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अंतिम इच्छा का मुस्लिम पड़ोसियों ने रखा मान, विधि-विधान से किया अंतिम संस्कार

खास खबर            Oct 14, 2022


मल्हार मीडिया ब्यूरो।

बबलू जब सुबह मंदिर जाता तो रास्ते में मस्जिद की अजान उसके कानों से दिल तक उतर जाती, वह मस्जिद की अजानें और मन्दिर से आती भक्ति की मधुर तानों को सुनता।

कभी अपने दोस्तों के साथ हँसी मजाक करता तो दिन भर काम से थककर पड़ोस के साथियों के साथ वक्त गुजारता।

बबलू का उसकी माँ के सिवा इस दुनिया में कोई नहीं था, पिता बहुत पहले चल बसे थे, बबलू ऑटो चलाकर अपनी माँ और खुदका भरण पोषण करता।

वह खुश था अपनी इस जिंदगी में कि अचानक उसकी तबियत बिगड़ गई,  हालत इतनी बिगड़ी कि फिर सुधर न सकी।

बबलू जिस मुहल्ले में रहता था वहाँ मुस्लिम समाज के लोग उसके पड़ोसी थे, उन्हीं के साथ उसका बचपन गुजरा।

11 अक्टूबर को बबलू की बीमारी की हालत में मौत हो गई।

आप सोच रहे होंगे बीमारी के बाद मौत का होना सामान्य है।

हाँ यह बात सच है कि मौत हो जाती है, पर यह मौत ऐसी नहीं थी।  

इस मौत के आने से मानव समाज को एक नई जिंदगी मिली। लोग यह जान पाए कि बबलू जैसे लोग मरकर भी अपनी कहानी लिखकर जाते हैं।

घटना मध्यप्रदेश के अनूपपुर जिले के कोतमा शहर की है, यहां एक ऑटो चालक बबलू की बीमारी से मौत हो गई।

उसने तमाम उम्र अपने पड़ोसियों, दोस्तों से मुहब्ब्त की।

उनके साथ अपनी जिंदगी गुजर बसर की और जब मौत नजदीक आई तो अपने अंतिम संस्कार का हक भी उन्हीं लोगों के नाम कर दिया जिनके साथ उसका जीवन गुजरा।

जब मौत करीब आई तो उसने अपने मुस्लिम पड़ोसियों से कहा कि वही उसका अंतिम संस्कार करें।

जब बबलू का निधन हो गया, सारा क्षेत्र इस ख़बर से गमगीन हो गया, मुस्लिम पड़ोसी आए, बाँस-सुतली, खरेंटे से बबलू का अंतिम बिस्तर तैयार किया।

उसे कफ़न में लपेटा और फिर काँधे पर रखकर राम नाम सत्य है कि आवाज लगाते मुक्तिधाम की ओर चल पड़े।

टोपी लगाए आगे काली मटकी में सुलगते कण्डे के धुएं के साथ अपने साथी की मौत पर आँसू पोछते लोग मुक्तिधाम पहुँचे। चिता को तैयार किया गया और फिर बबलू का अंतिम संस्कार पूरे हिन्दू रीति-रिवाज के साथ किया गया।

दाह संस्कार में सबकी आँखे नम थीं, घरों को लौटते लोग अल्लाह को मानने वाले थे और जिसे अभी पंचतत्व के हवाले किया वह भगवान को मानना वाला था।

पर वहां से धर्म के रास्ते एक हो जाते हैं जहां से इंसानियत शुरू होती है।

इसी मानवता से यही पैग़ाम निकलता है कि हम इंसान चाहे कितना भी लड़ झगड़ लें पर हमारे दिलों में मुहब्बतें जिंदा रहती हैं।

बबलू अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उन्होंने ताउम्र जो कमाया उनकी मौत के बाद उन्हें बेपनाह प्यार के रूप में वही वापस मिला।

उनके मुस्लिम पड़ोसियों ने भी पूरे दिल से अपने बबलू के लिए अपनी इंसानियत का हक अदा किया।

कुल जमा बात इतनी है कि मुहब्ब्त के बीज कहीं भी अंकुरित हो सकते हैं, नफ़रतें बांझ होती हैं, पर प्यार तो पत्थरों में फूल खिला देता है।

इसलिए नेक बनिए और कोशिश करिए कि हम हिन्दू मुस्लिम से पहले एक अच्छे इंसान बन सकें।

 



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