कीर्ति राणा।
आमजन में यह धारणा बनती जा रही है कि प्रशासन रोबोट की तरह होता जा रहा है जो मुख्यमंत्री की आवाज से ही ऑन होता है। मासूम बालिका से दुष्कर्म की घटना पर मुख्यमंत्री को जब रात भर नींद नहीं आती तो पुलिस अमला गुंडा तत्वों की नींद हराम कर देता है। वीसी में जब मुख्यमंत्री निर्देश देते हैं कि नशे का कारोबार करने वालों पर कार्रवाई की जाए तो जिलों के कलेक्टरों में नंबर वन रहने की होड़ लग जाती है। मुख्यमंत्री दहाड़ते हैं कि भूमाफियाओं, गरीबों से उनकी जमीन का हक छीनने वालों को सबक सिखाएं तो कलेक्टर दौड़ने लगते हैं।मिलावट करने वालों की भी तभी शामत आती है जब कोई भेदिया मुख्यमंत्री के कान में इन लोगों के कारनामे सुनाता है। जब तक सीएम ना कहें तब तक पब में भी देर रात तक नशाखोरी पर नजर नहीं पड़ती, थानों में फरियादी रिपोर्ट लिखाने, गुंडों से अपनी बहन-बेटी को बचाने की फरियाद लेकर टीआई से लेकर एएसपी के दफ्तर तक भटकते रहते हैं।
मामा एक्शन में, शिवराज सिंह गुस्से में हैं, उनके दौरे पर अधिकारियों के पसीने छूटते रहते हैं। सभा मंच से ही लापरवाह अधिकारियों को हटाने, निलंबित करने के आदेश दे रहे हैं।
पिछले तीन-चार महीनों में शायद ही कोई सप्ताह-पखवाड़ा गया हो जब आमजन का यह विश्वास मजबूत नहीं हुआ हो कि मुख्यमंत्री किसी को नहीं छोड़ रहे हैं।
प्रदेश के मुखिया की इस सख्ती से यदि कोई अधिकारी बच जाता है तो मुख्य सचिव इकबाल सिंह उसकी क्लॉस लेने में देरी नहीं करते।
इन घटनाओं के बाद भी यदि जिलों के कलेक्टर और उनके मातहत अधिकारियों की टीम अब तक भी मुख्यमंत्री के इशारों को नहीं समझ पाई है तो इंदौर में एडीएम पवन जैन के खिलाफ की गई कार्रवाई के बाद तो प्रदेश के लगभग सभी जिलों की प्रशासनिक मशीनरी को संवेदनशील हो ही जाना चाहिए।
मुख्यमंत्री इंदौर को अपने सपनों का शहर कहते रहे हैं, इसलिए भी प्रदेश में इंदौर को आदर्श जिले के रूप में देखा जाता है।
शायद यह भी वजह है कि कलेक्टर सहित अन्य अधिकारियों द्वारा लिए जाने वाले निर्णयों को मुख्यमंत्री शंका की नजर से नहीं देखते उल्टे अधिकारियों को फ्री हैंड दे रखा है।
कलेक्टर की टीम के साथी-एडीएम पवन जैन द्वारा एक दिव्यांग के साथ किए दुर्व्यवहार की शिकायत मिलने और उसकी पुष्टि के बाद तुरंत एक्शन लेकर मुख्यमंत्री ने फिर से यह संदेश दिया है कि सरकार की इमेज पर बट्टा लगाने वाले कतई बर्दाश्त नहीं किए जाएंगे।
बमुश्किल डेढ़ साल पहले ही जैन को आइएएस अवार्ड हुआ है, सरकारी योजनाओं-कलेक्टर के निर्देशों के पालन में भी उनकी छवि बेहतर है।
एक दिव्यांग के प्रति उनसे सहानुभूति दिखाने की अपेक्षा थी लेकिन उसकी समस्याओं के निदान में तत्परता नहीं दिखाने, दुर्व्यवहार करने को शिवराज सिंह ने अक्षम्य मानते हुए तुरंत इंदौर से हटा कर भोपाल अटैच कर दिया है।
उनके इस निर्णय से इंदौर के प्रशासनिक हल्कों में सन्नाटा होना स्वाभाविक है।
कलेक्टर उसी दिव्यांग की बात ठंडे दिमाग से सुनें, उसका राशन कार्ड बनवाने सहित अन्य परेशानियों का भी तुरंत हल निकालने की तत्परता दिखाएं लेकिन मातहत अधिकारी एकदम विपरीत व्यवहार करे !
कलेक्टर कोई कार्रवाई करे उससे पहले ही मुख्यमंत्री ने सख्ती दिखाकर तमाम जिलों के अधिकारियों को चेता दिया है कि मेरी तरह सख्त और मेरी तरह मुलायम होना भी सीख लीजिए।
कुछ दिनों पूर्व ही शिवराज सिंह ने आलीराजपुर दौरे में जोबट के सभा मंच से अधिकारियों को समझाइश दी थी कि जनता के प्रति किसी तरह की लापरवाही और बेइमानी उन्हें बिल्कुल मंजूर नहीं होगी।
उन्होंने मंच से कहा था कोई ईमानदारी से काम करेगा तो उसे पुरस्कार मिलेगा, मगर किसी अधिकारी ने बेईमानी की तो उसे नौकरी करने लायक नहीं छोड़ूंगा।
मुख्यमंत्री की इस चेतावनी की गंभीरता को अधिकारियों ने समझ लिया होता तो एडीएम स्तर पर हुई लापरवाही शायद नहीं होती।
दिव्यांग आवेदक के साथ हुई अपमानजनक घटना से संवेदनशील मुख्यमंत्री का दुखी होना स्वाभाविक है।
अब जरूरी यह है कि प्रशासनिक अधिकारी भी संवेदनशील होने का ढोंग करने की अपेक्षा अपने कार्य-व्यवहार में संवेदना-सहानुभूति को अपनाएं भी।
यह ठीक है कि लॉ एंड आर्डर के साथ ही रोजमर्रा की वर्किंग से कई बार वे अपना आपा खोने जैसी गलती कर बैठते हैं लेकिन उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि उनके समक्ष आवेदन लेकर आने वाला दिव्यांग हो या सामान्य उसे अपनी समस्या के आगे अधिकारी की परेशानी छोटी लगती है।
मुख्यमंत्री के रूप में सर्वाधिक लंबी पारी का रेकार्ड तोड़ने वाले शिवराज सिंह की भाजपा के अन्य मुख्यमंत्रियों की अपेक्षा आमजन में बेहतर छवि होने का ही परिणाम है कि हैरान-परेशान व्यक्ति कलेक्टर, एसपी, एडीएम-सीएसपी आदि के पास इसी विश्वास के साथ जाता है कि उसकी परेशानी का फटाफट हल हो जाएगा। उसे सीएम हेल्प लाइन में आवेदन करने या मुख्यमंत्री के आगमन पर ज्ञापन देने की नौबत नहीं आएगी।
यह तभी संभव है जब अधिकारी भी मुख्यमंत्री की तरह ही अपने अक्षम अधिकारियों के प्रति सख्त हो जाएं। जब वे स्टॉफ मीटिंग में या तहसील, अन्य जिलों के दौरे में राजस्व स्टॉफ की परेशानियां जानने की उदारता दिखाते हैं।
एसपी, आईजी आदि पुलिस स्टॉफ की परेशानियां जानने के लिए वक्त निकाल सकते हैं तो आमजन को जनसुनवाई में भी क्यों आना पड़े?
नगर निगम जोन कार्यालय, एसडीएम ऑफिस पर ही उसकी दिक्कतें दूर क्यों नहीं हो सकती।
इंदौर के एडीएम के खिलाफ लिए गए एक्शन को निगम-पुलिस सहित अन्य विभागों के अधिकारियों को इस भ्रम में भी नहीं रहना चाहिए कि हम तो बच गए।
इसे खतरे का अलार्म मान लेने में ही समझदारी होगी, अब भी नहीं सम्हले तो कल किसी अन्य विभाग के अधिकारी का नंबर आ सकता है।
-लेखक सांध्य दैनिक हिंदुस्तान मेल के समूह संपादक हैं
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