यादों में राजेंद्र-2:जब स्टोरी पर प्रतिक्रिया के लिये किया एक सप्ताह इंतजार!

मीडिया, वीथिका            Aug 08, 2015


jayshankar-prasadजयशंकर गुप्त वरिष्ठ पत्रकार जयशंकर गुप्त ने कल पत्रकार एवं लोकतांत्रिक संपादक राजेंद्र माथुर के जन्मदिन पर संस्मरणात्मक टिप्पणी लिखी थी। श्री जयशंकर के स्वर्गीय राजेंद्र माथुर के साथ बिताये हुये पलों की अगली कडी आज मल्हार मीडिया के पाठकों के लिये हैं। ये संस्मरण न सिर्फ सामयिक हैं बल्कि आज की पत्रकार पीढी और पत्रकारिता के लिए आवश्यक और अनुकरणीय भी हो सकते हैं। मुझे तिथि और महीने का ठीक से याद नहीं। संभवतः 1990 के अंत अथवा 1991 के शुरुआती महीनों की बात होगी। हमारे हाथ एक ' 'एक्सक्लूसिव' स्टोरी लगी थी, दस्तावेजी सबूतों के साथ। भाजपा (उस समय जनता पार्टी) के नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने दिल्ली के बाराखम्बा रोड पर स्थित विजया बैंक में 35 लाख रु. जमा करवाए थे। हमने स्टोरी लिखकर कार्यकारी संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह को दिखाई। उन्होंने कहा स्टोरी अच्छी है लेकिन एक बार माथुर जी को भी दिखा दो। हम माथुर जी के पास गए स्टोरी लेकर। उन्होंने भी पूरी स्टोरी देखने के बाद कहा, ''जयशंकर स्टोरी बहुत अच्छी है लेकिन मेरी राय में तुम एक बार स्वामी से भी बात कर लो और उनसे पूछो कि यह पैसा किस तरह का है और कहां से आया है।'' मैंने बहुतेरी कोशिशें की लेकिन स्वामी जी न मिल रहे थे और न ही टेलीफोन पर ही उनसे बात हो पा रही थी। मैने माथुर जी को बता दिया। माथुर जी ने कहा कि स्वामी की सचिव को स्टोरी के बारे में बता दो और कहो कि उनकी प्रतिक्रिया चाहिए। मैंने वैसा ही किया। स्वामी जी की सचिव ने कहा वह नहीं मिल सकेंगे और ना ही उन्हें कुछ कहना है। आप चाहें तो स्टोरी छाप लें। मैंने आकर माथुर जी को बता दिया। माथुर जी ने कहा स्वामी के पास रजिस्टर्ड डाक से पत्र भेजकर स्टोरी पर प्रतिक्रिया मांगते हुए लिखो कि अगर एक सप्ताह के भीतर जवाब नहीं मिला तो स्टोरी प्रकाशित कर दी जाएगी। हमारे अंदर की कुढन समझी जा सकती है लेकिन भारी मन से हमने वैसा ही किया और रजिस्टर्ड पत्र का मजमून माथुर जी को भी दिखा दिया। स्वामी जी की प्रतिक्रिया न आनी थी ना आई। अलबत्ता वही स्टोरी अगले सप्ताह अंग्रेजी साप्ताहिक संडे में प्रकाशित हो गई। हम हाथ मलते रह गए। मायूसी के साथ हम माथुर जी से मिले और उन्हें संडे में छपी स्टोरी दिखाई। माथुर जी ने कहा, भई तुमने एक से एक स्टोरीज की है। और भी भविष्य में मौके मिलेंगे, निराश क्यों होते हो? सच बात तो यह है कि मुझे बहुत बुरा लगा था। हम वापस काम पर लौट आए। कुछ दिनों बाद एक और 'एक्सक्लूसिव स्टोरी' हाथ लगी। भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी पर दस्तावेजी सबूतों के साथ इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बिना पढाए न सिर्फ वेतन बल्कि प्रमोशन भी लेते रहने के आरोप थे। एक बार फिर उसी प्रक्रिया से गुजरना पडा। न जोशी जी मिले और ना ही उनकी प्रतिक्रिया। रजिस्टर्ड पत्र का भी कोई जवाब नहीँ। लेकिन इस बार हमारे सोर्स ने धैर्य नहीं खोया। स्टोरी कहीं और नहीं दी। हालांकि हम तो ऐसा मान बैठे थे कि इस स्टोरी का हस्र भी शायद स्वामी जी वाली स्टोरी जैसा ही होने वाला है। लेकिन सप्ताह भर बाद माथुर जी ने स्टोरी मांगी और उस पर खुद ही शीर्षक लगाकर मुखपृष्ठ पर बैनर खबर छापी- ' बिना पढाए वेतन ले रहे हैं मुरली मनोहर जोशी।' उस दिन मेरे मन के बदले भाव समझे जा सकते हैं। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होने वाली थी। जोशी जी ने बहुत बुरा माना और सीधे उस समय टाइम्स आफ इंडिया और नवभारत टाइम्स की प्रकाशक संस्था बेनेट कोलमैन के मालिक अशोक जैन जी से शिकायत की। अशोक जी ने माथुर जी और सुरेंद्र जी से बात की। दोनों ने कहा कि स्टोरी तथ्यों पर आधारित है और जोशी जी का पक्ष जानने के हर संभव प्रयास किए गए, रजिटर्ड पत्र के जरिए भी उनकी प्रतिक्रिया मांगी गई। उनका जवाब नहीं मिलने पर यह माना गया कि उन्हें कुछ नहीं कहना है। बाद में एक दिन माथुर जी ने बुलाया और पूरा वृतांत सुनाकर बोले कि बाबू तुम्हारी नौकरी आज सलामत है तो इसीलिए कि जोशी जी का पक्ष जानने के लिए तुमने हर संभव प्रयास किए। उन्हें अपना पक्ष रखने का भरपूर अवसर और समय दिया गया था। मैं माथुर जी के सामने नतमस्तक था। माथुर जी ने समझाया कि भई नौकरी जाने आने की बात नहीं भी हो, तो भी आप अपनी किसी स्टोरी से जिस किसी का हुलिया बदरंग करने जा रहे हो, उसका पक्ष तो जान ही लेना चाहिए और उसे इसके लिए पर्याप्त अवसर और समय भी दिया जाना चाहिए। इसके साथ ही माथुर जी ने स्वामी जी वाली स्टोरी के कहीं और छप जाने पर मेरे चेहरे की रंगत का जिक्र करते हुए कहा था, उस समय मेरे प्रति तुम्हारे मन के भाव को हमने पढ लिया था लेकिन सोचा कि बाद में तुम्हें इस बात का एहसास हो जाएगा कि वैसा करना क्यों जरूरी था। इसके बाद भी कुछ कहने को रह जाता है क्या? लेकिन इस वृतांत से यह समझने में आसानी हो सकती है कि राजेंद्र माथुर कितने महान और लोकतांत्रिक तथा जिम्मेदार संपादक थे और किस तरह उनकी और सुरेंद्र प्रताप सिंह की जोडी और और उनके द्वारा तैयार पत्रकारों और संवाददाताओं की टीम ने नवभारत टाइम्स को उसकी बुलंदियों तक पहुंचाया था। कुछ मित्र इसमें आत्मश्लाघा देख सकते हैं लेकिन मुझे इस बात का गर्व है और आजीवन रहेगा कि हमने भारतीय समकालीन पत्रकारिता की इस बेमिसाल जोडी के साथ काम किया, उनसे पत्रकारिता के उन उच्च आदर्शों और मानदंडों के बारे में सीखा जो आज भी हमारे लिए धरोहर हैं।


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