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नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना स्वाभिमान पूर्ण रोजगार की गारंटी से ही संभव

खरी-खरी            Mar 07, 2023


राकेश दुबे।

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह  ने घुटने टेककर “लाड़ली बहना” योजना की शुरुआत की। तुरंत प्रतिक्रिया सामने आई, “जीजाजी को रोज़गार दिया होता तो बहिनों को हज़ार रुपए देने की नौबत नहीं आती।“

सब जानते हैं, मध्यप्रदेश में चुनाव निकट है, लोग इस घोषणा को चुनाव से जोड़कर टिप्पणी कर रहे हैं। स्वच्छ चुनाव की नैतिक संस्कृति के पहरुए अर्थ नीति के इस दांव पर मौन हैं?

भाजपा हो या कांग्रेस भौतिकवादी मूल्यों ने कुछ इस प्रकार देश के लोगों को घेर लिया कि नैतिकता की बातें काल्पनिक सी लगती हैं।

स्वार्थ साधने की प्रवृत्ति मुखर हो गई है। शार्टकट के रास्ते का बोलबाला है। अपना काम साधने के लिए कितना भी नीचे  जाना पड़े तो कोई हर्ज नहीं।

सही  मायने में राजनीतिक दल किंकर्त्तव्यविमूढ़ हैं, मुख्य विषय रोज़गार पर जितना काम होना था नहीं हुआ।

नये भौतिकवादी मूल्यों के प्रसार के साथ चुनाव पूर्व और पश्चात ऐसे कदमों की  घोषणा से जनता को लुभाना आवश्यक कदम राजनीतिक दलों की मजबूरी बन गई  है।

समाज में स्वच्छ चुनाव प्रक्रिया के चेहरे को स्वच्छ प्रमाणित करना बड़ी चुनौती हो गयी है।

इन  घोषणाओं के अपराधी गठजोड़ करके सार्वजनिक जीवन के चुनावी माहौल में रणस्थली की सूरत भी देखी जा सकती है, यह सारा घटनाक्रम लोगों को भयभीत कर रहा है।

दरअसल, बेकार युवाओं को काम से नहीं बल्कि अनुकम्पा घोषणाओं से बहलाने का प्रयास होता है, इसी कारण वे बेरोजगार होकर नशे और बंदूक माफिया के चंगुल में फंस रहे हैं।

अधोपतन इतना कि आज कहीं भी स्थापित नैतिक मूल्य का कोई दम नहीं दिखता।

नि:संदेह सांस्कृतिक जीवन में नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना एक ऐसा भारतीय राष्ट्रवादी कर्म है जो जल्द से जल्द स्थापित हो जाना चाहिए।

अगर हमें इस देश को अपने कर्त्तव्य-पथ पर चलते हुए उसे पुण्य-पथ की संज्ञा देनी है तो ऐसी ही संज्ञा देश के रहनुमाओं द्वारा दी जानी चाहिए।

मध्यप्रदेश जिस देश भारत का हिस्सा है उसके बारे में यह भी कहा जा रहा है कि देश ने तरक्की करके दुनिया की आर्थिक महाशक्तियों में पांचवां स्थान हासिल कर लिया।

कभी अपने शासक रहे ग्रेट ब्रिटेन को पीछे छोड़ दिया और अब जल्दी ही तीसरा स्थान ग्रहण कर लेने की विकास संभावनाओं की घोषणा हो रही है।

लेकिन ऐसी विकास संभावनाओं में ये खतरनाक प्रवृत्तियां एक ऐसा अनैतिक संकट खड़ा कर रही हैं जिससे पार पाना आसान तो नहीं होगा। इनसे पार पाने के लिए न तो अध्यात्म, न योग, न पुस्तकों का पुनर्लेखन काफी है।

जरूरी है जो जिस योग्य है उसको उसीके मुताबिक इस देश में काम मिले, रोजी-रोजगार मिले और वह इस स्वाभिमान से भर जाए कि वह अपने बूते अपनी रोटी कमा रहा है, लेकिन ऐसी कोई कार्य योजना फिलहाल नजर नहीं आ रही।

सरकार की ओर से केवल कह दिया जाता है कि सरकार और निजी क्षेत्र की क्षमता इस देश के केवल 30 प्रतिशत युवाओं को रोजगार देने की है। 70 प्रतिशत लोग तो रोजगार तलाशने वाले नहीं बल्कि रोजगार देने वाले बनेंगे।

लेकिन प्रशिक्षण, प्रोत्साहन के अभाव में स्टार्टअप उद्योगों के आंकड़े देश के भाग्य नियंताओं को चेतावनी देते हैं कि यह बात मूल रूप से गलत हो रही है।

दरअसल, नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना स्वाभिमान पूर्ण रोजगार की गारंटी से ही हो सकती है। घुटने टेक कर बात करना प्रदेश और हितग्राही दोनों का सम्मान नहीं  है।

 



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