क्या लंदन और भारत के जानकार इन लोगों की पीड़ा जानते हैं
मीडिया
Jun 26, 2016
रवीश कुमार।
मित्रवर संपादक,
मुझे तीन महीने का अवकाश चाहिए। मैं ‘लीव’ शब्द का इस्तेमाल नहीं कर रहा हूँ। वरना आप समझने लगेंगे कि मैं फोबिया और झूठे प्रचारों के बहकावे में आ गया हूँ। जबसे ब्रिटेन में ‘लीव’ जीता है तब से ‘रीमेन’ वाले लोग ‘लीव’ वालों को भला बुरा कह रहे हैं। ‘लीव’ समर्थकों को कमअक्ल और बदअक्ल समझा जा रहा है। इसलिए मैंने अवकाश शब्द का प्रयोग किया है। ब्रिटेन ने यूरोपियन यूनियन से निकलने का फ़ैसला किया है उसे ब्रेक्ज़िट कहते है।
मैं क्यों तीन महीने का अवकाश चाहता हूँ? मैं कई दिनों से दुनिया को समझने का प्रयास कर रहा था कि पुराने मॉडल का हवाई जहाज़ लेकर नेता यहाँ वहाँ उड़ रहे हैं, कुछ हो नहीं रहा। उल्टा कई तरह के आर्थिक और कूटनीतिक क्लब बन गए हैं। अब ठेके लेने की होड़ में राष्ट्र प्रमुख भी इस तरह से शामिल होने लगे हैं कि मुझे आशंका है कि वे मुल्क के नाम में कंस्ट्रक्शन लिमिटेड न जोड़ लें। 2008 से इन नेताओं ने कितने तेल फूँक दिये, इसके चक्कर में टीवी के ज़रिये ख़ुद महान और विश्व नायक बन गए मगर आर्थिक हालात में सुधार नहीं हुआ। कोई इस आर्थिक व्यवस्था पर सवालिया निशान नहीं लगाना चाहता।
ख़ैर इस पत्र का मक़सद अवकाश माँगना है। अर्थव्यवस्था पर लेक्चर देकर नोबल पुरस्कार प्राप्त करना नहीं है। मेरठ मुज़फ़्फ़रनगर सोनीपत घूमते घूमते बीस साल गुज़र गए तो हिन्दी के इस पत्रकार को ग्लोबल नागरिक होने की ईच्छा जागृत हुई है। मैं अपने भीतर संचित उत्तर भारत के तमाम अनुभवों से मुक्त होना चाहता हूँ। कब तक हर चुनाव में एक ही बात जानूँगा और बताऊँगा। लगा कि नए नए विषयों और भूगोल की तरफ कदम बढ़ा कर देखें कि क्या वहाँ दुनिया कुछ अलग है। मुझे नई जानकारियाँ रोमांचित भी कर रही थीं। सब कुछ ठीक ठाक ही चल रहा था कि ब्रेक्ज़िट हो गया।
अब ब्रेक्ज़िट हो गया तो इसे लेकर इतने लेख छप रहे हैं कि सभी को पढ़ने के लिए लंबी छुट्टी चाहिए। पचीस पचास लेख पढ़ भी लिये हैं मगर हज़ार दो हज़ार पढ़ने बाकी हैं। इतने विश्लेषण छप रहे हैं कि छठ पूजा तक का वक्त लग जाएगा। ब्रेक्ज़िट से पहले जब लंदन की मीडिया में छपे लेखों को पढ़ा तो लगा कि उन्हें सब मालूम है। नतीजा आया तो वे खुद ही कह रहे हैं कि हमें मालूम नहीं है। सर्वे से समाज को समझने का अभियान बुरी तरह फ़ेल हुआ है। बहरहाल भाई लोगों ने इन लेखों को मेरे इनबाक्स में इस कदर ठेल दिया है कि पढ़ने में लंबा वक्त लगेगा।
जिस तरह से भारतीय मीडिया का गुरुत्वाकर्षण बल दिल्ली में होता है उसी तरह से ब्रिट मीडिया का लंदन में होता है। भारत से किसी ने वहाँ जाकर ब्रिटेन के बदलते समाज को समझने का प्रयास नहीं किया। ब्रिटेन वाले मीडिया ने भी नहीं किया। तरह तरह के मैप बनाकर नीले पीले डॉट से समुदायों को दिखाते रहे। लोगों से बात करने के बजाए सर्वे सर्वे खेलने लगे। भारत में लोग इंडिपेंटेंड,गार्डियन,डेली मेल, आब्ज़र्वर , टेलिग्राफ,न्यू यार्कर,आई टीवी, बीबीसी, सी एनएन के ज़रिये ब्रिटेन को दो दिन में समझ गए हैं और भारत के अखबारों में लेख लिखने लगे हैं। दो दिन से कोई भारतीय अखबार ही नहीं पढ़ रहा है !
जबकि ब्रेक्ज़िट होने से पहले किसी को पता नहीं था कि क्या होने वाला है। हो गया तो यहाँ वहाँ का मीडिया होने वालों के समर्थकों को ही गरिया रहा है। मीडिया किसके हित में नागरिकों के विरोध में खड़ा हो रहा है। बोलता क्यों नहीं कि चवालीस लाख रुपये का क़र्ज़ा लेकर कोई ग्रेजुएट बनेगा तो बाकी कई लोग ऐसे भी होंगे जो ग्रेजुएट नहीं बनेंगे। जब ग़रीबों को आक्सफोर्ड नहीं मिला तो वे क्यों कैंब्रीज की तरह बात करेंगे। बताओ न भाई कि वहाँ कम पढ़े लिखे लोग क्यों हैं ।लंदन का मीडिया कह रहा है कि लोग बहकावे में आ गए । अरे तो आप लोग क्या कर रहे थे? क्या आप राजनीतिक कारपोरेट और मीडिया के इस खेल पर लिख रहे थे जिसके खिलाफ वहाँ के लोग होते जा रहे थे। मीडिया का भी चरित्र कार्टेल क्लब की तरह होता जा रहा है।
दुनिया भर में जिस तरह से लिखने वाले सक्रिय हो गए हैं उसी तरह से सोशल मीडिया पर शेयर करने वाले सक्रिय हो गए हैं। कभी कोई गार्डियन का लेख ठेल दे रहा है तो कभी वॉक्स डॉट कॉम और मीडियम का। हम लोग वहाँ की मीडिया पर अपने यहाँ की मीडिया जितना ही भरोसा करते हैं। माडिया आँखें बंद कर लिखता है और हम लोग आँखें बंद कर पढ़ लेते हैं। बताइये सर वहाँ की मीडिया को पता ही नहीं चला कि ‘लीव’ जीतने वाला है। वो ‘रीमेन’ की उम्मीदें परोस रहा था। हम उस मीडिया के विश्लेषण को पढ़े जा रहे हैं। फिर यहाँ के अखबारों में लिखे जा रहे हैं।
अब सब पढ़कर लिखने लगे हैं कि मैं जिस ब्रिटेन में जागा हूँ वो वह ब्रिटेन नहीं जिसे मैं जानता था। जानने वालों ने समझा था कि नया जानने की ज़रूरत नहीं है। जिन दलों के बीच वे शटल कार्क बने हुए हैं उनकी करतूतों पर सवाल लगभग बंद हो गए हैं। राजनीतिक दल ‘कार्टेल’ का कॉकटेल पी रहे हैं। दुनिया भर में पंद्रह साल से अधिक उम्र के दलों की समाप्ति का समय आ गया है। इनमें कुछ बचा नहीं है। नया नेता और मज़बूत नेता के टटपुंजिया तर्क बेकार साबित हो रहे हैं।
जानकार कुलीनों की निष्ठा लोगों के प्रति कम इन दलों के प्रति ज़्यादा हो गई है। वहाँ के लोगों को कुतर्की और अंध राष्ट्रवादी बताने की जगह अमीर और ग़रीब कहा जाना चाहिए। भारत में भी जनता को गरियाने का चलन शुरू हुआ है। मोदी की जीत के बाद उदारवादी कुलीन जनता को गरियाने लगा। क्या रातों रात लोग दक्षिणपंथी हो जाते हैं ? दक्षिणपंथ ने भी उदारवादी कुलीन की तरह जनता को गरियाने वाल वर्ग पैदा किया है। इनकी पहचान भक्त रूप में की जाती है। बिहार चुनाव में बीजेपी की हार हुई तो मोदी समर्थक, भक्त और मीडिया हर घटना पर वहाँ की जनता को गरियाते हैं कि नीतीश लालू को वोट क्यों दिया। यह ख़तरनाक चलन है। जनता को गरियाने वाला यह तबक़ा उदारवादी और दक्षिणपंथी तबके में एक समान दिखता है।
कारपोरेट का विस्तार ग़लत नहीं है मगर जनता को बाज़ारवाद का पहाड़ा रटाकर इन्हें सब्सिडी देना कैसे ठीक है। भारत में लाखों करोड़ो का क़र्ज़ा कारपोरेट पचा गये और किसी को ग़ुस्सा तक नहीं आया। ट्वीटरविहीन भारतीय किसान आत्महत्या कर रहा है और सरकारी स्कूलों में स्थायी शिक्षक तक नहीं हैं। इसके बिना भी जीडीपी तरक़्क़ी कर रही है। चाटुकारिता चरम पर हैं। क्या ब्रिटेन का जनादेश उदारवादियों की इस जड़ता के ख़िलाफ़ नहीं है?
जो इस सिस्टम से बाहर है वो क्या करें। उसे सिस्टम ने क्या दिया कि खाने की मेज़ पर काँटा छुरी से ब्रेड और आम कतरे। क्या लंदन और भारत के जानकार इन लोगों की पीड़ा जानते हैं जो कपार धुन रहे हैं कि ये वो लंदन नहीं जिसे मैं जानता था। सोशल मीडिया का बोगस राष्ट्रवाद किसी मुल्क का आइना नहीं होता। एक्सपर्ट नहीं जानते होंगे उस लंदन को लेकिन लंदन का ग़रीब मज़दूर उनको जान गया होगा। बिना पेंशन और सस्ते अस्पताल के एक्सपर्ट जी सकते हैं, आम लोग कैसे जी लेंगे।ब्रिटेन के बुज़ुर्गों को गरियाया जा रहा है। युवाओं को नहीं दिख रहा लेकिन जिन्होंने ज़िंदगी गुज़ार ली उन्हें पता है कि युवा इस सत्य को उनकी उम्र तक पहुँचे बग़ैर नहीं देख सकता। भारत में सांसद,विधायक, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री तक को पेंशन है मगर कर्मचारी को नहीं। जिस दिन लोग समझेंगे उस दिन वे क्या करेंगे। एक्सपर्ट बता दें कि उन्हें क्या करना चाहिए।
इसिलए लंदन वाले जानकार सदमे में हैं। उन्हीं के जैसे भाई बंधु भारत में सदमे में हैं। जैसे किसी के नईहर में चोरी हो गई हो। सब सर्कस के मौत का कुआँ में बाइक गोगियां रहे थे। एक ही बात को कोई सर्वे में कह रहा था तो कोई डिबेट में। मध्यमवर्ग द्वारा ग़रीब लोगों को गरियाने का इतना बड़ा प्रोजेक्ट मैंने कभी नहीं देखा-सुना। इसलिए मैं सारे लेख पढ़ना चाहता हूँ। मुमकिन है तो मैं इसे भारत,अमरीका और ब्रिटेन जाकर वहाँ के समाजों को समझना चाहता हूँ।अगर बजट नहीं है तो कोई बात नहीं मैं गूगल इमेज से वहाँ के समाज को देख लूँगा। आप मेरे ‘लीव अप्लिकेशन’ पर विचार करें और अवकाश प्रदान करें।
आपका ‘रीमेन’
रवीश कुमार
कस्बा से साभार।
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