अवधेश बजाज।
सीएम साहब, आप सत्तारूढ़ नहीं पत्तारूढ़ हो
वे तमाम कलम अंतत: बांझ साबित हुईं, जो करीब नौ महीने पहले एक दुर्लभ विश्वास के संसर्ग से गर्भवती हुई थीं। जिन्होंने अपनी सियाही को खुशी के आंसूओं में परिवर्तित कर मुख्यमंत्री कमलनाथ के लिए ‘कमिटमेंट नाथ’ का संबोधन ईजाद किया था।
पत्रकारों की जमात के वे सभी सयाने भी अपने बालों की सफेदी के मूल में तजुर्बे की बजाय धूप का तत्व तलाशने लगे होंगे, जिन्होंने बीते साल दिसंबर के मध्य के बाद बातचीत या लेखन में यह विश्वास जताया था कि मध्यप्रदेश में सचमुच बदलाव का वक्त आ गया है।
छला जाना तो खैर देश के मतदाता की नीयति बन चुका है। किंतु मध्यप्रदेश में इस छल से उपजे छाले नौ महीने में इतना विशाल और दर्दनाक रूप ले चुके हैं, जिससे यह मर्ज अब नासूर बन चुका दिखने लगा है।
यह अवधि व्यवस्था से दुराचार का वह दौर बन गयी है, जिसमें लोकतंत्र को पूर्णतया भोगतंत्र में परिवर्तित कर दिया गया है। उसे कोठे की रक्कासा बना दिया गया है।
वल्लभ भवन से लेकर तमाम मंत्री निवासों पर चौबीस घंटे और सातों दिन चल रहे इन कोठों में घुंघरू की झंकार नहीं सुनायी देती। उसकी जगह जिस्मों पर बांधी गयी जंजीरों से किसी को घसीटे जाने का स्वर सुनायी देता है। वहां गीत नहीं, बल्कि वह चीत्कार गूंजते हैं, जिन्हें बोलचाल की भाषा में आम आदमी की आवाज कहा जाता है।
दरअसल, मध्यप्रदेश में इस समय सत्तारूढ़ दल नामक संस्था ही नहीं है। यहां पत्तारूढ़ वाला कार्यकाल चल रहा है। पत्ता वो, जिस पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी दिखते हैं। यानी भारतीय रुपया।
पूरी की पूरी सरकार इसी पत्ते पर आरूढ़ होकर चल रही है। वल्लभ भवन में बैठे सत्ता की दलाली में ‘माहिर’ लोग समानांतर अर्थव्यवस्था संचालित कर प्रदेश की अनर्थव्यवस्था को मजबूती देने में व्यस्त हैं।
प्रदेश कांग्रेस कार्यालय की शोभा तो ऐसे चेहरे के चलते कलंकित हो गयी है, जिसके प्रेत को किसी ओझा की मदद से भी काबू में किया जाना फिलहाल संभव नहीं दिखता। बॉलीवुड में जिस भी शख्स ने ‘पैसे की भूखी औरत’ का संवाद ईजाद किया है, वह निश्चित ही भविष्यदृष्टा रहा होगा।
क्योंकि यह संवाद मध्यप्रदेश कांग्रेस मुख्यालय के ताजा हालात से कई साल पहले ही लिख दिया गया था।
‘वक्त है बदलाव का’ बीते साल के अंतिम महीने में सुनायी दिया बधाई गीत अब पूरे प्रदेश की आशाओं का मर्सिया बन चुका है। तालिबानी शासन से ज्यादा बुरे हालात यहां दिखते हैं। क्योंकि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता के सूत्र थामा हर चेहरा ‘वक्त है बदला का’ की शैली में आतंक फैलाने में मशगूल है।
मुख्यमंत्री पद की चिर-संचित अभिलाषा का पूरा होना कमलनाथ के लिए किसी नये जन्म से कम नहीं था। यह जन्म होते ही मानो उन्होंने अपनी नाल वल्लभ भवन में ही गाड़ दी। कुछ इस तरह कि इस विशालकाय इमारत से बाहर उनका दिखाई देना धीरे-धीरे आकाश कुसुम के दृष्टिगोचर होने जैसा नामुमकिन तत्व हो चुका है।
अपने पूर्ववर्ती शिवराज सिंह चौहान से कमलनाथ का साम्य कुछ ऐसा सटीक बैठ रहा है कि दोनों के बीच केवल नाम का अंतर रह गया है, काम तो दो जिस्म, एक जान की तरह एकाकार हो चुके हैं। शिवराज लच्छेदार बाते करने में माहिर थे, नाथ भी इन्हें लच्छों के कच्छों को लपेटे हुए हुकूमत चला रहे हैं।
न शिवराज की तमाम योजनाएं अमल में लायी गयीं और न ही नाथ अपने हाथों यह गुनाह होने दे रहे हैं। चुनाव के पूर्व किये गये तमाम वादे मुख्यमंत्री निवास से लगे बड़े तालाब में पूरी निर्लज्जता के साथ विर्सजित कर दिये गये हैं।
जो वादे बच गये, उन्हें वल्लभ भवन के गलियारों में अफसरों तथा मंत्रियों की मॉब लिंचिंग का शिकार बनने के लिए छोड़ दिया गया है। राज्य के सरकारी दफ्तरों की दीवारें पहले पान की पीक से लाल दिखती थीं, अब उन पर अधूरे वादों के खून के छींटों की मौजूदगी दिखने लगी है।
ऐसे राजनीतिक सहोदर मुख्यमंत्री एवं पूर्व मुख्यमंत्री को देखकर यह आरोप गलत नहीं लगता कि नाथ तथा चौहान के बीच नूरा कुश्ती चल रही है और इसके अखाड़े की मिट्टी प्रदेश की बेकसूर जनता की खून-पसीने की कमाई एवं अरमानों के लहू से सनी हुई है।
इस पर मजमेबाजी ऐसी कि सड़क पर सांप तथा नेवले की लड़ाई दिखाने वाले भी शरमा जाएं। मजमेबाज मतलब की बात से दर्शक का ध्यान हटाने के लिए हर कुछ कहता जाता है। इसे बकना कहते हैं। यही बकवाद समूचे तंत्र पर हावी है।
तरह-तरह के मजमे सजाये जा रहे हैं। ताकि आम जनता को भ्रमित किया जा सके। मिलावट के खिलाफ अभियान इसी शोशेबाजी का पहला चरण था। दरअसल, इस मूर्ख बनाओ अभियान के जरिये मिलावट से उस सिलावट का बंदोबस्त किया गया, जिसके टांकों के नीचे सरकार की तमाम नाकामियां छिपायी जा सकें।
यह काम हाथों-हाथ लिया गया। क्योंकि अफसरशाही नामक माफिया के लिए यह सुभीते का प्रतीक था। आम जनता का काम करने की इच्छा के लिहाज से नौकरशाही स्वत: ही अपना बंध्याकरण करवा चुकी है। इसलिए मिलावट के खिलाफ कार्रवाई के नाम पर अपने आलस्य को और पनपाने से बड़ी हरामखोरी और कोई हो ही नहीं सकती थी।
मिलावट का कार्यक्रम ठंडा पड़ा तो नये विवाद की आंच पैदा की गयी। हनीट्रैप कांड इसका एक हिस्सा है। यह बादलों पर हल चलाकर खेती करने की नितांत मूर्खता से अलग और कोई जतन नहीं है। इसका वही हश्र होगा जो व्यापमं घोटाले का हो रहा है।
लेकिन इसके चलते हुआ यूं कि प्रदेश की आवाम करीब एक महीने से अपने दु:ख-दर्द भुलाकर गुदगुदाते हुए चेहरे एवं मन से इसी बात में मसरूफ होकर रह गयी है कि किस अफसर और नेता की कौन-सी शाम किस हसीना के आगोश में बीती होगी।
पतलून और पायजामे ढीले किये जाने की कीमत उन्होंने किस स्तर तक अपनी जेब ढीली करके चुकायी होगी। हालांकि, ध्यान भटकाओ अभियान का यह चरण अब दम तोड़ने लगा है।
इसलिए हुआ यह है कि राज्य के विखंडित जुबान वाले मंत्री जीतू पटवारी राजस्व विभाग के महकमे पर पिल पड़े। मतदाता फिर यह टुकुर-टुकुर देखने में मगन हो गया कि किस तरह एक मंत्री और पटवारियों के बीच असम्मानीय शब्दों का सेतु स्थापित किया जा रहा है।
इस सबके बीच राज्य में पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ गये हैं। दूध जैसी रोजमर्रा की वस्तु भी महंगी हो चुकी है। तमाम जिंस की कीमत बढ़ चुकी है, यहां तक कि भ्रष्टाचार की भी।
किसी वस्तु का मूल्य घटा है तो वह है सरकार नामक संस्था की विश्वसनीयता का। बाकी तो राज्य मंत्रालय तथा प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय के सामने जनता से जुड़े तमाम कामों की रेट लिस्ट लगने की औपचारिकता ही शेष रह गयी है।
मंत्रालय उस मूत्रालय में परिवर्तित कर दिया गया है, जिसमें मुद्दों की बजाय भ्रष्टाचार वाले मूल्यों की ही बात होती है। मुख्यमंत्री तथ्यों पर आधारित संवाद के नाम पर दूरदर्शन के मूक-बधिरों वाले समाचार के एंकर मात्र बनकर रह गये दिखते हैं।
मूत्रालय एकता के अधिकार का प्रतीक होता है। वहां जाने वाला हर शख्स एक समान स्थान पर समान अवस्था में विसर्जन करता है। प्रदेश के इस मूत्रालय में इसी अधिकार के तहत कोई मंत्री मुख्यमंत्री की तरह गर्राता हुआ आचरण करता दिख रहा है तो सत्तारूढ़ दल का कोई पदाधिकारी भी सुपर चीफ मिनिस्टर की अकड़ से भरा हुआ साफ दिख जाता है।
यह कल्पना भी सिहरन से भर दे रही है कि शांति का टापू किस तेजी से दलदल में तब्दील किया जा रहा है। अनिश्चितता का माहौल हर जगह खरपतवार की तरह प्रकट हो गया है। आशंकाएं लोगों के दिलो-दिमाग पर अमरबेल की भांति काबिज हो चुकी हैं। व्यवस्था और कुव्यवस्था के बीच का फासला खत्म कर दिया गया है।
अनाचारपूर्ण शमन और दमन का चक्र ऐसा चल रहा है कि मुख्यमंत्री 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 के बीच वाले वह व्यक्ति के स्वरूप में पुन: पहुंच गये दिखते हैं, जो उक्त बतायी गयी अवधि में संजय गांधी के हमकदम हुआ करते थे।
सरकार के पास उपलब्धि के नाम पर गिनाने के लिए झूठ के अलावा और कुछ नहीं है और अवाम के पास दिखाने के लिए उन जख्मों के सिवाय और कुछ नहीं बचा, जिन जख्मों का मदावा अब किसी के पास नजर नहीं आता।
हालात इतने बेशर्मी वाले हैं कि उन पर कोई हरिशंकर परसाई व्यंग्य लिखने का गुनाह करने की सोच भी नहीं सकता। कोई मुंशी प्रेमचंद उन्हें अपनी किसी कहानी का हिस्सा बनाकर साहित्य जगत को कलंकित करने का पाप नहीं कर सकता।
और मीडिया, वह तो रक्से-बिस्मिल का आदी हो चुका है। पहले पागलों की तरह शिवराज सिंह चौहान की प्रशंसा में नाचता रहा और अब मौजूदा सरकार में भी उन्माद से भरा नृत्य करने को मजबूर है। पागलपन कुत्ते के काटने से भी होता है।
मध्यप्रदेश में पत्रकारिता के फलक पर कई ऐसे श्वान भी ईमानदार पत्रकारों को रैबीज देने पर आमादा हैं, जिनका एकमात्र लक्ष्य सत्तारूढ़ दल के आगे दुम हिलाना और अव्यवस्थाओं के खम्भे का अपने मूत्र से अभिषेक करना ही रह गया है।
रैबीज के ये संवाहक सरकार के समक्ष पत्रकारों की जमात का ‘भाजपाई और कांग्रेसी’ के तौर पर विभक्तिकरण करने में मसरूफ हैं। वे प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय में अपनी ही जमात पर इशारा मिलते ही गुर्राने लगे हैं।
सच्चे मीडियाकर्मी मंत्रालय से लेकर मुख्यालय तक वर्जित किये जा चुके हैं। पीत पत्रकारिता में सनी कलम का राज्याभिषेक हो गया है और सत्तारूढ़ दल के तलुवे चाटने को राजकीय अनिवार्य शिष्टाचार का स्वरूप प्रदान कर दिया गया है।
क्षुद्र निजी स्वार्थ की बदबूदार पिशाब वाली रोशनाई से भरी यह कलम और तमाम तलुवों से नित-दिन अपना श्रृंगार करती यह जुबान उस स्वर्ग में निरापद तथा स-सम्मान प्रवेश का जरिया बनकर रह गये हैं, इस बहाने ही सही, कम से कम ‘वक्त है बदलाव का’ कहीं तो सार्थक होता दिख सके।
प्रदेश में जनता की उम्मीदें मरकर शव में तब्दील हो चुकी हैं। सभी आवश्यक मुद्दे भी लगातार बलात्कार का शिकार होकर दम तोड़ गये हैं। कहीं राजनीतिक श्मशान में लोगों की वाजिब आकांक्षाओं की सामूहिक चिताएं जलती दिखती हैं तो कहीं सियासी कब्रिस्तानों में इन उम्मीदों को जमीन के बहुत नीचे जिंदा दफना दिया गया है।
पारसियों में मृतक की देह को पक्षियों का निवाला बनने के लिए छोड़ दिया जाता है। तो इसी तर्ज पर राज्य में दमन का शिकार होकर लाश में परिवर्तित हुए सच्चे पत्रकारों की लाश उनके ही परभक्षी सहकर्मियों के भोजन की खातिर आरक्षित कर दी गयी हैं।
अंत में एक बात केवल यह कि किन्नरों के शव के अंतिम संस्कार की प्रक्रिया आज तक पूरी तरह गोपनीय है। यह समुदाय मुर्देे का क्या करता है, कोई नहीं जानता। मंत्रालय से लेकर मुख्यालय तक के बीच कई शव किसी किन्नर की तरह गुपचुप अस्तित्व-विहीन कर दिये गये हैं, इस सवाल का जवाब कोई दे सके तो मैं उसकी दासता स्वीकारने के लिए सहर्ष स्वयं को प्रस्तुत कर दूंगा।
लेखक बिच्छू डॉट कॉम के संपादक हैं।
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