हम उन्हें मौका दे रहे हैं,जो कभी अपनी बात पर कायम नहीं रहे

खरी-खरी            May 18, 2018


राकेश दुबे।
केंद्र द्वारा रमजान के बहाने से जम्मू-कश्मीर में संघर्ष विराम बहुत दूरदर्शी फैसला नहीं है, इसका शायद ही कोई सकारात्मक नतीजा निकले। न तो इसमें कोई गहरी सोच दिखाई देती है,और न ही इसके पीछे कोई बड़ी रणनीतिक तैयारी ही नजर नहीं आती है।

कश्मीर के हालात पर संजीदगी से नजर डाली जाती, तो संभवत: यह एलान नहीं किया जाता। अभी राज्य में ऑपरेशन ऑल आउट जारी था जिसके तहत रिकॉर्ड 214 आतंकी मारे गए हैं।, यह एक ऐसा वक्त है, जब सुरक्षा बलों को सफलता मिल रही थी।

संघर्ष-विराम उनके रास्ते में अचानक आया ऐसा स्पीड ब्रेकर साबित हो सकता है, जो उनकी रफ्तार झटके से रोक रहा है।

यह फैसला सुरक्षा बलों के मनोबल को ठेस पहुंचा सकता है। उन्हें यह लग सकता है कि जब वे आतंकियों को लगातार निशाना बना रहे हैं, तब सरकार ने उनके हाथ बांध दिए हैं। कहने के लिए यह बंदिश सिर्फ रमजान के पाक महीने तक है, पर इस दरम्यान सुरक्षा बलों की सक्रियता कम होने से आतंकियों को शह मिल सकती है।

दहशतगर्दों की जो ताकत सुरक्षा बलों की कार्रवाइयों से बिखर गई थी, उसे फिर से समेटने का उन्हें एक बेहतर मौका मिल सकता है। इसे बिना किसी होमवर्क से लागू किया गया है।

इतिहास गवाह है कि अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में ही सन 2000 में इसी तरह के युद्धविराम की घोषणा की गई थी। मगर तब कई स्तरों पर शांति कायम करने की बातचीत चल रही थी; अलगाववादियों की तरफ से भी इसमें भागीदारी थी। दूसरे पक्ष ने संघर्ष विराम पर अपनी सहमति जताई थी। इससे तब हिंसा एक हद तक कम हुई थी।

मगर वह पहल भी इसलिए असफल साबित हुई, क्योंकि इसकी आड़ में खून-खराबे में विश्वास रखने वाले दहशतगर्दों ने संघर्ष-विराम के समर्थक अलगाववादियों को मारकर उनकी जगह ले ली। इस बार आतंकी संगठनों की तरफ से कोई भरोसा नहीं दिया गया है।

लश्कर-ए-तैयबा ने तो इसे तत्काल नकार दिया। उसने संघर्ष-विराम न मानने और अपनी तरफ से कार्रवाई जारी रखने की बात कही है। साफ है कि सरकार की यह एकतरफा कोशिश ज्यादा दूर तक जाती नहीं दिख रही।

अब प्रश्न यह है कि ऐसे किसी फैसले की जरूरत महसूस हुई ? लगता है कि केंद्र ने यह फैसला दबाव में लिया है। दरअसल, जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने इसकी मांग करके गेंद को केंद्र के पाले में डाल दिया था।

जब कोई सूबा ऐसे किसी संवेदनशील मसले पर अपना रुख पहले जाहिर कर दे, तो उसके साथ खड़े रहना केंद्र की मजबूरी बन जाती है। केंद्र पर यह दबाव तब और भी बढ़ जाता है, जब उस पर ध्रुवीकरण के आरोप लग रहे हों।

केंद्र की एनडीए सरकार की अगुवाई भाजपा कर रही की जो छवि की जो छवि बनाई जा रही है उसे देखते हुए उसके लिए इस प्रस्ताव को नकारना कहीं ज्यादा मुश्किल था। अगर वह संघर्ष-विराम लागू नहीं करती,तो जाहिर तौर पर उस पर सांप्रदायिक होने के आरोप लगते।

यह एक निचले दर्जे की राजनीति है। संभवत: मुख्यमंत्री ने संघर्ष विराम की मांग इसलिए की क्योंकि उनकी मंशा शायद कश्मीरियों, खास तौर से वहां के मुसलमानों में अपनी छवि निखारने की होगी। सोच यह हो सकती है कि आगे चलकर उन्हें इसका सियासी फायदा मिलेगा। लेकिन शायद यह गलत आकलन है।

हो सकता है कि उनकी पार्टी को इसका कुछ फायदा मिले, पर अमन कायम करने के लिहाज से यह फैसला बहुत लाभप्रद नहीं दिख रहा। ऐसे संघर्ष-विराम का तब ज्यादा असर होता है, जब तमाम पक्ष इसके लिए एकजुट हों। किसी एक पक्ष के मुकरने से मामला बिगड़ जाता है।

इस संघर्ष-विराम की एक शर्त यह है कि हमला होने की सूरत में सुरक्षा बल अपनी या बेगुनाह नागरिकों की जान बचाने के लिए जवाबी कार्रवाई कर सकते हैं, मगर यह कोई अच्छी नीति नहीं है। हम उन्हें मौका दे रहे हैं, जो कभी अपनी बात पर कायम नहीं रहे।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और प्रतिदिन पत्रिका के संपादक हैं।


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