Breaking News

बाजार को खोलना एक बात है, उसे सर्वग्रासी बनने की छूट देना दूसरी बात

खास खबर, बिजनस            Aug 31, 2019


हेमंत कुमार झा।
सबसे बड़ा संकट यह है कि सरकारें बाजार पर से अपना नियंत्रण खोती जा रही हैं। बाजार की ताकतों ने राजनीतिक संस्कृति को ही बदल डाला है और नीतियों के निर्माण में राजनेताओं की भूमिका को परोक्ष तौर पर सीमित कर दिया है।

नतीजा यह है कि जनता के ही वोट से जीत कर बनने वाली सरकारें जनविरोधी नीतियां बनाती हैं और उन्हें इस तरह प्रचारित करती हैं कि देश के लिये यही जरूरी है, कि इसी में जनता का कल्याण है। मीडिया इसमें बाजार का हथियार बनता है।

बाजार को खोलना एक बात है लेकिन उसे सर्वग्रासी बनने की छूट देना दूसरी बात। पहली बात जरूरी हो सकती है लेकिन दूसरी बात मानवता के समक्ष संकट बन कर आ खड़ी हुई है। विशेष कर भारत जैसे देश में, जहाँ की विशाल आबादी में असमानता के अनेक स्तर हैं।

आप कम आबादी और प्रचुर संसाधनों से लैस विकसित यूरोपीय देशों का आर्थिक फार्मूला भारत जैसी जटिल आर्थिक-सामाजिक संरचना पर अगर लादते हैं तो इससे अन्य अनेक जटिलताएं उत्पन्न होती हैं। समय ने साबित किया है कि आर्थिक सुधारों के बाद बढ़ी विकास दरें सार्वजनिक उन्नति और कल्याण की मान्य अवधारणाओं के साथ सामंजस्य बिठाने में असफल रही हैं।

बाजार की शक्तियों के समक्ष व्यवस्थाओं की पराजय अपनी मेहनत के बल पर जीने वालों के लिये त्रासदी बन कर खड़ी हो गई है। वे हर स्तर पर छले जा रहे हैं, लूटे जा रहे हैं।

यही कारण है कि जैसे-जैसे बाजार की ताकतों के सामने सरकारें कमजोर होती जा रही हैं, प्रतिरोध की मुद्रा में मेहनतकश वर्ग आता जा रहा है। वह सरकारों से, उनकी नीतियों से असंतुष्ट है क्योंकि वे सब उन्हें अपने खिलाफ और बाजार के खिलाड़ियों के पक्ष में नजर आ रही हैं।

चाहे वह फ्रांस और हंगरी की सड़कों पर आंदोलित कामगार वर्ग हो या अमेजन की मनमानियों के खिलाफ दुनिया के अनेक देशों में उठ खड़ा हुआ उसका कर्मचारी वर्ग हो या फिर भारत की आयुध फैक्ट्रियों के हड़ताली कर्मचारियों की जमात हो।

वैसे भी, बाजार की शोषणकारी ताकतों के लिये चुनौती सरकारें नहीं, वह मेहनतकश वर्ग ही है जिसकी क्रय शक्ति और जिसके श्रम पर बाजार फलता-फूलता है। सरकारें तो अपने मन माफिक बनवाई जा सकती हैं लेकिन कामगार वर्ग के समर्थन के बने रहने की गारंटी नहीं हो सकती।

इस समर्थन के बने रहने की जरूरत बाजार के लिये अनिवार्य है वरना उसके शोषण-चक्र का शीराज़ा बिखरते देर नहीं लगेगी। इसलिये, कामगार वर्ग की सामूहिक चेतना को नष्ट करने की हर सम्भव कोशिश की जाती है। यह कोशिश राजनीतिक और सामाजिक दोनों स्तरों पर होती है। जब तक ऐसे षड्यंत्रों में ऐसी ताकतें सफल हैं, तब तक इनका जलवा है।

बाजार के मंसूबों के सामने सरकार के कमजोर होने का एक बड़ा उदाहरण भारत में सरकारी नौकरियों में पेंशन का खत्म होना था। पेंशन खत्म करने की घोषणा करते हुए वित्त मंत्री ने कहा था कि देश यह आर्थिक बोझ वहन करने में सक्षम नहीं।

चिकित्सा सुविधाओं के विकास और जीवन प्रत्याशा में बढ़ोतरी ने निश्चित रूप से पेंशन के रूप में खर्च होने वाली राशि को बढ़ाया लेकिन इसे 'बोझ' कहना किसी चुनी हुई सरकार की नहीं बल्कि बाजार की भाषा थी जिसे किसी मंत्री ने स्वर दिया।

25-30-35 वर्षों की सेवा के बाद बुढापे में आप कैसे किसी कामगार को आर्थिक रूप से बेसहारा छोड़ सकते हैं? और जिसने दशकों अपने परिश्रम का योगदान सिस्टम को दिया हो उसे बुढापे में बोझ की संज्ञा कैसे दी जा सकती है? यह संसार, यह समाज, यह जीवन सिर्फ बाजार के निर्मम नियमों से संचालित नहीं हो सकता।

पेंशन खत्म होने के पीछे वैश्विक वित्तीय शक्तियों का दबाव मुख्य कारक था क्योंकि भारत में बहुराष्ट्रीय बैंकिंग और बीमा कंपनियों का बाजार खोला जा रहा था। इस बढ़ते बाजार को ग्राहकों की जरूरत थी और सरकारी कर्मचारियों की बड़ी संख्या उनका मजबूत ग्राहक आधार बन सकती थी।

केंद्र और राज्य सरकारों के कर्मियों के साथ सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मियों की संख्या जोड़ दी जाए तो यह करोड़ों में पहुंच जाती है। कर्मियों की इस विशाल संख्या को सेवा निवृत्ति के बाद सरकार ही अगर पेंशन देती तो इन कम्पनियों के पेंशन फंड में कौन अपना निवेश करता? बुढ़ापे की आर्थिक सुरक्षा के नाम पर इन कंपनियों की विभिन्न निवेश योजनाओं में कौन अपनी गाढ़ी कमाई लगाता?

तो सरकारी पेंशन खत्म। न्यू पेंशन स्कीम शुरू, जिसमें कर्मी के वेतन का अंशदान और सरकारी अंशदान का बड़ा हिस्सा बाजार को पूंजी के रूप में मिलने का रास्ता साफ हुआ, जबकि इस न्यू स्कीम के तहत सेवा निवृत्ति के बाद मिलने वाली पेंशन की राशि को लेकर निश्चिंतता खत्म हो गई।

बुढ़ापे की आर्थिक निश्चिंतता के इस अभाव में एनपीएस में शामिल कर्मी भी अपना पेट काट कर वित्तीय कंपनियों की अन्य विभिन्न योजनाओं में निवेश बढाने लगे ताकि बुढापा में वैकल्पिक आर्थिक सहारा भी रहे।

कर्मचारियों से ओल्ड पेंशन की निश्चिंतता छीनने का सबसे बड़ा कारण बाजार का दबाव था जिसके आगे सरकार को झुकना पड़ा। बाजार की बढ़ती ताकत के समक्ष सरकार के समर्पण का यह एक उदाहरण मात्र है। शिक्षा, चिकित्सा और सार्वजनिक परिवहन को बाजार के हवाले करने की सरकारी नीतियां तथा श्रम कानूनों में निरन्तर कारपोरेट हितैषी बदलाव ऐसे ही उदाहरणों की अगली कड़ियां हैं।

सरकारों के झुकने की या बाजार की शक्तियों के समक्ष उनके कमजोर होने की कोई सीमा नहीं, लेकिन, कामगार वर्ग के सब्र की एक सीमा है। उनका सब्र बना रहे और वे सामूहिक चेतना से संचालित न हो सकें, इसके लिये पूंजी की शक्तियां तमाम हथकंडे अपना रही हैं।

धार्मिक, जातीय और अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक विभाजनों को अप्रत्यक्ष तौर पर सतत प्रोत्साहन कामगार वर्ग की उसी सामूहिक चेतना को कुंद करने का प्रयास है जिसके उन्नयन में इन शोषक शक्तियों के लिये गम्भीर चुनौतियां निहित हैं।

फिलहाल तो ऐसे हथकंडे सफल भी हो रहे हैं। राष्ट्रवाद किसी राष्ट्र की सामूहिक चेतना के सकारात्मक उन्मेष का पर्याय नहीं बल्कि किसी विशिष्ट तरीके के ध्रुवीकरण और विभाजन का औजार बन कर हमारे सामने है, संस्कृतिवाद सांस्कृतिक पतन की गाथा लिखता नजर आ रहा है और किसी नकारात्मक संतुष्टि की भावना से परिचालित मनुष्य अपनी मनुष्यता खो रहा है। लेकिन, ये हथकंडे अनंत समय तक सफल होते नहीं रह सकते।

समय आने वाला है जब पूंजी की शक्तियां और मेहनतकश जमात आमने-सामने होंगी और सरकारें मध्यस्थ बनने को विवश होंगी। प्रतिरोध की सुगबुगाहटें बढ़ रही हैं। कामगार जमात की क्रय शक्ति में अपेक्षा के अनुरूप वृद्धि न होने से भारत सहित दुनिया भर के बाजार संकट में हैं।

दरअसल, बाजार में मांग के इस संकट में ही मुक्त आर्थिकी के अपने विरोधाभास भी निहित हैं।
इन विरोधाभासों पर निर्णायक प्रहार कामगार वर्ग ही करेगा जिसका असंतोष निरन्तर बढ़ रहा है और अब अनेक स्तरों पर नजर भी आने लगा है। इसमें वर्षों लग सकते हैं, दशकों भी लग सकते हैं।

लेकिन, इतना तय है कि शोषण और छल-छद्म आधारित बाजार की अमानवीय शक्तियां अपनी मर्जी से आने वाले समय का संसार नहीं रच पाएंगी क्योंकि उन्हें हर हाल में पराजित होना है। नए संसार को तो मनुष्य ही रचेंगे, बाजार नहीं।

लेखक पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय में एसोशिएट प्रोफेसर हैं।

 


Tags:

jairam-ramesh manipur-chief-minister-n-biren-singh isro-launches-spadex-mission union-carbide-garbadge

इस खबर को शेयर करें


Comments