श्रीकांत सक्सेना।
तीसरी दुनिया के बहुत से शिक्षासंस्थानों और सत्ता प्रतिष्ठानों को पश्चिम का उगालदान कहा जाता रहा है।
जिसे झपटने के लिए दूसरी और तीसरी दुनिया के बुद्धिवादी बरसों से जद्दोजहद करते रहे हैं और उसी उगले हुए को चुभला-चुभलाकर अपने लोगों के आगे परोसकर अपनी बौद्धिकता को धन्य-धन्य करते आ रहे हैं।
यह स्थिति साहित्य और कला आदि से लेकर भवन निर्माण तथा लोकरुचि व प्राथमिकताओं के निर्धारण तक लागू होती है।
पश्चिम सदियों से शेष विश्व को कच्चे माल की तरह इस्तेमाल करता रहा है और मूल्यसंवर्धित सामग्री दुनिया को बेचता रहा है।
भारत तथा चीन दोनों ही विश्व की प्राचीन सभ्यताएँ हैं।
भारत और चीन दोनों ही देशों का तथाकथित कार्पोरेट वर्ग अर्थशास्त्र में परिभाषित कार्पोरेट वर्ग से भिन्न है।
दोनों के देसी स्वरूप हैं जहाँ बाज़ार के नियमों से अधिक कौटुम्बिक और राष्ट्रीय कारक अधिक प्रभावी रहते हैं।
मसलन, भारत और चीन की कंपनियों की वास्तविक संरचना और उनमें लिए जाने वाले फ़ैसलों के बारे में अमरीकी सीआईए की नानी संस्था भी अनुमान नहीं लगा सकती।
भारतीय और चीनी कंपनियों के प्रमुख अपनी प्रबंधन क्षमताओं और वाणिज्यक कौशल से अधिक इस बात से तय होते हैं कि मूल देश में उनका जुड़ाव किससे है।
भारत भाई-भतीजावाद के लिए जाना जाता है लेकिन पश्चिमी नज़रिये से भारतवर्ष चीन दोनों ही इस बीमारी से ग्रस्त हैं।
व्यापार की यह शैली इन दोनों देशों में सहस्रों बरसों के बाद विकसित हुई है।
यह तथ्य सर्वविदित है कि फ़िलहाल चीन विश्व की उभरती हुई प्रभावी अर्थव्यवस्था है। अमरीका समेत यूरोप के अधिकांश देशों के बाज़ारों में चीनी निवेश इतना महत्वपूर्ण हो चुका है कि किसी भी विकसित देश की अर्थव्यवस्था को लड़खड़ा देने की सामर्थ्य रखता है।
जनसांख्यिक दृष्टि से भारत की रोज़गार योग्य आबादी चीन से अधिक है यद्यपि भारतीयों की रोज़गार योग्यता चीन से बहुत पीछे हैं।
पश्चिम के लगभग सभी देश बुढ़ाते हुए देश हैं।
अमरीका और जापान को भी इन्हीं में शामिल किया जा सकता है।
पश्चिम के अधिकांश देशों में जनसंख्या वृद्धि दर उनकी राष्ट्रीय आवश्यकताओं से बहुत कम है।
अनेक देशों में तो यह नकारात्मक है।
ज़ाहिर है इन सभी देशों को कामगार सिर्फ़ भारत या चीन से ही मिल सकते हैं।
दूसरे विश्वयुद्ध की पूर्वसंध्या पर सुभाषचंद्र बोस ने भविष्य के भारत की संकल्पना प्रस्तुत करते हुए भारत में कुछ समय के लिए सर्वशक्तिसम्पन्न केंद्रीयकृत शासन प्रणाली की ज़रूरत पर बल दिया था।
वे इस अवधि और अवसर का उपयोग विशेषकर मानव संसाधनों में कौशल निर्माण तथा नागरिकों में नागरिकता भाव जाग्रत करने के लिए करना चाहते थे।
यद्यपि भारत में ऐसा कभी हो नहीं सका।
नतीजतन शासन का प्रत्येक अंग भ्रष्ट और परजीवी बनकर रह गया।
उत्तर प्रदेश में एक स्कूल टीचर 25 जगहों से वेतन उठाती रही।
दिल्ली में लगभग 40 से 50 हज़ार म्युनिसिपल कर्मचारी कुछ अधिकारियों से मिलीभगत करके दो,तीन या चार जगहों से वेतन पाते रहे।
बरसों सत्तासुख भोगने के पश्चात अनेक ‘भूतपूर्व ‘ नौकरशाहों ने अपनी किताबों में यह उल्लेख किया कि आईएएस और आईएफ़एस जैसी नौकरियाँ भी ऐसे ही चोर दरवाजों के ज़रिए ही हथियाई जाती रही हैं।
किसी का इम्तेहान किसी ने दे दिया।
किसी को इम्तेहान के पेपर पहले से मालूम हो गए।सेना और अर्धसैनिक बलों की भर्तियाँ भी इसी प्रकार होती रहीं।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में अनेक गाँव ऐसे हैं जहां एक भी परिवार ऐसा नहीं जिनका कोई न कोई सदस्य सेना में न हो।
सैन्य अधिकारियों की भर्ती भी इससे पापतंत्र से अछूती न रही।
यह स्थिति उन परिवारों के लिए कितनी पीड़ादायक होगी जो आज़ाद हिंदुस्तान में अपने बच्चों के लिए उनकी योग्यतानुसार रोज़गार के सपने देखते हुए बच्चों को यही सिखाते रहे कि ख़ूब मन से पढो, ख़ूब परिश्रम करों और बढ़िया नौकरी हासिल करो।
आज़ाद भारत के सत्ताधीश भारत के इस मध्यवर्ग से कितना बड़ा छल करते रहे।
कम से कम आज के नौजवानों से यह अब छुपा नहीं है।
लालू प्रसाद के जमाने में रेलवे में नौकरी देने के बदले कितने ही बिहारी नौजवानों के परिवारों ने अपनी ज़मीनें लालू के गुर्गों के नाम कर दी थीं।
ऐसे बहुत से क़िस्से अख़बारों में आते रहे थे।
सत्तापक्ष द्वारा अपने ही देशवासियों से ऐसा छल अक्षम्य माना जाना चाहिए था।
उन्हें इस कृत्य के लिए दंडित किया जाना चाहिए था।
ऐसे लोगों को दंडित करने का अधिकार और ज़िम्मेदारी उन नौजवानों की ही थी,जो इस अन्याय के शिकार होते रहे हैं।
बहरहाल जबतक नौजवान ख़ुद फ़ैसला करने की स्थिति में नहीं हो पाते और इस प्रकार के अन्याय का विरोध नहीं करते तबतक यथास्थिति को बर्दाश्त करने के अलावा कोई विकल्प नहीं।
चीन को यह अवसर मिला कि वह लगभग तीन दशकों तक अपने मानव संसाधनों को नई चुनौतियों और ज़रूरतों के अनुरूप ढाल सके और तैयार कर सके।
उत्पादन के दो बुनियादी साधन होते हैं-पूँजी और श्रम।चीन के पास कुशल श्रमिक हैं,जिसका लाभ चीन को मिला है।
उसने पश्चिमी देशों की पूँजी को अपने यहाँ आमंत्रित करके बड़े स्तर पर उत्पादन करके बाज़ार पर कब्जा बनाया ।
भारत अपनी ही बनाई खाई से बाहर निकलने के लिए जूझता रहा।
वर्तमान सरकार कौशल विकास और स्टार्ट अप के ज़रिए बचाखुचा इकट्ठा करके विश्व बाज़ार से कुछ कमाने की जुगत में लगी है।
यद्यपि यह स्थिति बड़े मॉल्स और होटलों के बाहर फेंके गए कचरे को बीनने से बहुत भिन्न नहीं है।
पश्चिम का बौद्धिक जगत भारत के विश्वविद्यालयों को पश्चिम का ‘स्लम’या गंदी बस्तियाँ कहता रहा है कला ,साहित्य,निर्माण और लोकरुचि की प्राथमिकताओं की दृष्टि से भारतीय बुद्धिजीवी यह कचरा बरसों से बीनते रहे हैं।
सो वर्तमान स्थिति भी बहुत भिन्न नहीं है,शायद हिंदुस्तानियों को यह स्थिति अब अपमानजनक भी न लगती ।
लेकिन इस सबके बीच भारतीय समाज का एक बहुत बड़ा मौन वर्ग एक उम्मीद के रूप में आज भी मौजूद हैं।
जिसके पास ऊर्जा है,क्षमता है,समय है,जो जब चाहे सारी समीकरणों को ध्वस्त करके सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि दुनिया को अपने संकल्प के बल पर अपनी इच्छानुसार चलाने की सामर्थ्य रखता है।
जिस दिन उसे अपनी इस सामर्थ्य का भान हो गया उस दिन से लंकादहन में बहुत विलंब नहीं होगा
(फ़िलहाल यह आलेख बहुत लंबा हो गया,लेकिन जल्द ही भारत-चीन टकराव और समाधान की जो बात आरंभ की थी उस पर लिखूँगा । सुधि मित्र इस आलेख पर अपनी सहमति-असहमति देंगे तो उसी आधार पर आगे अपनी बात रखूँगा। शुभमस्तु।
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