ममता यादव।
सरकारी कर्मचारियों की पेंशन को लेकर छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक बड़ा फैसला दिया है। यह फैसला राज्य सरकारों की मनमानी पर रोक लगाने का काम करेगा।
यह निर्णय ऐसे मामलों को लेकर है जिनमें राज्य शासन द्वारा जिन प्रकरणों में संबंधित अधिकारियों/कर्मचारियों को पूर्ण परीक्षण एवं जाँच उपरांत दोषी नहीं पाया गया, परंतु न्यायालय द्वारा सजा दे दी गई है।
ऐसे प्रकरणों में राज्य शासन द्वारा कर्मचारियों की पेंशन बंद करने की कार्यवाही की जा रही है।
गौरतलब है कि किसी भी कर्मचारी/अधिकारी को पेंशन राज्य सरकार की सेवा के आधार पर उनकी वृद्धावस्था में जीवन-यापन के लिए प्रदान की जाती है। किसी भी कर्मचारी को न्यायालय द्वारा सजा देने के आधार पर पेंशन रोकने का निर्णय पेंशन नियमों के अनुसार राज्य शासन का विवेक अधिकार है।
ऐसा देखने में आ रहा है कि राज्य शासन द्वारा न्यायालय द्वारा दी गई सजा का पूर्ण परीक्षण किए बिना, गंभीर अपराध एवं साधारण अपराधों में भेद किए बिना, समान रूप से साधारण अपराधों में भी कर्मचारियों की पेंशन बंद करने की कार्यवाही की जा रही है, वह उन कर्मचारियों के विरुद्ध घोर अन्याय है।
देश की सर्वोच्च न्यायपालिका द्वारा याचिका क्रमांक-400/1987 रामेश्वर यादव विरूद्ध केंद्र शासन आदेश दिनांक 10/01/1989 एवं माननीय उच्च न्यायालय ग्वालियर (म.प्र.) द्वारा याचिका क्रमांक-4213/2014 में सिहार खान विरुद्ध मध्य प्रदेश शासन में पारित आदेश दिनांक 25/02/2021 एवं माननीय छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय द्वारा याचिका क्रमांक-1745/2018 में पारित आदेश दिनांक 05/03/2018 गेंदराम साहू विरुद्ध छत्तीसगढ़ शासन में यह प्रतिपादित किया गया है कि “बिना आपराधिक प्रकरण की प्रकृति, कर्मचारी की आर्थिक स्थिति एवं उस पर आश्रित परिवार के जीवन-यापन पर ध्यान न रखकर पेंशन बंद करने का निर्णय/आदेश विधि के अनुसार नहीं है तथा उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राज्य शासन के ऐसे आदेशों को निरस्त किया गया है।
न्यायालय ने पूर्व के मामलों में आए फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि सेवानिवृत्ति के बाद पेंशनभोगी राज्य के अधीन अपनी पिछली सेवा के मद्देनजर पेंशन का हकदार है। एक कर्मचारी अपनी पेंशन कमाता है। पेंशन एक इनाम नहीं है, बल्कि कई वर्षों तक राज्य की सेवा करके उसके द्वारा अर्जित एक लाभ है। ऐसी पेंशन से वंचित होने से पेंशनभोगी के नागरिक अधिकार, जीवनयापन के साधन प्रभावित होते हैं।
प्राप्त जानकारी के अनुसार याचिकाकर्ता गेंदराम साहू 30.06.2016 को हेड क्लर्क के पद से सेवानिवृत्त हो गया था। उसे पेंशन स्वीकृति प्राधिकरण द्वारा 22,000/- रुपये प्रति माह की अनंतिम पेंशन दी गई थी। इसके बाद, उन्हें भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (इसके बाद “पीसी एक्ट”) की धारा 7 और 13(1)(डी) के साथ धारा 13(2) के तहत क्षेत्राधिकार न्यायालय द्वारा दोषी ठहराया गया और पीसी एक्ट की धारा 7 के तहत चार साल के कठोर कारावास और 10,000/- रुपये का जुर्माना भरने की सजा सुनाई गई, और पीसी एक्ट की धारा 13(1)(डी) के साथ धारा 13(2) के तहत चार साल के कठोर कारावास और 10,000/- रुपये का जुर्माना भरने की सजा सुनाई गई।
इसके बाद प्रतिवादी क्रमांक इस प्रकरण के सामने जिला शिक्षा अधिकारी, अंबिकापुर द्वारा उनकी पेंशन रोक दी गई, जिसके कारण तत्काल रिट याचिका दायर की गई। (2) याचिकाकर्ता केने प्रस्तुत किया की तरफ से याचिका में कहा गया कि छत्तीसगढ़ सिविल सेवा (पेंशन) नियम, 1976 (इसके पश्चात “पेंशन नियम, 1976”) की धारा 8 (1) (बी) के अंतर्गत याचिकाकर्ता को सुनवाई का समुचित अवसर दिए बिना कोई आदेश पारित नहीं किया गया है, इसलिए पूरी पेंशन रोकना असंतुलित और कानून की दृष्टि से गलत है, जिसे निरस्त किया जाना चाहिए।
उच्च न्यायालय ने पेंशन नियम, 1976 के नियम 8(1)(बी) का हवाला देते हुए कहा कि इसके तहत पेंशन भविष्य में अच्छे आचरण के अधीन है।
भविष्य में अच्छा आचरण इन नियमों के तहत पेंशन के प्रत्येक अनुदान तथा उसके जारी रहने की एक निहित शर्त होगी। यदि पेंशनभोगी किसी गंभीर अपराध का दोषी पाया जाता है या गंभीर कदाचार का दोषी पाया जाता है, तो पेंशन स्वीकृत करने वाला प्राधिकारी लिखित आदेश द्वारा पेंशन या उसके किसी भाग को स्थायी रूप से या निर्दिष्ट अवधि के लिए रोक सकता है या वापस ले सकता है। बशर्ते कि पेंशनभोगी की सेवानिवृत्ति के समय सक्षम प्राधिकारी के अधीनस्थ किसी प्राधिकारी द्वारा उसके द्वारा सेवा से सेवानिवृत्ति के तुरंत पहले धारित पद पर नियुक्ति करने के लिए ऐसा कोई आदेश पारित नहीं किया जाएगा।
आगे यह भी प्रावधान है कि जहां पेंशन का कोई भाग रोका या वापस लिया जाता है, ऐसी पेंशन की राशि[ (सरकार द्वारा समय-समय पर निर्धारित न्यूनतम पेंशन) से कम नहीं की जाएगी। (2) जहां किसी पेंशनभोगी को न्यायालय द्वारा गंभीर अपराध का दोषी ठहराया जाता है, वहां उपनियम (1) के खंड (ख) के तहत कार्रवाई ऐसी सजा से संबंधित न्यायालय के निर्णय के आलोक में की जाएगी। (3) उपनियम (2) के अंतर्गत न आने वाले किसी मामले में, यदि उपनियम (1) में निर्दिष्ट प्राधिकारी यह समझता है कि पेंशनभोगी प्रथम दृष्टया गंभीर कदाचार का दोषी है, तो वह उपनियम (1) के अंतर्गत आदेश पारित करने से पूर्व क्या पेंशन में कटौती करने वाले आदेशों को इस आधार पर रद्द किया जाना चाहिए कि अधिकारियों को कारण बताने का उचित अवसर नहीं दिया गया।
इस मुद्दे पर कानून संदेह में नहीं है। जहां कोई निकाय या प्राधिकरण न्यायिक है या जहां उसे अधिकारों से जुड़े मामले को व्यक्त या निहित प्रावधान के कारण न्यायिक रूप से तय करना है, वहां प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत लागू होता उस निकाय या प्राधिकरण का निर्णय व्यक्तिगत अधिकारों या हितों को प्रभावित करता है और विशेष स्थिति को ध्यान में रखते हुए निकाय या प्राधिकरण के लिए सुनवाई का उचित अवसर न देना अनुचित होगा।
पूर्व के मामलों का हवाला देते हुए न्यायालय ने कहाकि राज्य द्वारा किसी व्यक्ति के निहित अधिकारों के हनन में पक्षपात करने का आदेश केवल न्याय और निष्पक्षता के मूल नियमों के अनुसार ही दिया जा सकता है। यह हमारे संवैधानिक ढांचे के मूलभूत नियमों में से एक है कि प्रत्येक नागरिक को राज्य या उसके अधिकारियों द्वारा मनमाने अधिकार के प्रयोग से सुरक्षा प्राप्त है। इसलिए न्यायिक रूप से कार्य करने का कर्तव्य उस कार्य की प्रकृति से उत्पन्न होगा जिसे निष्पादित करने का इरादा है, यदि यह दिखाने की आवश्यकता नहीं है कि इसे जोड़ा जाना चाहिए। यदि किसी व्यक्ति के प्रतिकूल निर्णय लेने और निर्धारण करने की शक्ति है, तो न्यायिक रूप से कार्य करने का कर्तव्य ऐसी शक्ति के प्रयोग में निहित है। यदि न्याय के आवश्यक तत्वों की अनदेखी की जाती है और किसी व्यक्ति के प्रतिकूल आदेश दिया जाता है, तो आदेश अमान्य है। यह कानून के शासन की आधारभूत अवधारणा है और इसका महत्व किसी विशेष मामले में निर्णय के महत्व से कहीं अधिक है।”
ये टिप्पणियां एक ऐसे प्राधिकरण के संदर्भ में की गई थीं जिसे चारित्रिक रूप से प्रशासनिक कहा जा सकता है। पृष्ठ 630 पर यह टिप्पणी की गई थीः ”यह सच है कि आदेश प्रकृति में प्रशासनिक है, लेकिन एक प्रशासनिक आदेश भी जिसमें पहले से बताए गए सिविल परिणाम शामिल हैं, राज्य के मामले के प्रथम प्रतिवादी को सूचित करने, उसके समर्थन में साक्ष्य प्रस्तुत करने और प्रथम प्रतिवादी को सुनवाई का अवसर देने और साक्ष्यों को देखने या स्पष्ट करने के बाद प्राकृतिक न्याय के नियमों के अनुरूप बनाया जाना चाहिए।”
(8) तत्पश्चात, पंजाब राज्य और अन्य बनाम इकबाल सिंह 2 के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों ने माना है कि दोषी सरकारी सिविल सेवक के विरुद्ध पेंशन में कटौती करने वाला आदेश उसे सुनवाई का उचित अवसर दिए बिना पारित नहीं किया जा सकता। 2 एआईआर 1976 एससी 667
न्यायालय ने मध्य प्रदेश के राम सेवक मिश्रा बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामले का हवाला देते हुए सवाल किया कि क्या सेवानिवृत्त शासकीय सेवक को कारण बताओ नोटिस/सुनवाई का अवसर दिया जाना आवश्यक है, जिसे न्यायालय द्वारा गंभीर अपराध का दोषी ठहराया गया हो?
इसी प्रकार लक्ष्मी नारायण हयारन बनाम मध्य प्रदेश राज्य और अन्य चार के मामले में पूर्ण पीठ का निर्णय, आपराधिक मुकदमे में दोष सिद्धि के कारण किसी कर्मचारी की सेवा समाप्ति की स्थिति से संबंधित है। पेंशनभोगी को सुनवाई का अवसर न देने का उक्त निर्णय पेंशन रोके जाने के मामले में लागू नहीं किया जा सकता। सेवानिवृत्ति से पहले नियोक्ता और कर्मचारी के बीच संबंध सेवा नियमों द्वारा शासित होते हैं। यदि नियम सुनवाई का कोई अवसर नहीं देते हैं, तो उसे बाहर रखा जा सकता है। सेवारत अधिकारी के मामले में इसकी आवश्यकता हो सकती है, क्योंकि दागी व्यक्ति को सार्वजनिक रोजगार में अनुमति देना जनहित में नहीं है। ऐसा आदेश भारत संघ बनाम तुलसीराम पटेल के मामले में संवैधानिक पीठ के फैसले पर भरोसा करते हुए दिया गया था।
वेब खबर इनपुट
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