जनसत्ता ने 18 साल पुराना कॉलम किया बंद,स्तंभकार अशोक वाजपेयी ने लिखा संपादक को पत्र

मीडिया, वीथिका            Jan 29, 2016


हिंदी के प्रतिष्ठित दैनिक‘जनसत्ता’ में 18 सालों से नियमित प्रकाशित होने वाला स्तम्भ ‘कभी कभार’ बंद कर दिया गया। इससे अधिक समय से जनसत्ता में सिर्फ ‘देखी सुनी’ स्तम्भ का ही प्रकाशन हुआ है। इस सन्दर्भ में साहित्यकार अशोक वाजपेयी ने जनसत्ता संपादक को एक पत्र लिखा है, जो जानकीपुल डॉटकाम से जस का तस यहां प्रस्तुत है साथ में अशोक वाजपेयी का वह स्तंभ जो 17 जनवरी को प्रकाशित हुआ था kabhi-kabhar प्रिय श्री भारद्वाज, कल मुझे आपके सम्पादकीय सहयोगी डॉ. सूर्यनाथ सिंह का फोन पर यह सन्देश मिला कि आप ‘कभी कभार’ स्तम्भ स्थगित कर रहे हैं और इस बारे में मुझसे बात करेंगे। इस बारे में बात करने की कोई ख़ास जरुरत नहीं है। यह आपका सम्पादकीय फैसला है जिसका आपको पूरा अधिकार है। 1997 में तब के संपादक श्री अच्युतानंद मिश्र मेरे घर आये थे और उन्होंने जनसत्ता में नियमित रूप से लिखने का आग्रह किया था जिस कारण कभी कभार शुरू हुआ। उसके बाद के संपादक श्री ओम थानवी के इसरार पर मैं हाल तक लिखता रहा। इस वर्ष उसके अबाध गति से नियमित चलने के 18 वर्ष हो जाते। हिंदी में शायद ही किसी और स्तम्भ की आयु और निरंतरता इतनी लम्बी रही है। आप तीसरे संपादक हैं। आपने उसे समाप्त करने का फैसला किया है। जाहिर है तीनों ने ही अपने विवेक और स्वभाव के अनुरूप कार्य किया है। आप पर कोई राजनैतिक दबाव पड़ा होगा ऐसी अटकल अभी मैं नहीं लगाता। अपने फैसले की सूचना सीधे मुझे न देकर आपने अपने सहयोगी का सहारा लिया और अभी पिछले शनिवार को उन्हीं से मुझे यह फोन करवाया कि पिछले रविवार की क़िस्त नहीं मिली है। मैं जयपुर में था और इतनी शाम कुछ नहीं हो सकता था। मैंने चेक किया वह क़िस्त हस्बे-मामूल आपके दफ्तर के चौकीदार को मेरा ड्राइवर देकर आया था और उसकी पावती वहां के रजिस्टर में दर्ज है। सालों से यही प्रथा रही है और इसमें कभी कोई चूक या देर नहीं हुई है। वह क़िस्त नहीं छपी तो वह आपके फैसले का पूर्वरंग ही था। न छपने को लेकर मेरे पास सारे देश से बीसियों फोन आये। आपको यह स्वांग करने की कतई जरुरत नहीं थी। आप कुछ महीनों से संपादक हैं, मैं 75 वर्ष की आयु का हूं और आपके अखबार का सबसे पुराना- लम्बा 18 साल से अधिक वर्षों से स्तंभकार हूं। आपको मुझसे सीधे बात कर अपना फैसला बताने का सौजन्य बरतना चाहिए था। आप निश्चिन्त रहें: आपके चाहे अनुसार मैं आपके सम्मान्य अखबार में ‘कभी कभार’ स्तम्भ तत्काल समाप्त कर रहा हूं। पिछली क़िस्त जो आपके दफ्तर में कहीं पड़ी होगी मुझे वापस कर दें: मेरे पास उसकी प्रति नहीं है और आपके पास वह किसी काम की न होगी। उसको लेकर स्वांग तो हो ही चुका है। आपसे कभी भेंट नहीं हुई। आपने एक बार फोन पर अलबत्ता कहा था कि ‘आपके शब्द तो मोतियों जैसे टंके होते हैं और उसमें कटौती हम नहीं कर सकते। पर नए ले आउट के कारण जगह कम हो गई है और आप तीन के बजाय ढाई पृष्ठों में ही क़िस्त लिखें। मैंने उसके अनुसार कम लिखना शुरू किया। आपने उसमें, फिर भी, कुछ क़तर-ब्योंत करना शुरू किया। ‘जनसत्ता’ ने साफ़-सुथरी सटीक हिंदी भाषा की एक यशस्वी परम्परा बनाई थी। आपने उससे विरत होकर बाकी हिंदी अखबारों की खिचड़ी हिंदी का प्रयोग बढ़ाना शुरू कर दिया। ‘जनसत्ता’ हिंदी का सबसे बौद्धिक और सांस्कृतिक अखबार था। आपने उसकी इस छवि को भी व्यर्थ मानकर उसका रूप घटाना शुरू किया। लगता है सोचने-समझने वालों में उसकी अपठनीयता दिनोंदिन बढ़ रही है पर हो सकता है मैं यह सब अपनी कुन्दजह्नी, तंगदिली और कमनजरी में सोच-देख रहा हूं: आपके पास बेहतरी के आंकड़े होंगे। अंत में, मैं ‘जनसत्ता’ का बहुत आभारी हूं कि उसने मुझे लगातार हर सप्ताह कुछ लिखने-सोचने-समझने-बूझने की जगह इतने वर्ष दी। इस अनुभव और अभ्यास ने मेरे साहित्यिक और सार्वजनिक जीवन को समृद्ध बनाने में मदद की—सम्प्रेषणीयता और सुथरेपन के कई नए पक्ष मैं समझ-बरत सका। उसमें प्रकाशित सामग्री से अनेक पुस्तकें तैयार हुईं और जो अपने ढंग की अनूठी पुस्तकें मानी जाती हैं। ‘जनसत्ता’ और आपके पथ शुभ हों ऐसी स्वस्तिकामना करता हूं। अशोक वाजपेयी जानकीपुल डॉटकाम से साभार


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