राकेश दुबे।
आज भी २६ जनवरी है, ऐसी ही 26 जनवरी 1950 में भी थी तब देश में एक संविधान सभा थी ।
संविधान सभा के सामने चुनौती थी कि नए गणतंत्र का निर्माण ऐसे हो कि देश में फैली भाषाई, धार्मिक, जातीय, सांस्कृतिक विविधता को आत्मसात किया जा सके और लोगों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक दृष्टि से न्याय सुनिश्चित किया जा सके।
इतने बरस बाद आज भी चुनौतियाँ जहां की तहाँ है और देश में बीते बहुत से सालों में राज करने वाली पार्टी कांग्रेस की वंशज पीढ़ी को अब भी भारत टूटता दिख रहा है।
उसकी “नफ़रत छोड़ो- भारत जोड़ो” यात्रा जारी है, देश कहाँ से टूटा और क्यों टूटा? कोई समझाने को तैयार नहीं है।
गणतंत्र भारत तो राज्यों , केंद्र शासित प्रदेशों का प्रजातांत्रिक समूह है। बहुधर्मी, चार प्रमुख धर्मों की उदयभूमि, जिसमें 20 से ज़्यादा मान्यता प्राप्त भाषाएं, 1652 बोलियां, अनगिनत संप्रदाय, परम्परा, रीति रिवाज, त्यौहार हैं।
ब्रिटिश शासन से आज़ाद होने के बाद अपना भाग्यविधाता ख़ुद होने का जो एहसास लोगों के मन को गुदगुदा रहा था। मन उड़ना चाहता था और उम्मीदों का कोई छोर नहीं था। लेकिन इस अहसास में कितनी चुनौती भी छिपी है किसी को पता नहीं था, ये चुनौतियाँ आज भी देश के विकास में रोड़ा हैं।
आज भी देश में राष्ट्र के निर्माण और विकास से जुड़े कई सवाल तैर रहे है एक ईमानदार राष्ट्र की अवधारणा क्या हो, राष्ट्र किस भाषा में बात करे, किन राजनीतिक और आर्थिक मॉडलों को अपनाए, किन मूल्यों को स्थापित करे और किन्हें नकारा जाए।
भारत इतने साल बाद देश की भाषा तय नहीं कर सका है। देश की पहचान कृषि से हो या उद्धयोग से हर चुनाव घोषणा पत्र में अलग तरीक़े से परिभाषित किया जाता है।
कोई सात दशक पहले का भारतीय समाज बेहद पिछड़ा, जटिल, निर्धन और विकास से कटा हुआ था।
लंबी ग़ुलामी के बाद जनता के मन में खुली हवा में सांस लेने की उत्कंठा तो थी लेकिन अपने अधिकारों के प्रति सजगता नहीं थी।
ग़रीबी, बदहाली, शरणार्थियों का सैलाब, बेरोज़गारी, सांप्रदायिक तनाव, भरपेट खाना की कमी आज़ादी मिलने की ख़ुशी में सेंध लगा रही थीं, दृश्य पूरी तरह आज भी बदल नहीं सका है।
ज़रूरत एक नए गणतंत्र में नागरिकों को बराबरी का एहसास कराने की भी थी। जो हो नहीं सका।
गणतंत्र यानी एक ऐसी व्यवस्था जिसमें असली ताक़त राजा के पास नहीं बल्कि जनता और उसके चुने प्रतिनिधियों में हो, देश के कर्णधार दो गुटों में बंट गये और पूरा विकास किसी भी तरह कुर्सी पर क़ाबिज़ होना ही लक्ष्य बन गया ।
9 दिसम्बर 1946 को हुई संविधान सभा की पहली बैठक ही अपने आप में सबूत है कि किस नज़रिए से भारतीय गणतंत्र की परिकल्पना तैयार की जा रही थी।
संविधान सभा में विभिन्न प्रांतों के सदस्यों के अलावा, रियासतों के प्रतिनिधि भी हिस्सा ले रहे थे।
आम जनता से भी अपने सुझाव भेजने के लिए कहा गया था यानी शुरूआत से ही लक्ष्य एक ऐसे गणतंत्र की स्थापना करना था जिसमें समाज के हर तबके की भागीदारी हो।
शनैः शनैः गुटबंदी पार्टी बंदी बड़ी और दोनों दल वैचारिक रूप से अलग, एक दूसरे की विकास परिकल्पना को नकारने लगे।
‘हिंद स्वराज’ के नाम से एक महत्वपूर्ण दस्तावेज लिखने वाले गांधी को भुला उनकी हत्या के औचित्य और अनौचित्य पर पार्टी बंदी हो गई। विचार को गौण और घटना को प्रधान बना कर राज चलने लगा।
आज भी यही सब साफ़-साफ़ दिख रहा है।
यूँ तो भारतीय गणतंत्र सत्ता के केंद्र दिल्ली में बैठे व्यक्ति को भी वही अधिकार देता है जो अधिकार सुदूर अबूझमाड़ जंगल में रहने वाले व्यक्ति के पास हैं।
एक बेहद साधारण नागरिक भी समझता है कि उसके वोट की क़ीमत है और सत्ता के बनने या गिरने में उसका वोट मायने रखता है।
इस सारे परिदृश्य को धन बल, बाहुबल और जातिबल से चुने जनप्रतिनिधि बदलने पर उतारू हैं।
भारत जहां ग़रीब किसान का बेटा प्रधानमंत्री, एक वैज्ञानिक राष्ट्रपति बन सकता है। और अल्पसंख्यक समुदाय से सुप्रीम कोर्ट का जज संविधान बना सकता है,वहाँ अनेक समस्याएँ भी हैं।
ये कहना ग़लत होगा कि गणतंत्र में समस्याएं नहीं हैं, समानता के तमाम वादों के बावजूद व्यवहारिक दिक्कतें कई बार निराशा पैदा करती हैं।
चुनौतियां पहाड़ी सी खड़ी नज़र आती हैं लेकिन उसके लिए राजनीतिक वर्ग और जनता की बेरुख़ी को ही ज़िम्मेदार दिखती हैं।
संविधान तो हर एक को बराबरी का दर्जा देता है और आगे बढ़ने के समान अवसर मुहैया कराने का आश्वासन भी।
चुनौती देते कई संकट खड़े हुए हैं कई मौक़ों पर देश के विघटन की आशंका जताई गई, राजनीतिक व्यवस्था पर भी अविश्वास जताया गया।
जवाहर लाल नेहरू की मौत, आपात काल के लागू होने, इससे इतर अलगाववादी आंदोलनों में देश घिरा नज़र आया.इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी की हत्या के बाद राजनीतिक अनिश्चितता पैदा हुई.लेकिन संकट के ऐसे ही अवसरों पर लोग मन में धीर धरे और गणतंत्र की मूल भावना को अपने मन में लिए संकल्प से भरे नज़र आए और देश एक बार फिर उठ खड़ा हुआ।
आज जिन समस्याओं का घटाटोप बादल विकास पर छाता जा रहा है, हटेगा और शायद वो अच्छे दिन आएगें जिन्हें अभी जुमलेबाज़ी की संज्ञा मिली हुई है।
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