनुमति मांगी थी उसने प्राधिकार के सामने फिर कोई रिमाइंडर डाला या नहीं, यह भी नहीं पता।
उल्लेखनीय है कि, अखबारी खबरों के अनुसार, जब मगध युनिवर्सिटी के वीसी साहब के वकीलों ने पटना हाईकोर्ट में दलील दी थी कि विजिलेंस ने उचित तरीके से हमारे मुवक्किल के खिलाफ जांच की अनुमति नहीं ली है, तो माननीय जज साहब ने दो टूक जवाब दिया था, "वित्तीय अनियमितताओं की जांच के लिए किसी अनुमति की जरूरत नहीं।"
हालांकि, सामान्य शिक्षकों को यह तो नहीं पता कि उन 26 हाकिमों पर कैसे आरोप थे। क्योंकि मामले को दबाने की कोशिशें परवान चढ़ने लगी, लेकिन बिहार की उच्च शिक्षा में जैसी हवा पिछले कुछ वर्षों से तेज चलने लगी है, यह मानने में कोई दिक्कत नहीं है कि उनमें से अधिकतर पर वित्तीय अनियमितताओं के ही आरोप होंगे।
फिर, हाईकोर्ट के जज साहब की उक्त टिप्पणी के आलोक में विजिलेंस ने कोई सख्त कार्रवाई क्यों नहीं की?
वे कौन शक्तिशाली लोग हैं जिन्होंने कार्रवाई करने में विजिलेंस की राहों में रोड़े अटकाए?
सबसे बड़ा सवाल, इतने महीने बीत जाने के बाद भी विजिलेंस को अनुमति क्यों नहीं दी गई?
उस सक्षम प्राधिकार में कौन हैं जिनसे भ्रष्टाचार के आरोपी विश्वविद्यालय अधिकारियों पर कार्रवाई की अनुमति मांगी गई और उन्होंने अब तक अनुमति क्यों नहीं दी?
क्या ऐसे उच्च पदस्थ तत्व बिहार की उच्च शिक्षा से जुड़े सामान्य निरीह शिक्षकों/कर्मचारियों और छात्रों के साथ घोर अन्याय नहीं कर रहे?
अब ऐसा है कि...जब कोई गलत व्यक्ति गलत तरीके से ऊंचे पद पर पहुंचेगा या पहुंचाया जाएगा तो वह सामान्य, कमजोर और निरीह शिक्षकों/कर्मचारियों के साथ सही व्यवहार कर ही नहीं सकता।
वह निरीह और कमजोरों के साथ हो रहे सांस्थानिक अन्यायों के मामले में उचित निर्णय ले ही नहीं सकता।
जब हम एक लाख वेतन पाने वाले नए और दो लाख, ढाई लाख वेतन पाने वाले सीनियर युनिवर्सिटी शिक्षकों के लिए 'निरीह' और 'कमजोर' शब्द का इस्तेमाल करते हैं तो यह प्रथमदृष्टया हैरत में डालने वाला लगता है।
लेकिन, इस सिस्टम से जुड़े लोग जानते हैं कि वाकई ऐसे शिक्षकों को निरीह ही बना दिया गया है।
जो बात-बेबात मुख्यालयों का चक्कर नहीं लगाते, जिनके मोबाइल में मुख्यालय से जुड़े बड़े लोगों के नंबर्स सेव नहीं हैं।
जो आज की परिभाषा के अनुसार 'होशियार' नहीं हैं और जिनके 'बड़े लोगों' से कांटैक्ट नहीं हैं।
28 जून, 2022 को बिहार के अखबारों में बड़े-बड़े हर्फों में एक शीर्षक छपा...
"...अधिनियमों, परिनियमों, न्यायादेश और राज्यादेश का विश्वविद्यालयों में हो रहा उल्लंघन"
नीचे थोड़े छोटे हर्फों में उप शीर्षक था...
"...विधान पार्षदों ने विश्वविद्यालयों के विभिन्न मुद्दों पर लाया ध्यानाकर्षण प्रस्ताव"
खबरों में डिटेल में बताया गया था उसका सार-संक्षेप यही कि विश्वविद्यालयों में जिस तरह के प्रशासनिक निर्णय लिए जा रहे हैं वे स्थापित मानकों का घोर उल्लंघन करते हैं और शिक्षकों की गरिमा व सम्मान को ठेस पहुंचाई जा रही है।
इसके कई तरह के उदाहरण माननीय पार्षदों ने गिनाए थे।
खबरों में यह भी बताया गया था कि विधान परिषद के निर्देश के आलोक में उच्च शिक्षा निदेशक ने विश्वविद्यालयों के कुल सचिवों को पत्र लिख कर इन आरोपों पर जवाब मांगा था।
फिर...बात आई गई हो गई, यह कभी पता नहीं चल सका कि क्या जवाब भेजे गए।
अब ऐसा है कि हमारे मीडिया संसार में खबरों के फ़ॉलो अप की कोई खास परंपरा नहीं रह गई है।
एक बार खबर आई, सनसनी फैली, जिन्हें दुखी होना है वे दुखी हुए, जिन्हें चटखारा लेना है उन्होंने चटखारे लिए, फिर कोई अगली खबर आ गई और पिछली खबर का क्या हुआ, कौन बताए।
हालांकि, इसमें संदेह नहीं कि मुजफ्फरपुर के प्रोफेसर ललन जी पर बनाई गई जांच कमिटी जरूर जांच करेगी, होनी भी चाहिए।
लेकिन, उन 26 महानुभावों का क्या, जिनके खिलाफ जांच के लिए विजिलेंस ने अनुमति मांगी थी? अनुमति मांगे तो मुद्दत गुजर चुके।
वे कौन हैं जो ऐसी जांचों के सामने ढाल बन जाते हैं और सामान्य शिक्षकों, कर्मचारियों का मनोबल गिराने के साथ ही बिहार के लाखों छात्रों के जीवन के साथ खिलवाड़ करते हैं।
मीडिया में, खास कर राष्ट्रीय मीडिया में एक उक्ति बार बार दोहराई जाती है, "बिहार के उच्च शिक्षण संस्थान हर वर्ष लाखों अकुशल मजदूर उगलते हैं"।
विमर्श होना चाहिए कि क्या इसके लिए सिर्फ शिक्षक समुदाय जिम्मेदार है?
हालांकि, मामले की लीपा पोती करते हुए हर मर्ज के लिए शिक्षकों को ही जिम्मेदार ठहराने की परंपरा बन गई है।
लेकिन, यह मामले का घटिया सरलीकरण है और लोगों की आंखों में धूल झोंकने जैसा है।
आखिर, यह कौन तय करेगा कि विश्वविद्यालयों में लिए जा रहे निर्णय अधिनियमों, परिनियमों, न्यायादेश, राज्यादेश के अनुरूप हैं या नहीं?
अगर इन सबका उल्लंघन कर ज्ञात-अज्ञात कारणों से मनमाने निर्णय लिए जा रहे हैं तो जिम्मेदार लोगों की जिम्मेदारी कौन तय करेगा?
यहां तो स्थिति ऐसी है कि किसी मुफस्सिल कालेज के किसी अहंकारी और अमर्यादित व्यवहार करने वाले, वित्तीय अनियमितताओं और मनमानी के आरोपों से घिरे प्राचार्य के खिलाफ भी अगर शिक्षक समुदाय लिखित शिकायती आवेदन देता है, कोई संज्ञान न लिए जाने पर फिर से आवेदन देता है, आवेदन पर आवेदन देता है...तथापि जिम्मेदार लोग अक्सर संज्ञान तक नहीं लेते, वहां विश्वविद्यालयों के बड़े हाकिमों के खिलाफ शिकायतों पर संज्ञान लिए जाने की बात ही क्या करनी?
घूम फिर कर मामला वहीं का वहीं आ जाता है, "मास्टरों को टाइट करो"।
तो, गाज अक्सर निरीह मास्टरों पर ही गिरती है. उनके खिलाफ जांच होती है। उनका पनिशमेंट ट्रांसफर होता है, कभी कभी वे सस्पेंड भी कर दिए जाते हैं।
ऐसे पीड़ित शिक्षकों के मनोबल और मोटिवेशन पर क्या और कितना निगेटिव असर होता होगा, यह सहज सोचा जा सकता है।
अपने किसी साथी का यह हश्र देख कर बाकी सामान्य शिक्षकों का मनोबल और मोटिवेशनल लेवल कितना गिरता होगा, यह भी सहज कल्पना की जा सकती है।
अंततः अनुभव प्राप्त करते, समझदारी 'गेन' करते अधिकतर शिक्षक कबीर के शब्दों में "साधो, सहज समाधि भली" की मुद्रा में आ जाते हैं।
सच्चाई का एक बेहद दुखद पहलू यह भी है कि अधिकतर विश्वविद्यालयों में टीचर एसोसिएशन मृतप्राय है।
एसोसिएशन की संकल्पना का आधार ही यही है कि सामूहिक हितों के अलावा उसे यह भी देखना है कि उसके किसी कमजोर और निरीह सदस्य के साथ अन्याय न हो।
यह सिर्फ टीचर एसोसियेशन का ही मामला नहीं है।
नियो लिबरल सोसाइटी में पगार बढ़ने के साथ ही आत्मकेंद्रित, स्वार्थी, सामूहिक हितों से विरत लोगों की पैदावार बढ़ गई है।
लेकिन तथ्य यह भी है कि इसका सबसे नकारात्मक असर प्रोफेसरों के एसोसिएशंस पर ही पड़ा है।
बैंक, पुलिस, सरकारी अधिकारियों आदि के संगठन आज भी इतने मृतप्राय नहीं हुए हैं।
बहरहाल, प्रो.ललन कुमार के प्रति शुभकामनाएं!
उन्हें अभी अपने करियर में लंबा सफर तय करना है।
जैसा कि उनसे जुड़ी खबरों से लगता है, उन्होंने कुछ अपरिपक्वता तो दिखाई है। विश्वविद्यालय और कॉलेज प्रशासन ने उनके साथ क्या किया, यह वे और उनके साथी बेहतर बता सकते हैं।
इन शब्दों के अतिरिक्त उनसे दूर रह कर हमारे जैसे लोग इन मामलों पर कुछ और नहीं कह सकते।
लेकिन, संबंधित सभी पक्षों को और पूरे बिहार के उच्च शिक्षा तंत्र को पूरे मामले के प्रति व्यापक परिप्रेक्ष्य में सोचना होगा।
अगर ललन कुमार की जांच होती है और अगर यह जरूरी है तो जरूर हो।
लेकिन, पूरे शिक्षक/कर्मचारी समुदाय को यह मांग भी जोरदार तरीके से उठानी चाहिए कि उन 26 बड़े लोगों की विजिलेंस जांच का क्या हुआ, क्या हो रहा है, क्या होगा?
विधान पार्षदों द्वारा विधान परिषद में उठाए गए सवालों पर क्या हुआ, क्या होगा।
किसी कमजोर, एकाकी बना दिए गए नए या पुराने शिक्षक को प्रताड़ित कर, उसका सामूहिक शिकार कर आप यह नहीं कह सकते कि अंधेरा छंट गया, अब सुबह का उजाला होने को ही है, कि अब "मगध में शांति स्थापित हो गई है"।
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