ओम थानवी
नागालैंड के अखबारों को असम राइफल्स का हिदायतनामा अभिव्यक्ति की आजादी में सीधा दखल है। इस सेंसरशिप के विरोध में वहां के तीन प्रमुख अखबारों ने अपने सम्पादकीय नहीं लिखे, उस जगह को खाली छोड़ दिया। उनके प्रतिरोध का यह तरीका इमरजेंसी के प्रतिरोध की याद दिलाता है। असहिष्णुता "नहीं है-नहीं है" की झूठी रट में अपनी ऊर्जा गंवा कर और ज्यादा असहिष्णु हो रही सरकार को इस ओर सोचना चाहिए। अगर रक्षा मंत्रालय इस कार्रवाई में दिल्ली से शरीक नहीं है तो उसे पूर्वोत्तर कमान के प्रमुख को वह हिदायतनामा वापस लेने का आदेश देना चाहिए। अगर रक्षा मंत्रालय को अखबारों से गिला है तो उसे सूचना-प्रसारण मंत्रालय अर्थात प्रशासन के जरिए अखबारों के साथ स्वस्थ संवाद का रिश्ता कायम करना चाहिए, न कि तानाशाही का।
पंजाब में खालिस्तानी खून-खराबे के चरम दौर में मैं कई बरस चंडीगढ़ में था। आतंकवादियों ने लोकतंत्र के तीन खम्भों पर दबाव बना कर चौथे खम्भे को भी आँखें दिखाईं। ऑल इंडिया रेडियो के निदेशक श्री तालिब की हत्या से अखबार डर गए। आतंकवादियों ने मीडिया के लिए अपनी एक आचार संहिता जारी की जिसे भयाक्रांत मीडिया ने तुरंत अपना लिया, आतंकवादियों द्वारा सुझाई गई शब्दावली (कि उन्हें आगे आतंकवादी नहीं 'मिलिटैंट' लिखा जाय, भी मान ली गई) के अलावा उनके प्रेस नोट अविकल (शब्दशः) छपने लगे: एक प्रेस नोट अखबार के पूरे पन्ने से भी बड़ा था, जो इंडियन एक्सप्रेस, ट्रिब्यून, पंजाब केसरी आदि सब पंजाबी-अंगरेजी-हिंदी अखबारों में छपा (जनसत्ता में नहीं)। केंद्र शासित प्रशासन के होश उड़ गए। पर कोई सेंसरशिप वहां तब भी नहीं लागू की गई। संपादकों के साथ निरंतर संवाद स्थापित कर 'समस्या' को सुलझाया गया।
नागालैंड में पंजाब वाले हालात नहीं हैं। फिर भी, मीडिया को काबू करने का फौज का तरीका बेतुका है। इससे यह भी जाहिर होता है कि सिविल प्रशासन को फौजी कमान वहां किस कदर हाशिए पर रखती है।
लेखक जनसत्ता के पूर्व संपादक हैं और यह टिप्पणी उनके फेसबुक वॉल से ली गई है
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