प्रकाश भटनागर।
शैतान मिठाई वाले की दुकान के सामने से गुजरा। उसने अंगुली को चाशनी में डुबोया। उसे दीवार पर लगा दिया। चाशनी की महक सूंघकर कीड़ा उसकी ओर लपका। कीड़े को खाने उसके पीछे-पीछे छिपकली आ गयी। छिपकली को देख बिल्ली उसके पीछे भागी। बिल्ली के चक्कर में एक कुत्ता भी वहां आ गया।
दुकान के मालिक ने कुत्ते को एक लट्ठ जमा दिया। जवाब में कुत्ते के मालिक ने वहां आकर गोलियां दाग दीं। दोनो ओर से संघर्ष हुआ। कई लोग मारे गये। चाशनी दीवार पर चिपकी रह गयी। शैतान अट्टहास करता हुआ वहां से चला गया।
भोपाल में राम मंदिर बनाने की घोषणा करने के बाद दिग्विजय सिंह ने भी यहां की सियासी दीवार पर चाशनी छापने का ही उपक्रम किया है। यदि उनकी नीयत पाक-साफ होती तो वह तीन काम कतई नहीं करते।
पहला, यह ऐलान चुनाव प्रचार के बीच नहीं किया जाता। दूसरा, मंदिर के लिए पहले ही विवाद में फंसी जमीन देने की बात नहीं कही जाती। तीसरा, अपने इस कदम को दिग्विजय अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण से नहीं जोड़ते।
दस साल तक प्रदेश की हुकूमत संभालने वाले दिग्विजय को उस समय क्यों याद नहीं आया कि इस शहर को एक भव्य राम मंदिर की सौगात दी जा सकती है?
यकीनन कुछ समय पहले उनका सारा ध्यान हिंदुओं को आतंकवादी घोषित करने और हिंदू आतंकवाद की परिभाषा को हर मौके-बेमौके हवा देने की ओर लगा हुआ था।
कांग्रेस कार्यालय के लिए आवंटित जिस जमीन पर भोपाल का राम मंदिर ट्रस्ट अपना दावा जताता रहा है, वह उनके मुख्यमंत्री काल में ही कांग्रेस की महापौर रहते हुए नगर निगम ने आवंटित की थी।
दिग्विजय सिंह का यह वह दौर था, जब साध्वी ऋतंभरा को दिग्विजय की सरकार ने गिरफ्तार करवा लिया। उन पर लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़काने का आरोप लगाया गया था।
यह वह समय भी था, जब खुद दिग्विजय ने हिंदू धर्म की आराध्य सीता और राधा नाम की स्त्रियों को समलैंगिक बताने वाली फिल्म फायर की शूटिंग के लिए अपनी ओर से दीपा मेहता को मध्यप्रदेश आने का बुलावा भेजा था। यही वो दौर भी था जब साध्वी प्रज्ञा भगवा आतंकवाद का चेहरा बनाई गईं थीं।
जाहिर है कि जो आदमी इस विशिष्ट शैली की वामपंथी तड़के वाली धर्म निरपेक्ष राजनीति करने में मशगूल हो, उसे राम मंदिर जैसी किसी घोर साम्प्रदायिक बात के लिए भला कैसे फुर्सत मिल पाती?
विवादित जमीन को धार्मिक प्रयोजन के लिए देना किसी नये विवाद के सूत्रपात की कोशिश का हिस्सा ही हो सकता है। लेकिन अब क्योंकि पूरी कांग्रेस आकंठ हिन्दूत्व के तिलक, जनेऊ और मंदिर में डूबी हुई है तो दिग्विजय सिंह ऐसी घोषणा कर ही सकते हैं।
मंदिर बनाने की बात पूरी हो या न हो, किंतु यह तय है कि इस घोषणा की सूरत में क्या किसी ऐसे अध्याय की शुरूआत के दरवाजे खोल दिये गये हैं, जिसमें पिछले तीन दशक से भोपाल के हिन्दू भाजपा के भगवा हिन्दूत्व से कांग्रेस के कथित तौर पर सॉफ्ट कहे जा रहे हिंदुत्व का चोला ओढ़ लें।
दिग्विजय ने कहा कि भाजपा अयोध्या में मंदिर का वादा पूरा नहीं कर पायी। किंतु वे भोपाल में इसका निर्माण करायेंगे। पूर्व मुख्यमंत्री से यह पूछा जाना चाहिए कि यहां अयोध्या जैसे संवेदनशील मसले का जिक्र करने के निहितार्थ क्या हैं?
यह तो कोई सोच भी नहीं सकता कि कांग्रेस सत्ता में आने पर अयोध्या में मंदिर बनाने की दिशा में एक कदम भी आगे बढ़ेगी। जो दल इस बात को भी कछुए की तरह खोल में घुसकर स्वीकारता हो कि उसके पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल में ही राम जन्मभूमि का ताला खुलवाया गया था, जिस दल की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका वाड्रा अयोध्या जाने के बावजूद राम जन्मभूमि के दर्शन से गुरेज करें, उस दल से राम मंदिर की बात की अपेक्षा बेमानी है।
कांग्रेस दोनों नावों की सवारी करने की फिराक में है। शायद इसलिए दिग्विजय को यह जरूरत थी कि अपनी घोषणा को देश के सबसे बड़े धार्मिक विवाद से जोड़ते?
जाहिर है कि उनकी नीयत में कहीं न कहीं भोपाल की सरजमीं पर अयोध्या मसले की कड़वाहट का प्रसार करने की भी है। यह चौंकाता नहीं है। आखिर सवाल उस भारी-भरकम अल्पसंख्यक समुदाय का है, जिसे अयोध्या की याद दिला भयभीत कर अपनी ओर खींचने की कोशिश कांग्रेस की बड़ी जरूरत बन गयी है।
मुख्यमंत्री रहते हुए दिग्विजय ने एक बात कई बार कही थी। वह यह कि मैं सोनिया गांधी का सबसे बड़ा चमचा हूं। अब यह सोनिया जी और उनके सुपुत्र राहुल ही जानें कि राम मंदिर की शक्ल में दिग्विजय ने उनकी थाली में जो अपाच्य आहार रख दिया है, उसे उदरस्थ करने के लिए उन्हें कितने चम्मचों की जरूरत पड़ेगी।
कांग्रेस को अभी दो नावों की सवारी का असली परिणाम मिला नहीं है। यह इंदिरा गांधी की वो कांग्रेस नहीं है जिसने सब को बेहतर तरीके से साधा था।
ये वो कांग्रेस है जिसने अल्पसंख्यकों के टूटने पर उन्हें खुद से जोड़ने के लिए प्रो अल्पसंख्यक वाद का जबरदस्त रास्ता अपनाया था जिसने उसे ऐसी खाई में धकेला कि देश की सबसे बड़ी पार्टी दहाई में सिमट कर रह गई।
पर कांग्रेस अभी दौराहे और वैचारिक भटकाव से जूझ रही है। हो सकता है, किस्सा, खुदा ही मिला न विसाले सनम का होकर रह जाए।
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