सचिन जैन।
ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य से संबंधित आंकड़ों (रूरल हेल्थ स्टेटिस्टिक्स 2021-22) की रिपोर्ट बताती है कि ग्रामीण भारत में एएनएम के 2,40,518 पद स्वीकृत हैं, लेकिन इनमें से 43,541 पद खाली हैं. प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर 39,669 डॉक्टर होने चाहिए, लेकिन 9451 पद खाली हैं. स्त्री रोग विशेषज्ञ, बाल रोग विशेषज्ञ जैसे विशेषज्ञों के 21,920 पदों में से 17,435 पद खाली हैं. जब ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य केन्द्रों की संख्या पर नज़र डालते हैं, तब भी स्थिति ऐसी ही है. देश में 48,060 उपस्वास्थ्य केन्द्रों की कमी है. इसी तरह 9,742 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की भी कमी है.
आदिवासी क्षेत्रों में हालात और कठोर हो जाते हैं. यहाँ 33,870 उपस्वास्थ्य केन्द्रों की जरूरत है, लेकिन 9,357 की कमी है. 5,068 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की जरूरत है, लेकिन 1559 की कमी है और 1254 सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों की जरूरत है, लेकिन 372 केन्द्रों की कमी है. प्रश्न यह है कि क्या यह केवल लोक स्वास्थ्य से संबंधित आंकड़ों का विषय है या फिर लोक स्वास्थ्य के ढाँचे में संवैधानिक मूल्यों के घाटे (वैल्यू डेफिसिट) का विषय है?
भारत में लोक स्वास्थ्य व्यवस्था की मंशा और उद्देश्य क्या है? क्या महज स्वास्थ्य केन्द्रों की स्थापना, ज्यादा से ज्यादा चिकित्सकों की नियुक्ति और नई-नई तकनीकों को अपनाया जाना ही ‘स्वास्थ्य व्यवस्था” का उद्देश्य होता है? जब स्वास्थ्य व्यवस्था के नीतिगत सिद्धांतों पर नज़र डाली जाती है, तब इस इन प्रश्नों का उत्तर मिलता जाता है. भारत सरकार देश में लोक स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए अलग-अलग स्तरों पर नीतियों और मानकों का निर्धारण करती है. इन्हीं में से एक मानक संग्रह होता है – भारतीय लोक स्वास्थ्य मानकों का निर्धारण (इंडियन पब्लिक हेल्थ स्टैंडर्ड्स-आईपीएचएस) का निर्धारण.
यूँ तो भारतीय लोक स्वास्थ्य मानकों में यह स्पष्ट किया जाता है कि भारत में कितनी जनसँख्या पर कितने चिकित्सकों की नियुक्ति होनी चाहिए? कितनी जनसँख्या पर उप-स्वास्थ्य केंद्र, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र स्थापित किया जाना चाहिए? कितने बाल रोग विशेषज्ञों, स्त्री रोग विशेषज्ञों, निश्चेतना विशेषज्ञों, शल्य चिकित्सकों की आवश्यकता होगी? एक स्वास्थ्य केंद्र कितने किलोमीटर के भौगोलिक दायरे में सेवाएँ प्रदान करेगा आदि? इसके साथ ही ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों, आदिवासी क्षेत्रों की आवश्यकता का आंकलन किया जाता है.
इन मानकों के आधार पर ही सरकारों द्वारा देश और समाज की स्वास्थ्य सेवाओं से सम्बंधित आवश्यकताओं को पूरा करने की पहल की जाती है. लेकिन इन मानकों को निर्धारित करने के पीछे वास्तविक विचार और मूल्य कौन से हैं, यह जानना जरूरी हो जाता है. केवल अस्पतालों के निर्माण से तो “लोक स्वास्थ्य” की अवधारणा स्पष्ट नहीं होती है. यह जिज्ञासा भी उत्पन्न हो सकती है कि क्या ज्यादा से अस्पताल होने या कई सारे डॉक्टरों की उपलब्धता से यह माना जा सकेगा कि भारत का समाज स्वस्थ है? निश्चित रूप से ऐसा नहीं माना जा सकता है.
इन प्रश्नों के आलोक में भारत की (केवल सरकार की नहीं) लोक स्वास्थ्य की नीति के नैतिक और मूल्यानुगत परिप्रेक्ष्य को समझना बहुत जरूरी होगा. इसी परिप्रेक्ष्य से यह स्पष्ट हो सकेगा कि वास्तव में सरकार द्वारा स्थापित लोक स्वास्थ्य व्यवस्था की समीक्षा किन मानकों के आधार पर की जाना चाहिए – अस्पतालों और डॉक्टरों की संख्या के आधार पर या फिर इस आधार पर कि समाज के स्वस्थ होने का अर्थ क्या है और क्या वास्तव में हम ऐसा पर्यावरण निर्मित कर पा रहे हैं, जिसमें लोग शारीरिक-मानसिक-भावनात्मक-सांस्कृतिक रूप से स्वस्थ और खुशहाल रह सकें?
ज़रा रुकिए. यह धारणा मत बनाइये कि यहाँ किसी आध्यात्मिक विषय पर चर्चा की जा रही है. यहाँ शुद्ध रूप से भारत सरकार द्वारा तय किये गए भारतीय लोक स्वास्थ्य मानकों से जुड़े हुए मानवीय और संवैधानिक मूल्यों की ही चर्चा की जा रही है. भारतीय लोक स्वास्थ्य मानकों (लोक स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा जारी) की पुस्तक में कई पन्ने होते हैं. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण शुरुआत के दो पन्ने हैं. जिनमें उस नज़रिए, सोच और प्रतिबद्धता का जिक्र है, जिन्हें व्यवहार में लाने के लिए ये मानक निर्धारित किये गए हैं. वस्तुतः यही पृष्ठभूमि बताती है कि ये मानक “क्यों” निर्धारित किये जा रहे हैं? और इनके पीछे कौन से संवैधानिक मूल्य मौजूद हैं?
जब स्वास्थ्य व्यवस्था की बात की जाती है, तब देश के ऐतिहासिक सन्दर्भ को भी छुआ जाता है. ऐसा इसलिए किया जाता है, ताकि समाज और व्यवस्था के ऐतिहासिक मूल्यों और प्रतिबद्धताओं के आधार पर वर्तमान व्यवस्था को तार्किक रूप से प्रस्तुत किया जा सके. भारतीय लोक स्वास्थ्य मानकों की नींव में भी भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था का ऐतिहासिक सन्दर्भ दर्ज है. इसमें कहा गया है कि ”चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में भारत का अतीत बहुत समृद्ध रहा है. व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य दोनों पक्षों को ही स्वास्थ्य का महत्वपूर्ण मानदंड माना गया.”
‘चरक संहिता’ सदियों से चिकित्सा का मुख्य आधार रही है और ‘सुश्रुत संहिता’ शल्य चिकित्सा का प्राचीन चिकित्सा संग्रह है, जिसे छठी शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास संकलित किया गया था. भारत ने अपने इतिहास में बौद्ध युग यानी छठी शताब्दी ईसा पूर्व में ‘विहार’ की स्थापना देखी. इन बौद्ध मठों में बीमारों, गरीबों और विकलांगों के स्वास्थ्य की देखभाल करने के साथ ही चिकित्सा शिक्षा भी प्रदान की जाती थी.
दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में सम्राट अशोक के शासनकाल में कई स्वास्थ्य केंद्र/अस्पताल संचालित किये जा रहे थे और आधुनिक अस्पतालों और स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों की स्थापना की जा रही थी. इसके बाद 19वीं शताब्दी के अंत से 20वीं शताब्दी के प्रारंभ तक, व्यवस्थित चिकित्सा प्रशिक्षण के लिए पहले चिकित्सा महाविद्यालयों की स्थापना की जा रही थी. इसके अलावा, अनुमंडल और जिला स्तर पर औषधालय स्थापित किए गए थे.
प्रांतीय स्तर के अस्पतालों को मेडिकल कॉलेजों से जोड़ा गया. नई वैश्विक व्यवस्था में सार्वजनिक स्वास्थ्य की व्यवस्था पर दुनिया का नज़रिया धीरे-धीरे विकसित हुआ है. विंसलो ने सार्वजनिक स्वास्थ्य को “समाज, संगठनों, सार्वजनिक और निजी समुदायों और व्यक्तियों के संगठित प्रयासों और सूचित विकल्पों के माध्यम से बीमारी को रोकने, जीवन को दीर्घायु बनाने और स्वस्थ जीवन की संभावना को बढ़ावा देने के विज्ञान और ”कला” के रूप में परिभाषित किया, जिसने स्वास्थ्य के व्यापक पहलुओं को संबोधित करते हुए एक व्यापक आयाम दिया.”
जब स्वास्थ्य व्यवस्था मूल्यों पर आधारित होती है, तब यह सुनिश्चित किया जाता है कि लोगों को जिम्मेदार और प्रशिक्षित स्वास्थ्यकर्मियों की सेवाएँ हासिल हों. इसके लिए भारतीय लोक स्वास्थ्य मानकों में यह स्पष्ट किया गया है कि स्वास्थ्य तंत्र में अलग-अलग सेवा प्रदाताओं की अलग-अलग भूमिका होगी. इसमें उल्लेख है कि “सार्वजनिक स्वास्थ्य की अवधारणा के प्रति बढ़ती स्वीकार्यता के साथ, राज्य व्यवस्था (सरकार) ने सार्वजनिक स्वास्थ्य में चिकित्सा शिक्षा और स्वास्थ्य विज्ञान के औपचारिक प्रशिक्षण की व्यवस्था स्थापित करने की दिशा में प्रयास शुरू किए. सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए मानव संसाधनों के समूह में चिकित्सा और गैर-चिकित्सा पृष्ठभूमि दोनों के कर्मचारी शामिल थे, जिनमें स्वास्थ्य सहायक, नर्स/एएनएम, दाइयों, स्वच्छता निरीक्षकों, स्वच्छता सहायकों, स्वास्थ्य अधिकारियों और चिकित्सकों को शामिल किया गया था. 1946 में स्वास्थ्य सर्वेक्षण और विकास समिति (भोरे समिति) ने एकीकृत उपचारात्मक और निवारक सेवाएं प्रदान करने के लिए स्वास्थ्य केंद्रों की स्थापना की सिफारिश की.”
इतना ही नहीं स्वास्थ्य तंत्र का भारत की संवैधानिक व्यवस्था और इसके मूल्यों के साथ बहुत स्पष्ट जुडाव भी है. भारत में कितने चिकित्सकों की आवश्यकता है, कितनी नर्सों और शल्य चिकित्सकों की आवश्यकता है, इसका निर्धारण भी संवैधानिक मानकों पर आधारित है. आईपीएचएस में उल्लेख है कि “भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत ही मूलभूत अधिकारों में भारत के हर व्यक्ति को यह गारंटी दी गई है कि “किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा”.
यहाँ “जीवन” का अर्थ न तो सांस लेने का शारीरिक कार्य तक ही सीमित है और न ही इसका अर्थ जीवन भर कठिन परिस्थितियों में ही रहना है. इसका व्यापक अर्थ यह है कि ऐसा जीवन जिसमें मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार, आजीविका का अधिकार, प्रदूषण मुक्त हवा का अधिकार और स्वास्थ्य का अधिकार शामिल है. इसी तरह अनुच्छेद 47 पोषण के स्तर और जीवन स्तर को बढ़ाने और सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार करने के लिए राज्य को नीति सम्बन्धी निर्देश देकर सरकार की प्रतिबद्धता को और अधिक स्थापित करता है”.
वर्ष 2005 में, भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (जिसे राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन कहा जाता है) को “स्वास्थ्य के व्यापक सामाजिक कारकों/निर्धारकों को संबोधित करते हुए लोगों की स्वास्थ्य सम्बन्धी जरूरतों को पूरा करने के उद्देश्य से जवाबदेह और उत्तरदायी, प्रभावी अंतरक्षेत्रीय अभिसरण के साथ समतामूलक, सस्ती और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सम्बन्धी सेवाओं तक सार्वभौमिक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए” स्थापित किया गया था.
सरकार का समाज के प्रति एक गंभीर उत्तरदायित्व होता है. स्वास्थ्य का सवाल भी उसी उत्तरदायित्व का एक अनिवार्य हिस्सा है. दुनिया के स्तर पर यह चर्चा होती रही है कि समाज के स्वास्थ्य के लक्ष्य को हासिल किये बिना विकास का कोई लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता है. यही कारण है कि 45 सालों से दुनिया के देश एक मंच पर इकठ्ठा होते हैं और तय करते हैं कि स्वास्थ्य की परिभाषा क्या हो और उसे साकार कैसे किया जाए?
आईपीएचएस की पृष्ठभूमि में उल्लेखीय है कि “30वीं विश्व स्वास्थ्य सभा (वर्ल्ड हेल्थ असेम्बली) ने मई 1977 में संकल्प लिया था कि आने वाले दशकों में सरकारों और विश्व स्वास्थ्य संगठनों का मुख्य सामाजिक लक्ष्य वर्ष 2000 तक दुनिया के सभी नागरिकों द्वारा स्वास्थ्य के एक ऐसे स्तर की प्राप्ति होना चाहिए जो उन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से उत्पादक जीवन व्यतीत करने में सहायता प्रदान करे.
विश्व स्वास्थ्य सभा की घोषणा ने सभी सरकारों से राष्ट्रीय नीतियों, रणनीतियों और कार्य योजनाओं को तैयार करने का आह्वान किया, जिनके माध्यम से टिकाऊ प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य व्यवस्था स्थापित की जा सके. इसके लिए हर देश को अपनी परिस्थिति के अनुसार नवाचार करने के लिए स्वतंत्र माना गया.
इसके बाद 1981 में 34वीं विश्व स्वास्थ्य सभा द्वारा “सभी के लिए स्वास्थ्य के लिए वैश्विक रणनीति” तैयार की गई और अपनाया गया. इसका तात्पर्य स्वास्थ्य के लक्ष्य को हासिल करने में आनेवाली बाधाओं को दूर करना है – यानी कुपोषण, जागरूकता की कमी, बीमारी, दूषित जल आपूर्ति, अस्वच्छ आवास आदि का उन्मूलन. यह किया जाना चिकित्सा और सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में की गई निरंतर प्रगति पर निर्भर करता है.
इसके साथ ही स्वास्थ्य सेवाओं का लोकव्यापीकरण नींव व्यापक स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए एक सार्वभौमिक अधिकार बन गई और पर्याप्त भोजन और पोषण, उचित चिकित्सा देखभाल, सुरक्षित पेयजल तक पहुंच सुनिश्चित, उचित स्वच्छता, शिक्षा, स्वास्थ्य संबंधी जानकारी प्रदान करना और बेहतर स्वास्थ्य के लिए अन्य कारकों पर काम करना राज्य का एक व्यापक दायित्व बन गया. इन सभी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए, सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए गुणवत्तापूर्ण सेवाएं प्रदान करना आवश्यक है.“
अंत में लक्ष्य है गरिमा और सम्मान के साथ गुणवत्तापूर्ण सेवाएँ प्रदान करना ताकि भारत के लोगों को गरिमामय जीवन का अधिकार हासिल हो सके. आईपीएचएस के मुताबिक़ “भारत में लोक स्वास्थ्य के इन उद्देश्यों को पूरा करने की दिशा में बढ़ने के लिए जरूरी माना गया कि सभी को अच्छी स्वास्थ्य सेवाएँ प्राप्त हों और सभी नागरिकों को गरिमा और सम्मान के साथ गुणवत्तापूर्ण सेवाएं प्रदान करने के लिए “भारतीय लोक स्वास्थ्य मानक” बनाए गए. इस प्रकार वर्ष 2007 में भारत सरकार ने उप स्वास्थ्य केंद्रों, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों, उप जिला अस्पतालों और जिला अस्पतालों के लिए भारतीय लोक स्वास्थ्य मानक प्रकाशित किया गया और फिर इन्हें वर्ष 2012 में संशोधित किया गया.
यही मानक राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल अवसंरचना योजना और उन्नयन का आधार बनते हैं. इन मानकों का निर्धारण इस तरह से किया गया है कि ये मानक सरकार को स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने के लिए बुनियादी ढांचे, मानव संसाधन, दवाओं, निदान, उपकरण, गुणवत्ता और शासन की आवश्यकताओं जैसे स्वास्थ्य प्रणाली के घटकों पर मार्गदर्शन प्रदान प्रदान करेंगे”.
इस वक्तव्य से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वस्थ जीवन और व्यक्ति के स्वास्थ्य के आयाम बहुत व्यापक हैं और सरकार की भूमिका केवल संस्थागत व्यवस्था बनाए रखने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि निरंतर यह समीक्षा की जानी चाहिए कि क्या भारत में कुपोषण, जागरूकता की कमी, बीमारी के कारणों, पर्यावरण का संकट, दूषित जल आपूर्ति, अस्वच्छ आवास आदि का उन्मूलन हो रहा है या नहीं! वस्तुतः यह एक नैतिक और संवैधानिक मूल्यों से जुड़ा प्रश्न है!
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