हेमंत पाल।
इस बार शिवराज-सरकार के कामकाज से ज्यादा बड़ा चुनावी मुद्दा बनेगी 'नर्मदा नदी।' इस नदी से जुड़े कई मुद्दे विधानसभा चुनाव में सरकार को घेरेंगे।
'नर्मदा परिक्रमा' से फुरसत हुए कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह तो ख़म ठोंककर नर्मदा संरक्षण पर शिवराज-सरकार को कटघरे में खड़ा करने के लिए तैयार हैं, उन्होंने इसका इशारा भी कर दिया।
नर्मदा की रेत के अवैध उत्खनन, नर्मदा के किनारों पर पौधरोपण के अलावा नर्मदा के पानी पर गुजरात की हिस्सेदारी के भी इस बार राजनीतिक मुद्दा बनने के आसार प्रबल हैं। क्योंकि, नर्मदा पर बने सरदार सरोवर बांध पर गुजरात बहुत ज्यादा निर्भर है।
इस साल वहाँ हालात बदतर हैं। बांध में पानी इतना घट गया कि सूखे के हालात बन गए। जैसे-जैसे गर्मी बढ़ेगी, गुजरात में जलसंकट का खतरा भी बढ़ेगा। पिछले दिनों गुजरात विधानसभा में कांग्रेस ने आंकड़ों के साथ ही गुरात सरकार पर पानी के गलत प्रबंधन का आरोप लगाया था।
कांग्रेस नेता परेश धनानी ने कहा था कि विधानसभा चुनाव में पानी को बर्बाद किया गया। साबरमती नदी में सी-प्लेन उतारने के लिए बाँध से पानी छोड़ा गया और पानी बर्बाद किया गया। इस सी-प्लेन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उड़ान भरी थी।
गुजरात में नर्मदा का पानी घटने का संकेत यह है कि गुजरात सरकार ने उद्योगों को दो महीने पहले ही पानी देना बंद कर दिया। स्थानीय निकायों से भी पीने के पानी की व्यवस्था करने के लिए कहा गया है। गुजरात के किसानों को भी इस बार गर्मियों में बोवनी न करने की सलाह दी गई। नर्मदा के पानी पर आश्रित गुजरात के शहरों और गांवों को भी स्थानीय स्रोतों तलाशने के लिए कहा गया है।
पिछले साल मध्यप्रदेश में कम बरसात होने से गुजरात को सरदार सरोवर बांध से केवल 45 फीसदी पानी ही मिला! जबकि, मध्यप्रदेश सरकार पर ज्यादा पानी छोड़ने के लिए दबाव बढ़ रहा है। ये दबाव केंद्र से भी है, क्योंकि वहाँ मोदी की सरकार है और संभवतः राज्यपाल से भी जो गुजरात की मुख्यमंत्री रही हैं।
नर्मदा नदी के पानी के बँटवारे को लेकर मध्यप्रदेश और गुजरात आमने-सामने आ रहे हैं। गुजरात ने सूखाग्रस्त इलाके के लिए अधिक पानी के लिए केंद्र से गुहार लगाई। लेकिन, दोनों राज्यों में भाजपा की सरकार है, इसलिए इसपर खुला बवाल तो नहीं मचेगा। पर, ये तय है कि नरेंद्र मोदी का गृह राज्य होने से मध्यप्रदेश पर केंद्र का दबाव बढ़ सकता है।
राज्यपाल आनंदीबेन पटेल भी गुजरात से आई हैं, इसलिए उनका झुकाओ भी अपने राज्य की ही तरह होगा। ऐसी स्थिति में जो दबाव बनेगा, उससे मध्यप्रदेश सरकार को झुकना पड़ सकता है। फिलहाल तो मध्यप्रदेश ने नर्मदा का निर्धारित मात्रा से ज्यादा पानी छोड़ने से साफ़ इनकार कर दिया।
जबकि, गुजरात के भरूच इलाके में नर्मदा के सूखने से गुजरात सरकार ज्यादा परेशान है। इधर, मध्यप्रदेश के निमाड़ समेत कई इलाकों के हालात भी सूखे जैसे ही हैं। इसलिए नर्मदा के पानी की जरुरत गुजरात से ज्यादा मध्यप्रदेश को है, जहाँ नर्मदा बहती है।
गुजरात सरकार ने बीते दिसंबर में केंद्र के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को लिखा था कि मध्यप्रदेश को ज्यादा पानी छोड़ने के निर्देश दिए जाएँ। मार्च में भी गुजरात ने फिर इसी मामले में केंद्र को पत्र लिखा।
गुजरात सरकार ने केंद्र से ये भी कहा कि 'नर्मदा कंट्रोल अथॉरिटी' (एनसीए) से अधिक पानी छोड़ने को कहा जाए। मध्यप्रदेश ने जून-जुलाई के दौरान 5500 एमसीएम पानी गुजरात को देने का वादा किया था। जनवरी तक मध्यप्रदेश ने 5000 एमसीएम पानी की भरपाई कर दी।
लेकिन, गुजरात ने 800 एमसीएम पानी की मांग शुरू कर दी। जबकि, निमाड़ समेत मध्यप्रदेश का बड़ा हिस्सा इस समय जलसंकट से प्रभावित है।
विधानसभा चुनाव को देखते हुए मध्यप्रदेश सरकार ने ज्यादा पानी की मांग को फिलहाल तो नकार दिया।
मध्यप्रदेश में पिछले साल अपर्याप्त मानसून से इंदिरा सागर जलाशय में पानी की मात्रा पर भी प्रभाव पड़ा है। लेकिन, नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के मुताबिक दोनों राज्यों के बीच विवाद जैसी कोई स्थिति नहीं है।
इंदिरा सागर से फिलहाल रोज लगभग 14 एमसीएम पानी प्रदेश की विद्युत आवश्यकता और प्रदेश की सीमा में पेयजल, सिंचाई, निस्तार और पर्यावरणीय आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए छोड़ा जा रहा है।
गुजरात की जरूरतों की पूर्ति के लिए गुजरात को सरदार सरोवर जलाशय में संग्रहित पानी का उपयोग करने की अनुमति नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण की बैठक में दी जा चुकी है। इस नजरिए से तो दोनों राज्यों में नर्मदा के पानी को लेकर किसी भी प्रकार के मतभेद नहीं है। ले तो सरकारी पक्ष है।
वास्तविकता में नर्मदा के पानी को लेकर दोनों राज्यों में काफी खींचतान है। आश्वासन तो यहाँ तक दिया गया कि इंदिरा सागर से रोज छोड़े जा रहे पानी में से करीब 70% का उपयोग मध्यप्रदेश की सीमा में ही हो रहा है।
मध्यप्रदेश में भले ही नर्मदा नदी को जीवनदायनी माना और कहा जाता हो, लेकिन गुजरात में ये भावना कहीं ज्यादा प्रबल है। वहाँ नर्मदा को लेकर राजनीतिक सामंजस्य की मिसाल देने वाला प्रसंग है।
गुजरात में इस मुद्दे पर कोई राजनीति नहीं होती। जब भी नर्मदा के पानी का कोई मसला आता है, सभी पार्टियाँ एकजुट हो जाती है। इससे इतर मध्यप्रदेश में कांग्रेस के तीन सांसद को तो छोड़िए, भाजपा के सारे सांसद भी नर्मदा से जुड़े मुद्दे पर एक नहीं हो पाते।
मध्यप्रदेश सरकार ने नर्मदा नदी को लेकर पाखंड तो जमकर किया, पर पानी को लेकर सरकार की बेरुखी किसी से छुपी नहीं है। इसी का परिणाम था कि मध्यप्रदेश के हिस्से का पानी भी गुजरात बह गया।
गुजरात को दिए जाने वाले पानी पर नियंत्रण रखा जाए, इसके लिए मध्यप्रदेश ने 'नर्मदा बेसिन प्रोजेक्ट' कंपनी भी बनाई, पर इससे भी कोई फ़ायदा नहीं हुआ।
ऐसे माहौल में दिग्विजय सिंह की नर्मदा को चुनावी मुद्दा बनाने की रणनीति कामयाब होती दिख रही है। क्योंकि, राजनीति के फेर में नर्मदा नदी ऐसी फंसी है कि गुजरात के साथ मध्यप्रदेश में भी नदी का पानी सूखने लगा है।
गर्मी आने से पहले ही कई इलाकों में नदी से सूखी जमीन की कूबड़ निकल आई है। उधर, गुजरात में भी नर्मदा पर बना बाँध सरदार सरोवर भी बहुत ज्यादा खाली हो गया। बताया गया कि मुख्य जलाशय में जलस्तर महज 111 मीटर के आसपास है। जबकि, इसका न्यूनतम जलस्तर 110.7 मीटर होना चाहिए।
जानकारी के मुताबिक विधानसभा चुनाव के समय गुजरात में बांध से 12 मीटर अनावश्यक पानी बहा दिया गया! यही वजह है कि सरदार सरोवर बांध खाली हो गया। जब पिछला मानसून लौटा था, तब यहां बांध का जलस्तर 130.74 मीटर था।
दिसंबर तक जलस्तर 124 मीटर रह गया। ये जानते हुए भी गुजरात सरकार ने विधानसभा चुनाव के समय महज दो महीने में 12 मीटर पानी छोड़ दिया। आशय यह कि बांध में उपयोग के लिए अब मात्र एक मीटर पानी ही बचा है।
अब गुजरात के मुख्यमंत्री किसानों से अपील कर रहे हैं कि इस बार फसल न लें। क्योंकि, बाँध से पानी दिया जाना संभव नहीं है।
मध्यप्रदेश सरकार इस बात को स्वीकार करे या नहीं, पर गुजरात से मध्यप्रदेश पर इंदिरा सागर और ओंकारेश्वर बांध से पानी छोड़ने का दबाव तो बनने लगा है। लेकिन, कई जगह नर्मदा सूखने लगी, इसलिए मध्यप्रदेश के लिए आने वाले दिन मुश्किल भरे हैं।
जबकि, बारिश के मौसम को अभी दो महीने से ज्यादा का वक़्त है। पुनासा उद्वहन सिंचाई योजना से किसानों को 5 बार पानी दिया जाता था, इस बार तीन बार से ज्यादा पानी नहीं दिया सकेगा, इसके आसार नहीं हैं। इंदिरा सागर बांध का जलस्तर भी 250 मीटर के आसपास है, जबकि इसका न्यूनतम स्तर 247 मीटर निर्धारित है।
अब उपयोग के लिए बमुश्किल तीन मीटर पानी बाकी है। पहली बार है कि बांध में पानी का स्तर इतना घट गया। पानी कम होने से मछली उत्पादन भी घटकर आधा हो गया। ये नर्मदा के साथ की गई छेड़छाड़ का ही नतीजा है कि गुजरात के भुज में 30 किलोमीटर अंदर तक समुद्र घुस आया और वहाँ का पानी खारा हो गया।
यदि अभी ये हालात हैं तो आने वाले वक़्त में हालात और ज्यादा बुरे होंगे, ये तय है। क्योंकि, नर्मदा पर अभी कई बाँध बनना बाकी है। लक्ष्य के अनुसार मध्यप्रदेश को 2014 तक नर्मदा के 18.25 एमएएफ पानी का उपयोग करना है।
बचे सालों में पानी के इंतजाम के लिए 29 बांध बनाने थे। लेकिन, अभी भी 14 बाँध बनना बाकी हैं। जब ये बांध बनेंगे तो बरसों से बसे लोग ही नहीं विस्थापित होंगे, बल्कि लाखों पेड़ भी हमेशा के लिए पानी में समा जाएंगे। इस सबसे ज्यादा फायदा गुजरात को होगा, उससे कई गुना ज्यादा नुकसान मध्यप्रदेश को होगा।
गुजरात के ज्यादातर गाँवों में पीने का पानी मुहैया हो जाएगा। बांध से पैदा होने वाली बिजली में से भी 16% गुजरात के हिस्से में जाएगी।
स्पष्ट है कि गुजरात को फायदा होगा और मध्यप्रदेश को 877 मेगावॉट बिजली के अलावा और कुछ नहीं मिलेगा। नर्मदा परियोजना में मध्यप्रदेश के सूखाग्रस्त इलाकों की भी अनदेखी की गई है। पूरी नर्मदा परियोजना अपनी जमीन से विस्थापित होने की कीमत पर खड़ी हुई है।
प्रभावित होने वालों में अधिकांश छोटे किसान, आदिवासी, मछुआरे, खेतिहर मजदूर और कुम्हार हैं। इनकी सामाजिक और आर्थिक ताकत ऐसी नहीं है वे इस परियोजना का विरोध कर सकें और सरकार के खिलाफ आवाज उठाएं।
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