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शिव राज में प्रशासन के चौके-छक्के और संकल्प की दिग्विजयी मिसाल

खास खबर, राज्य            Feb 12, 2018


राघवेंद्र सिंह।
असल में इसकी मिसाल हम उनके ही विधानसभा क्षेत्र बुदनी से देना चाह रहे हैं। उनके गृहग्राम जैत के पास डोबी ग्राम पंचायत है। यहां के नौजवानों ने देवालय सामाजिक संगठन नाम से एक संस्था बनाई। दीवाली से पहले गठित युवाओं के इस संगठन ने सफाई अभियान से शुरूआत की और एक दिन पहले ही उसका एक पड़ाव मुख्यमंत्री निवास में एक समारोह के साथ संपन्न होता है। यह इत्तफाक है कि उस समारोह का सूत्रधार मैं खुद ही था।

लगभग ढाई साल से शिवराज और उनकी सरकार की इतनी समालोचना ना काहू से बैर में की गई कि सरकार के सगे कुछ लोग हमारे समालोचना पर यह भी कहते थे कि निंदा तो ठीक है कुछ प्रशंसा भी प्रकाशित हो जाए तो अच्छा है। संयोग देखिए उनके बालसखा रहे शिव चौबे ने भी जब बहुत संतुलित और सकुचाते हुए इसी किस्म का सुझाव दिया तब मैंने दो अफसरों की उपस्थिति में कहा मुझे तो कुछ अच्छा नजर नहीं आता अगर आप को कोई विषय तथ्यात्मक दिखे तो जरूर बताईए। निंदा रस हमारी न तो फितरत है और न ही पसंद।

मगर आज संयोग बना है तो हम जरूर उसे सउदाहरण पेश कर रहे हैं। देवालय संगठन के कामों से प्रभावित मुख्यमंत्री ने अपने जिले सीहोर के कलेक्टर तरुण और कमिश्नर भोपाल अजातशत्रु को देवालय के कामकाज को देखने डोबी भेजा। यहां खास बात ये है कि अफसर देवालय से और ग्रामीण इन लोप्रोफाइल अफसरों से प्रभावित हुए।

यह बारह साल के शिवराज सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में संभवत: पहला मौका होगा जब शिकायत और निवारण करने वाले दोनों ही एक दूसरे के मुरीद हो गए। कलेक्टर ने कहा सुलभ शौचालय के लिए ग्रामीणों की मांग को समझ लीजिए मैंने दो लाख रुपए की स्वीकृति दे दी। मौके पर मौजूद अफसरों की तरफ मुखातिब कलेक्टर ने कहा आप सिर्फ नोटशीट भेजिए और काम शुरू कराइए।

दूसरा मामला शिकायतों के रूप में कमिश्नर के सामने आता है तब वे उपस्थित एसडीएम,तहसीलदार और ब्लाक अफसर से कहते हैं आप यहीं कैंप करें और शिकायतों का निपटारा करके ही उठें। मतलब जिस दिन शिकायत और कुछ ही घंटों में मौके पर ही उनका निराकरण। इसे कहते हैं प्रशासन को गति देने के लिए गियर बदलने की कोशिश।

ग्रामीण कह रहे हैं ऐसे अफसर पहले कहां थे। कहां तो शिकायतों को टालने और उलझाने के लिए सरकारी नियम कानून इस्तेमाल होते थे और कहां अब सब कुछ तत्काल। है ना हर गेंद पर चौका और छक्का लगाने की कोशिश।

वैसे देवालय के बारे में कहने सुनने को अल्प समय में ही बहुत कुछ हो गया है। यह संगठन सफाई, पढ़ाई, पर्यावरण के लिए औषधि पौधे लगाना,पानी की बर्बादी रोकना,अतिक्रमण हटाना और आपसी भाईचारे के साथ ग्रामीण स्तर पर ही रोजगार पैदा करना अपना लक्ष्य बनाए हुए है। कुलमिलाकर गांव से शहरों की तरफ आ रही लोगों की बाढ़ रोकना इसका खास मकसद है।

गांव खाली हो रहे हैं और शहर जनसंख्या विस्फोट के शिकार हो रहे हैं। रहने को जगह नहीं है और सड़कों पर जाम लगे हुए हैं। ऐसे में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान देवालय से कहते हैं आप एक नई उम्मीद हो और मैं इसे मरने नहीं दूंगा। अब अधिकारी कहते हैं यह संगठन मध्यप्रदेश के गांवों के लिए टर्निंग प्वाइंट हो सकता है।

शनिवार की रात मुख्यमंत्री निवास में एक समारोह के दौरान जब अस्पताल,आईटीआई,सड़क निर्माण,वृक्षारोपण,स्कूलों की मरम्मत,स्ट्रीट लाईट,बेटियों के लिए अफोर्डेबल पेड,आवार मवेशियों के लिए गौशाला का निर्माण जैसी जरूरतों को मुख्यमंत्री ने एक झटके में स्वीकार कर लिया। खास बात ये है कि इसके लिए उन्होंने कहा कि उनके वचन के पक्के होने के साथ प्रशासन समय की पाबंदी का भी ख्याल रखे। अब यहीं से शुरू होती है चुनाव के पहले दस महीने में सरकार की बल्लेबाजी की कहानी।

मुख्यमंत्री निश्चित रूप से मंत्रियों,विधायकों और अफसरों की अपनी टीम को एक कप्तान के रूप में यही मैसेज दे रहे हैं कि ये दस ओवर हैं और जितने रन बनाओगे अगली सरकार बनाने के उतने ही करीब पहुंच जाओगे। सवाल यही है कि मंत्रियों के साथ विभाग में जो टीम है उसमें कितने अजातशत्रु और तरुण पिथोड़े हैं। सारा दारोमदार टीम पर ही है।

राजनीतिक पंडितों का यही मानना है अगर प्रशासन ने मुख्यमंत्री की मंशा के अनुरूप टापगियर डाला तो उम्मीदें मजबूत हो जाएंगी,वरना अभी तो यही कहा जा रहा है कि नौकरशाही का घोड़ा बेलगाम है।

हालांकि इस मामले में एक केन्द्रीय मंत्री का कहना है राजनीतिक क्षेत्र में मुख्यमंत्री जरूर महेन्द्र सिंह धोनी की तरह हैं मगर प्रशासन के क्षेत्र में वे नौकरशाही की निरंकुशता को जानते तो हैं लेकिन मानते नहीं हैं। जब तक वे मानेंगे नहीं तब तक सुधार के नतीजे नहीं आएंगे।

जुबान के पक्के और समय की पाबंदी सबके लिए
सियासत में सत्ता और विपक्ष दोनों में जुबान के पक्के और समय के पाबंद होना अब पहले से ज्यादा जरूरी हो गया है। कार्यकर्ता के साथ वादाखिलाफी कोई भी पार्टी करे चुनाव में उसका खामियाजा भुगतना पड़ता है।

इस मामले फिलवक्त दिग्विजय सिंह का जिक्र न करें तो नाइंसाफी होगी। 2003 में चुनाव हारने के बाद दस साल तक चुनाव नहीं लड़ने का ऐलान कर वे सियासत से स्वनिर्वासित हो गए थे। यूपीए सरकार में थी तब भी वे वचन के पक्के निकले और कोई चुनाव दस साल तक नहीं लड़ा। दूसरा उदाहरण नर्मदा यात्रा का है।

एक सामान्य परिक्रमावासी की तरह उनकी पैदल नर्मदा परिक्रमा अब अपने अंतिम चरण में है। तो कुलमिलाकर उन्हें लाख बंटाढार कहा जाए लेकिन राजनीति में जुबान का पक्का होने के दो कठिन मामले आए दिग्विजय सिंह उसमें खरे उतरते दिख रहे हैं। ये बात राजनीति क्षेत्र में काम करने वालों के लिए मिसाल भी है और सबक भी।
(लेखक आईएनडी 24 के समूह प्रबंध संपादक हैं)

 


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