राकेश दुबे।
एक कहावत है “युद्ध और प्यार में सब जायज होता है।” अब युद्ध के औजारों में एक सदियों पुराने हथियार का नया संस्करण आ गया है और यह है मुद्रा युद्ध।
पहले भारत के पड़ोसी देश भारत को निबटाने के लिए उसकी नकली मुद्रा छापने और उसे बाज़ार में उतारने तक सीमित थे।
अब युद्ध विश्वव्यापी और खुलेआम हो गया है। चीन और अमेरिका के बीच चल रहा व्यापार युद्ध अब अघोषित मुद्रा युद्ध के स्वरुप में बदल गया है।
चीन के सेंट्रल बैंक ने डॉलर के मुकाबले युआन की कीमत एक रेकॉर्ड स्तर तक गिर जाने दी, इससे दुनिया भर के मुद्रा बाजार में उथल-पुथल मची हुई है।
चीन ने एकतरफा व्यापार युद्ध वाले अमेरिकी रवैये से तंग आकर अब मुद्रा को अपना हथियार बनाया है। इस मुद्रा युद्ध के परिणाम बहुत खराब होंगे।
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने जब व्यापार वार्ता की दिशा ही गलत बताते हुए चीन से आयातित 300 अरब डॉलर के उत्पादों पर दस फीसदी शुल्क लगाने की घोषणा की, तो चीन ने यह कदम उठा लिया।
कहने को ये दरें 1 सितंबर से लागू हो जाएंगी। चीन मुख्यत: एक निर्यातक देश है इसलिए युआन की कीमत गिरने का उस पर कम प्रभाव पड़ेगा लेकिन चीनी माल का आयात करने वाले तमाम मुल्क चीनी माल और भी सस्ता हो जाने से परेशानी में पड़ेंगे।
यह चीन की मुद्रा युआन में करीब एक दशक की सबसे बड़ी गिरावट है। वैसे भी अगस्त 2010 के बाद का यह सबसे निचला स्तर है।
इस कदम से अमेरिका बौखला गया और उसने कहा कि व्यापार में अनुचित लाभ लेने के लिए चीन अपनी मुद्रा की कीमतों में हेराफेरी कर रहा है।
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप पहले भी चीन पर अपने निर्यात को बढ़ावा देने के लिए युआन का अवमूल्यन करने का आरोप लगाते रहे हैं जबकि चीन इन आरोपों को खारिज करता रहा है।
अब तो बात इस हद तक आ गई है कि व्यापारिक टकराव में अपने हितों की हिफाजत के लिए चीन किसी भी हद तक जाने को तैयार है। जिससे दुनिया की नंबर 1 और नंबर 2
अर्थव्यवस्थाओं के बीच निरंतर जारी इस टकराव का असर संसार की हर अर्थव्यवस्था पर पड़ता दिखाई दे रहा है।
युआन के रिकॉर्ड लो लेवल पर पहुंचने के बाद भारत सहित सभी विकासशील देशों की करंसी में गिरावट देखी गई| भारत के लिए तो ये दुबले और दो आषाढ़ है।
भारत के रूपये, दक्षिण कोरिया के वॉन, इंडोनेशिया के रुपिया और मलयेशिया के रिंगिट पर इसका सीधा असर देखने को मिला।
भारत में एक तो वैसे ही बढ़ोतरी की रफ्तार सुस्त है। इंडस्ट्री के जून तिमाही के नतीजे खराब रहे हैं। विदेशी निवेशक बजट के बाद से ही बाजार से पैसा निकालने में जुटे हैं लेकिन इस उथल-पुथल से बेखबर ट्रंप का अकेला एजेंडा चीन को सबक सिखाने का है।
अर्थशास्त्रियों के मत में चीन के खिलाफ उठाए जा रहे अमेरिकी कदमों से अमेरिका के व्यवसायियों, श्रमिकों और उपभोक्ताओं की परेशानी बढ़ेगी और अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर इसका बुरा असर पड़ेगा, लेकिन ट्रंप और उनके समर्थकों को लगता है कि थोड़ा नुकसान सहकर भी अगर चीन को कुछ जरूरी मामलों में पीछे हटने पर राजी किया जा सका तो आगे चलकर अमेरिका को इसका फायदा मिलेगा।
दोनों बड़ी ताकतों का यह “मुद्रा युद्ध” आगे चलकर एक नई वैश्विक मंदी का सबब बन सकता है, जिसमें भारत जैसे विकासशील देश संकट में आ सकते हैं।
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