राकेश दुबे।
राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) के अपर्याप्त बुनियादी ढांचे के कारण दीवालिया घोषित करने के कई मामले उलझ गये है। जिसकी वजह से मामला 180 दिन और कानून द्वारा निर्धारित 270 दिन की सीमा में कोई भी मामला निपट नहीं पाता है।
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के कहने पर पिछले साल अर्थात दिसंबर 2017 में बैंकर जिन 28 डिफॉल्टरों के खिलाफ दीवालिया अदालत में गए थे,उन्हें एक साल पूरा हो चुका है। इन मामलों के निपटान को तो भूल जाएं, बही तक तो सभी मामले एनसीएलटी ने स्वीकार नहीं किए हैं।
आरबीआई ने जून 2017 में 12 डिफॉल्टरों की सूची बनाई थी। रिजर्व बैंक चाहता था कि इन 12 डिफॉल्टरों के खिलाफ जल्द से जल्द दिवालिया प्रक्रिया शुरू हो। अगस्त,2017 में 28 डिफॉल्टरों की एक अन्य सूची जारी की गई। इन सूचियों में शामिल डिफॉल्टरों की सम्मिलित रूप से भारतीय बैंकिंग प्रणाली के 10 लाख करोड़ रुपये के फंसे हैं।
मजेदार बात यह है कि जो एक संशोधन के जरिये बैंक ही डिफॉल्टर से जुड़े लोगों को ऐसी संपत्तियों की बोली लगाने से रोकता है। इस कानून को दुरस्त बनाने की प्रक्रिया लंबे समय तक चलेगी।
जब डिफॉल्टर की पहचान हो जाती है तो ऋणदाताओं की समिति (सीओसी) मामले की देखभाल के लिए समाधान पेशेवर (आरपी) की नियुक्ति करती है। अगले चरण में सूचना पत्र तैयार किया जाता है और संभावित बोलीदाताओं से तथाकथित अभिरुचि पत्र आमंत्रित किए जाते हैं। बोलीदाताओं की पात्रता जांचने और बोलियो का मूल्यांकन करने के बाद ऋणदाताओं की समिति एनसीएलटी जाती है।
आम तौर पर ऋणदाताओं की समिति परिचालन ऋणदाताओं पर वित्तीय कर्जदाताओं के हितों को तरजीह देती है। परिचालन ऋणदाताओं में पूंजीगत वस्तुओं के आपूर्तिकर्ता,मूल उपकरण विनिर्माता, मरम्मत करने वाले वेंडर आदि शामिल होते हैं।
किसी कंपनी का परिसमापन होना ठीक है,लेकिन जब कंपनी को चालू हालत में बेचने की योजना बनाई जाती है और उसके संसाधनों का परिचालन जारी रहता है तो परिचालन ऋणदाताओं के हितों के बारे में भी विचार किया जाना चाहिए। अन्यथा संपत्तियां बेकार हो जाएंगी और बहुत से मामलों में ऐसा हो भी रहा है।
उच्चतम न्यायालय ने हाल ही दिए एक फैसले में आईबीसी की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा। परिचालन ऋणदाताओं ने आईबीसी की वैधता को चुनौती देते हुए याचिकाएं दाखिल की थीं। उन्होंने आरोप लगाया था कि परिचालन ऋणदाताओं के कुछ वर्गों के साथ भेदभाव किया जा रहा है। उनका कहना था कि कानून केवल वित्तीय ऋणदाताओं के हितों की सुरक्षा कर रहा है।
हालांकि भारतीय दिवालिया कानून ज्यादातर विकसित देशों की तुलना में ज्यादा जटिल है। लेकिन अमेरिका और कुछ अन्य देशों से इतर यहां कानून में संपत्तियों को सुरक्षित बनाए रखने की ज्यादा गुंजाइश नहीं है।
इसके अलावा समाधान पेशेवर को कोई सुरक्षा नहीं दी गई है। हाल में पुलिस ने उस समाधान पेशेवर के खिलाफ एफआईआर दर्ज की, जो पश्चिम बंगाल में एक कंपनी की दिवालिया प्रक्रिया को संभाल रहा था। इस कंपनी ने अपने कर्मचारियों की भविष्य निधि सरकारी प्राधिकरणों के पास जमा नहीं कराई थी।
आखिर में यह कोई नहीं जानता कि बिकने वाली संपत्ति की बोली प्रक्रिया कब खत्म होगी? क्योंकि बोली हारने वाले भी नए सिरे से बोली लगा सकते हैं और नए बोलीदाता बोली लगाने की दौड़ में शामिल हो सकते हैं।
बोली प्रक्रिया बंद करने के बाद नई बोलियों को मंजूरी देने से कीमत तय करने में मदद मिलती है, लेकिन इससे असामान्य देरी होती है और प्रक्रिया की शुचिता खत्म होती है। ऐसा लगता है कि न्यायपालिका जल्द समाधान के बजाय ज्यादा से ज्यादा कीमत के पक्ष में है।
किसी डिफॉल्टर को डीआरटी में घसीटने का पहला उदाहरण मार्डिया केमिकल्स लिमिटेड है। यह मामला इस बात का सबसे अच्छा उदाहरण है कि ऋणदाता कितने असहाय हैं। आईबीसी डिफॉल्टरों को डराने और बातचीत की मेज पर लाने के सबसे अच्छे औजार के रूप में उभर रही है।
जब तक आईबीसी कानून की खामियां दूर नहीं होंगी और डिफॉल्टरों के लिए सामान्य कानूनी रास्ता बंद नहीं होगा, तब तक ऋणदाताओं को मामले के समाधान के लिए लंबे समय तक इंतजार करना होगा।
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