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जीवन के अस्तित्व की लड़ाई हारता विश्व

खास खबर            Nov 14, 2022


 राकेश दुबे।

संयुक्त राष्ट्र महासचिव गुटेरेस ने विश्व को संजीदा चेतावनी दी है “हम अपने जीवन के अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं... और हम हार रहे हैं।”

यह चेतावनी उन्होंने कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीस (कॉप27 ) के 27 वे सम्मेलन में दी।

मिस्र के शरम-अल-शेख में यह आयोजन होने से अफ्रीकी देशों से काफी आस बंधी है कि अपना वचन निभाने की उनकी बारी है।

पिछला अर्थात  26 वां कॉप सम्मेलन अतीत बना, किंतु पर्यावरणीय बदलाव के रूप में पृथ्वी की मुख्य चुनौती जस की तस है अर्थात भावी मनहूस विफलता का संकेतक भी।

वैश्विक तापमान में वृद्धि 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड तक सीमित रखने के प्रयास, तो  अब साफ तौर पर हारी हुई लड़ाई है। ध्येय को लेकर प्रगति धीमी है।

क्या धरा के भावी पर्यावरणीय ह्रास की रोकथाम के प्रयास, अब तक की विफलताओं के बावजूद, असरअंदाज हैं भी कि नहीं?

एक बड़ा प्रश्न है,  शरम-अल-शेख में सौ से ज्यादा मुल्कों के नेताओं का इकट्ठा होना दर्शाता है कि विषय अभी भी महत्वपूर्ण है।

महासचिव गुटेरेस ने कहा, ‘समय निकलता जा रहा है, लेकिन लगता नहीं हम वक्त रहते इंतजाम कर रहे हैं।’

यूके के प्रधानमंत्री सुनक को अपना निर्णय बदलने को मना लेना, एक सकारात्मक पहलू रहा।

देखने वाली बात है कि विश्व के तीन सबसे ज्यादा आबादी वाले देश– चीन, भारत और इंडोनेशिया– जो कि दक्षिणी दुनिया के अग्रणी देश भी हैं, शिखर स्तर पर उनका प्रतिनिधित्व नदारद है।

बड़ी बात है कि जी-20 की कार्यसूची में पर्यावरण का मुद्दा महत्वपूर्ण है और इंडोनेशिया वर्तमान तो भारत अगला अध्यक्ष है।

चीन, भारत और इंडोनेशिया के बिना, पर्यावरण कार्यसूची में आगे की उपलब्धियां पाना मुश्किल है।

कॉप-27  में कार्बन उत्सर्जन रोधी तकनीक रूपांतरण पर जोर देना एक महत्वपूर्ण बिंदु है।

विकसित देशों के ध्यान का केंद्र ज्यादातर कार्बन-निरस्तीकरण और इसको कम करने वाले उपायों को धन मुहैया करवाने पर रहा है। तकनीक रूपांतरण के लिए धन की कमी है।

चूंकि पर्यावरण बदलाव का असर समूची दुनिया में अब पहले से ज्यादा बाढ़, तूफान, बवंडर और सूखे के रूप में देखने को मिल रहा है।

ऐसे में मौसम में बदलावों का सामना करने को हमें अधिक लचीली वैश्विक व्यवस्था बनाने की जरूरत है। इसके लिए, रूपांतरण की भूमिका बहुत महती है।

पर्यावरण में पहले से मौजूद विशाल मात्रा में कार्बन की उपस्थिति को घटाने की जरूरत है।

मौजूदा कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण, रूपांतरण के लिए सहायता और आगे के मौसमीय बदलावों को कम करने के संयुक्त उपाय करने होंगे।

आज जिस रवैये की बात की जा रही है वह ‘यह तमाम उपाय अपनाने’ वाला है जबकि आलोचकों का कहना है कि अब तक हमारा तौर-तरीका ‘इनमें एक भी नहीं’ वाला रहा है।

अब लड़ाई केवल न्याय और अन्याय के बीच नहीं रही क्योंकि विकसित और विकासशील देश उस मुहाने पर आन पहुंचे हैं जहां उन्हें तय करना है कि जिम्मेवारी में फर्क कैसे किया जाए।

इस बारे में, भारत की प्रतिबद्धता एक दशक पहले वाली स्थिति से अधिक है चाहे यह कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के लिए तकनीक रूपांतरण हो या कमी लाना।

2015 के कॉप सम्मेलन में विकसित देशों द्वारा विकासशील मुल्कों को नए फंड और सालाना अतिरिक्त 100  बिलियन डॉलर अनुदान देने की प्रतिबद्धता हकीकत में फलीभूत होना बाकी है।

विकासशील देशों को तयशुदा स्तर पर पहुंचाने के प्रयास नाकाफी और प्रतीकात्मक ही रहे और अभी भी यही चल रहा है।

वैकल्पिक अनुदान, चाहे प्रभाव संबंधी निवेश हो या सार्वजनिक-निजी भागीदारी किस्म का, इस पर अमल की जरूरत है।

जिससे पर्यावरण बचाव उपायों के लिए सालाना 1  ट्रिलियन डॉलर जुटाने का ध्येय पूरा हो सके। पर्यावरण निवेश के लिए भारत ने नया संयुक्त परिमाणित कोष ध्येय प्रस्तावित किया है (जिसके लिए 2015  के सम्मेलन में वादा किया गया था)।

भारत ने रेखांकित किया कि वह उन गिने-चुने राष्ट्रों में है जिन्होंने उक्त ध्येय पूरा किया है।

 पर्यावरण बदलाव असर पर ‘वारसा इंटरनेशनल मेकेनिज्म फॉर लॉस एंड डैमेज’ निर्णय को अपनाने का आह्वान किया गया।

कॉप सम्मेलन में क्रियान्वयन संबंधी विज्ञान एवं तकनीकी सलाहकार उपसमिति की रिपोर्टों में दी गई सलाहों का बेहतर संज्ञान लेने और अमल में लाने का आह्वान किया गया है। वैज्ञानिक सुबूतों के आधार पर मौसम पर हुए असर वाली रिपोर्टों को लेकर लोगों-कार्यकर्ताओं की मुखरता दिनो-दिन बढ़ती जा रही है।

इनकी सत्यता को लेकर शक अब नहीं रहे। विवाद अब इस पर है कि अतिरिक्त धन जुटाने की प्रतिबद्धता कैसे पूरी हो पाए और इसके लिए सालाना 1  ट्रिलियन डॉलर (अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष का अनुमान 2.5 ट्रिलियन डॉलर है) कोष कैसे संभव किया जाए।

इसीलिए वर्ष 2030  तक पर्यावरणीय बदलावों के कारकों पर नियंत्रण और टिकाऊ विकास ध्येय पाने का लक्ष्य पूरा नहीं हो पा रहा।

फिलहाल, खुद विकसित मुल्कों को आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।

मंदी की आहट, ऊर्जा और भोजन की बढ़ी लागत, जीवनयापन और स्वास्थ्य सुविधाओं की महंगाई से जूझते लोग, कोविड महामारी और यूक्रेन युद्ध और अर्थव्यवस्था में गिरावट का परिणाम है।

इन सबके बीच, विकसित देश पर्यावरण बचाओ अभियान में निवेश का अपना वादा किस हद तक पूरा कर पाएंगे?

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और प्रतिदिन के संपादक हैं।

 



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