अमित त्रिवेदी।
आप सभी ने बड़े नेताओं और अधिकारियों की तबियत नासाज होने पर सुना होगा, वह देश के सबसे बड़े और निजी अस्पतालों में भर्ती हैं। यही नहीं सुना तो यह भी होगा कि उन नेताजी और अधिकारी का बेटा या बेटियां देश के सबसे सर्वोच्च शिक्षण संस्थान में हैं। या देश के ही सबसे बड़े निजी स्कूल या कॉलेज में।
लेकिन आपने कभी यह सुना नहीं होगा कि नेताजी इंदौर के एमवाईएच या भोपाल के सरकारी अस्पताल में भर्ती है। या फिर बड़े अफसर या नेताजी का बेटा या बेटी सरकारी जर्जर स्कूलों में पढ़ाई कर रहा है। फिर देश या प्रदेश कैसे स्वास्थ्य और शिक्षा में नम्बर वन है। फिर इन्हीं सेवाओं का करोड़ों का बजट कहां जाता है?
क्या केवल कागजी घोड़े दौड़ाए जाते हैं? या फिर इनका उपचार भी होता है? नहीं ना क्योंकि खुद देश की रीढ़ कहे जाने वाले राजनीतिज्ञ और अधिकारी सरकारी अस्पतालों और स्कूलों से परहेज करते हैं, तो फिर देश की ही जनता को इन प्रयोगशालाओं में भेजने के लिए करोड़ों के विज्ञापन किये जाते हैं? क्यों करोड़ों के बजट की लकीर खींची जाती है।
जब सरकारी अस्पतालों और शिक्षण संस्थानों पर सरकारी तंत्र का ही विश्वास नहीं तो आम जनता को यहां क्या सुविधाएं मिलती होगी। यह आप सभी सोच सकते हैं।
हमेशा सरकारी उपक्रमों की पोल—खोल खबरें, लापरवाहियां उजागर होती रहती हैं तो कैसे देश और मध्यप्रदेश इन मसलों में अव्वल है?
क्या सरकार भी निजी अस्पतालों और शिक्षण संस्थानों को बढ़ावा देने की बात नहीं कर रही है। वहां का महंगा उपचार कितनो की कमर तोड़ देता है,इसी तरह महंगी शिक्षा कितनो को कर्ज में कुचल देता है?
यह किसी से भी छुपा नहीं है, तो फिर सरकार इन निजी व्यवसाइयों पर लगाम क्यों नहीं लगाती है? इसे लेकर हमेशा कभी फीस बढ़ोत्तरी, महंगे इलाज और तो और पैसे के बदले लाश तक गिरवे रख लेने की बाते आम होती रहती है तो देश और मध्यप्रदेश में निजीकरण को इतना बढ़ावा क्यों दिया जा रहा है?
देश और प्रदेश में निजी अस्पतालों, स्कूल, और कॉलेजों की लगातार बाढ़ आती जा रही है। हर कोई इसे बेहतर कमाई वाला धंधा मान बैठा है तो फिर सरकारी अस्पतालों और स्कूल कॉलेज में जनता की गाढ़ी कमाई का धन क्यों व्यर्थ बहाया जा रहा है?
जब देश और प्रदेश में निजी स्कूल, कॉलेज और अस्पतालों को इतना मजबूत बनाना ही है तो यह नौटंकी क्यों?
क्या सरकार में बैठे जिम्मेदारों को यह नहीं करना चाहिए या गरीब जनता के लिए सोचना चाहिए कि वह भी इस मंहगाई के जमाने मे बसर करना चाहती है। वह भी चाहती है?
अगर वह बीमार हो जाये तो उन्हें भी उचित उपचार मिले, ना को सही संस्कार और शिक्षा मिले। लेकिन देश में जारी निजीकरण की बीमारी से ग्रस्त सरकारें कुछ सोचने को तैयार ही नहीं हैं।
अगर अब भी नहीं सोचती है तो जनता को जवाब देना होगा। जनता को ही बताना होगा कि आखिरकार वह कितनी परेशान है? सोचिए क्या सबकुछ जिम्मेदारी या ठेका उनका ही है जो कभी कुछ करने की सोचते नहीं, करते हैं तो बस नौटंकिया।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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