रजनीश जैन।
सागर। संतोष साहू-असलम शेरखां संवाद सागर के आधुनिक राजनैतिक इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। इस घटना का फलित यह था कि वरिष्ठ कांग्रेस नेता संतोष साहू ने एक सैकेंड में कांग्रेस छोड़ दी थी। 2009 के लोकसभा चुनाव में प्रत्याशी के रूप में कांग्रेस ने संतोष साहू के बजाए ओलंपियन हाकी प्लेयर असलम शेरखां को सागर सीट के लिए चुना था। संतोष साहू को इसका क्षोभ तो था पर एतराज नहीं था। पहली बार सागर आने पर असलम अपनी अकड़ में थे। अनुभवी नेताओं ने उन्हें सलाह दी कि सबसे जाकर टिकट के प्रतिद्वंद्वी संतोष साहू के पास सौजन्य भेंट के लिए जाऐं।
असलम अपनी हेकड़ी दिखाते हुए बेमन से साहू जी से मिलने पहुंचे। साहू जी ने उनका स्वागत किया और शुभकामनाएं दीं। लेकिन असलम ने इसबार अपने ही पोस्ट में गोल ठोक लिया। कहा ऐसा है साहू जी टिकट की दौड़ में आपका नाम ऊपर था ही नहीं, जिन नेताओं के सहारे आप दौड़ भाग कर रहे थे दस जनपथ में उनकी कोई बखत ही नहीं है।' संतोष साहू ने जबाब दिया कि ' प्रदेश में मेरे नेता दिग्विजय सिंह हैं,आपने अच्छा बता दिया कि मेरे नेता की कोई बखत वहां नहीं है। अब मेरा पार्टी में रहने का मतलब ही क्या है?इसी क्षण से कांग्रेस छोड़ रहा हूं। यह सुनते ही स्थानीय कांग्रेसियों में सनाका छा गया। कुछ ने मनाने की कोशिश की लेकिन वे भी समझ गये कि असलम के चुनाव का रिजल्ट आ चुका है।...भीषण पराजय।
इस घटनाक्रम की खबर जब शहर में पहुँची तो हालत यह थी कि असलम को अपना चुनाव कार्यालय बनाने के लिए एक होटल ढूंढना पड़ा। भाजपायी खेमे में जो हुआ उसे कह सकते हैं कि 'संतोष की लहर फैल गई।' जल्द ही साहू को भाजपा में शामिल कर लिया गया।...इस तरह बंडा की टिपिकल विधानसभा सीट दो बार कांग्रेस की झोली में डालने वाले एक कद्दावर नेता से कांग्रेस ने हाथ धो लिए।
अतीत की यह खिड़की इसलिए खोली ताकि समझा जा सके कि सुरखी की विधायक पारुल साहू इन्ही संतोष साहू की बेटी है जिसने बीते विस चुनाव में गोविंद सिंह राजपूत जैसे साधन संपन्न और ताकतवर नेता को रण में ढेर कर दिया। राजपूत ने भी आकलन करने में भूल की थी और पारुल को भाजपा का टिकट मिलते ही जीत का जश्न मना लिया था। बाद में अपनी हार की समीक्षा में बड़े बड़े राजनैतिक पंडितों से पोथीपत्रा दिखाया। बताई गई सीखों को गांठ में बांधने का ढोंग किया। अगले चुनाव की शुरुआत ही ऐसी मूर्खता से कर दी कि अब मुंह छुपाते घूम रहे हैं।
गोविंद राजपूत के मीडिया सलाहकारों ने उनसे पहला ही स्टैप ऐसा उठवा दिया कि शक हो रहा है क्या वे पारुल के हित में काम कर रहे थे? चार साल पहले सियासत में आई एक युवा लड़की ने गोविंद की तीस साल की राजनीति को धूल चटा दी और खुद को बराबरी से स्थापित कर लिया।...मप्र की सड़कें अमेरिका से अच्छी बताने के खिलाफ प्रदर्शन को नाटकीय बनाने की भौंडी कोशिश में गोविंद राजपूत ने भी अपने ही गोलपोस्ट में गोल कर लिया है। हम कह सकते हैं कि गये थे गोविंद जी हरिभजन को और औंटन लगे कपास।
पहली गल्ती तो यह कि गढ्डे भरने के प्रदर्शन के लिए ऐसी सड़क का चयन किया जो पांच साल पहले खुद की ही कंस्ट्रक्शन कंपनी ने पेटी कांट्रैक्ट लेकर बनाई। ...शायद उन्हें आशंका थी कि इस सड़क को पारुल उनके खिलाफ मुद्दे के रूप में इस्तेमाल कर सकती हैं सो लगे हाथ क्यों न यह मुद्दा ही हाईजेक कर लिया जाए।
प्रदर्शन के प्रचार की हड़बड़ी इतनी थी कि एक पत्रकार की यह सलाह मान ली कि अलग हट कर कुछ बोलो तो खबर उड़ कर चलेगी। तो सब तरह के मीडिया को साथ ले गये। सभाओं में ग्रामीणों से कहा देखो पूरे चैनल और पेपर वाले आए हैं बताओ इन सबको सड़क की का है तकलीफ। फिर भाषणों में तर्कों का एक काकटेल पेश कर दिया जिसमें सड़क, शराब, दारूवाली विधायक, जितनी पुरानी उतनी अच्छी, यानि सब तरह का मसाला मिला था।
उनके इस अजीब से तर्क से गांव वाले बात को समझने के बजाय और उलझन में पड़े कि नेताजी आखिर कहना क्या चाह रहे हैं। दरसल नेताजी तो सिर्फ खबर बनवाने आए थे, वे खुद नहीं चाह रहे थे कि जनता कुछ समझ पाए। जिनकी कंपनी ने खुद सड़क बनाई वह मेंटेनेंस से मुंह चुरा कर लप्पेबाजी करके विवाहित नेत्री के बाप के पुश्तैनी धंधे को स्टिगमा की तरह इस्तेमाल करके देहातियों में नीचा दिखाए तो इस किस दर्जे का कृत्य कहा जाएगा? मैं भी प्रत्यक्षदर्शी था। रास्ते में पत्रकारों से चर्चा करते हुए नेताजी आत्ममुग्ध थे। '...सिंधियाजी मुख्यमंत्री बन रय हैं और अपन गृहमंत्री,... फिर एक एक को हिसाब कर हैं बैठकें।' ऐसा आत्मविश्वास विरले ही नेताओं में दिखेगा।
बहरहाल पत्रकारों को लगातार पाँच सभाओं में ले जाकर उनकी उपस्थिति का माइक से उल्लेख कर प्रचार के लिए दोहन किया गया। पत्रकार फेडअप हो गये। जिसके मोबाइल कैमरे में "दारूवाली" विवाद का वीडियो था उसने चांप लिया।...सड़क वाला मुद्दा चुक गया तब नेताजी के बिगड़े बोल को उजागर कर दिया। तेजतर्रार महिला विधायक ने इसे फौरन लपक लिया।
उसके मशहूर पिता संतोष साहू इन दिनों अस्वस्थ हैं और सार्वजनिक जीवन से विरक्त हैं सो गोविंद जी अपने कृत्रिम जागीर के आर्टीफिशियल किले में बैठ कर अपनी मुरली से जैसी चाहे ताने छेड़ रहे हैं। सोचिए एक डान शराब के धंधे से राजनीति में स्थान बनाते हुए लोकतांत्रिक हो गया और एक नेता राजनीति से होता हुआ डानों की भाषा बोल रहा है। वक्त वक्त की बात है।
अपनी गलती पर एक साधारण मनुष्य की भांति खेद प्रकट करने के बजाए गोविंद राजपूत कह रहे हैं कि एक शराब व्यवसायी की बेटी को और क्या कहें?...छह महीने पहले बेड़िया समुदाय की नर्तकी का अतीत लेकर जनपद अध्यक्ष बनी क्रांतिबाई ने जब पारुल पर जाति और कर्म के आधार पर भेदभाव के आरोप लगाए थे तब गोविंद राजपूत चुप लगाए बैठे थे, उसकी मदद करना उनके जातिगत स्टेटस के खिलाफ था लेकिन अब बचाव में क्रांतिबाई सम्मान से याद करना पड़ रहा है। सड़क छोड़ कर मुद्दे को शराबबंदी की तरफ मोड़ने की जद्दोजहद करना पड़ रही है।
आखिर इस फिजूल विवाद में दोनों ने टीआरपी बटोरी है। नीतिगत मुद्दों और जनता की तकलीफों को मीडिया में जो स्पेस मिलना था वह पारुल और गोविंद की भेंट चढ़ गया है। सिलसिला अभी रुकेगा नहीं। ...लो जबाब दो पारुल के सीधे से सवाल का कि अगर मुझे बाप के व्यवसाय से दारूवाली कहते हो तो सोनिया गांधी के पिता के व्यवसाय से उन्हें भी संबोधित करने की हिम्मत कर पाओगे?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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