वेब की पहुंच उन्हीं तक जिनके पास इंटरनेट,पत्रकारिता कभी बिकाउ नहीं होती:गिरिजाशंकर
मीडिया, वीथिका
Dec 21, 2015
ममता यादव
वे 64 वर्ष की उम्र में भी सक्रिय हैं और सुबह चार बजे से उनकी दिनचर्या की शुरूआत हो जाती है। करीब 20 वर्ष तक एक संस्थान में नौकरी करने के बाद स्वतंत्र पत्रकारिता की राह चले तो पीछे पलटकर नहीं देखा। पत्रकारिता के क्षेत्र में करीब चार दशक से ज्यादा समय गुजार चुके वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक गिरिजाशंकर टीवी पर भी सक्रिय हैं और लेखन में भी। श्री गिरिजाशंकर से साक्षात्कार की पहली कड़ी में अविभाजित और विभाजित मध्यप्रदेश की राजनीतिक,सामजिक परिस्थितियों पर चर्चा हुई थी। दूसरी कड़ी में प्रस्तुत है उनके पत्रकारिय अनुभव और पत्रकारिय माहौल पर विचार:-
वेब पत्रकारिता
वेब पत्रकारिता में संभावनायें तो हैं लेकिन उसकी पहुंच एक खास वर्ग तक सीमित है। मतलब जो इंटरनेट मोबाइल का उपयोग कर रहा है यह उसी तक सीमित है। जो इनका उपयोग नहीं करता ये उनके लिये नहीं है। व्यक्तिगत रूप से मैं ई गर्वनेंस,ई बिजनेस ई मीडिया को लेकर बहुत उत्साहित नहीं रहता। क्योंकि समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग है जो शोषितों,वंचितों और हाशियों पर पड़े लोगों का वर्ग है जिन तक इसकी पहुंच नहीं है। हम किस ई दुनियां की बात करते हैं। वेब के जरिये हम एक अलग दुनियां बना रहे हैं।
सरकारी नौकरी छोड़ देशबंधु से पत्रकारिता की शुरूआत
सरकारी नौकरी छोड़कर देशबंधु से पत्रकारिता की शुरूआत करने वाले श्री शंकर ने अपने पुराने दिनों को याद करते हुये बताया कि इतना विरोध शहजादा सलीम का भी नहीं हुआ होगा जितना मेरा पत्रकारिता में आने को लेकर हुआ। विरोध इसलिये था कि जमी—जमाई सरकारी नौकरी छोड़कर प्राईवेट में क्यों जा रहे हो? श्री शंकर ने बताया कि देशबंधु उनके लिये परिवार जैसा रहा। करीब 20 साल देशबंधु को दिये श्री ललित सुरजन का सानिध्य रहा। लेकिन 1993—94 में जब नई पीढ़ी के लोग आने लगे तो लगा इनके साथ कितना निभेगा। इतने सालों की नौकरी में कभी आदत भी नहीं थी कि बायोडाटा या विजिटिंग कार्ड लेकर जायें सो स्वतंत्र पत्रकारिता की राह पकड़ ली।
स्वतंत्र पत्रकारिता में 22 साल
बतौर पत्रकार श्री शंकर की यह खासियत भी नये पत्रकारों के लिये प्रेरणा से कम नहीं कि 22 साल आप स्वतंत्र पत्रकारिता के बल पर दृढ़ता के साथ फील्ड में टिके रहें। 6 साल की उम्र में भी 18 घंटे काम करने वाले श्री शंकर का मानना है कि हम वेब पत्रकारिता,वेब गवर्नेंस वेब बिजनेस या सारे वेब के माध्यम से हम उस वर्ग को तो समृृद्ध कर रहे हैं जो इनका उपयोग कर रहा है उसको तो हम समृद्ध कर रहे हैं लेकिन जो इनका उपयोग नहीं कर रहा है उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
समाज और पत्रकारिता के बीच बनते गैप को कम करने की जरूरत
पत्रकारिता में करीब 4 दशक का समय और अविभाजित से विभाजित मध्यप्रदेश छत्तसीगढ़ का सफर देखने वाले श्री गिरिजाशंकर का मानना है कि सच्चाई,ईमानदारी,समर्पण निष्पक्षता ये सब किताबी बातें हैं। वे साफगोई से कहते हैं कि वास्तविक रूप में जो हमारी पत्रकारिता है और हमारे जो पत्रकार हैं वे आज के माहौल में बढ़िया काम कर रहे हैं। वे मेहनती हैं,निष्पक्ष हैं,ईमानदार हैं समर्पित भी हैं। कहीं न कहीं काम करने का जो वातावरण है काम करने की जो शैली है उसकी वजह से समाज और पत्रकारिता के बीच में कुछ गैप्स बन जाते हैं,तो उन गैप्स को भरने की जरूरत है। वे कहते हैं यदि मैं आपको निष्पक्ष नहीं लग रहा हूं मुझ पर आपको भरोसा नहीं है तो ये गैप है इस गैप को कम करने की जरूरत है।
आॅन द रिकार्ड आॅफ द रिकार्ड
हमारे समय की पत्रकारिता और पत्रकारों की बात करें तो उस समय नेता और अफसर आॅन द रिकार्ड कम बात करते थे आॅफ द रिकार्ड ज्यादा बात करते थे। यहां तक कि सरकारी योजनाओं के लिये पत्रकारों से मश्विरा करते थे और आज आॅफ द रिकार्ड बात करना गुनाह माना जाता है। राजनीति में पूरा बवाल जो मचा हुआ है आफ द रिकार्ड बात करने से मचा हुआ है।
सीमा रेखा तय होना जरूरी
दूसरी बात ये है कि राजनेताओं को,पत्रकारों को अफसरों को ये सोचना चाहिए कि ये सब एक दूसरे का उपयोग करते हैं, अपनी राजनीति के लिये अपनी पत्रकारिता के लिये, लेकिन यहीं पर कहीं एक सीमा रेखा भी तय होना चाहिए। जाहिर है मुझे खबर निकालना है तो मैं राजनेता का,अफसर का उपयोग करूंगा गलत नहीं है। राजनेता को अपनी राजनीति करनी है तो वो पत्रकार का उपयोग करेगा इसमें गलत क्या है? यहीं पर सीमा रेखा की जरूरत है जहां पर ये परस्पर उपयोग समाज के किसी बड़े वर्ग को प्रभावित करने वाला न हो।
चार दशक पहले और अब पत्रकारिय माहौल
चार दशक पहले और अब के पत्रकारिय माहौल में फर्क के बारे में श्री शंकर कहते हैं कि तब आज की तरह भागमभाग नहीं थी और पत्रकार बायफोर्स इस प्रोफेशन में नहीं आते थे। तब स्पेस की भी इतनी मारामारी नहीं थी,मीटिंग्स नहीं होती थी,बीट भी नहीं होती थी। रिपोर्टर अपने हिसाब से प्लान कर लेता था। स्टोरी करने के लिये दो दोस्त ढूढ़ने होते थे एक जिसके पास मोटर साईकिल हो और दूसरा जिसके पास कैमरा हो। क्योंकि अखबार के पास इतने साधन नहीं होते थे। आजादी थी और ऐसा भी नहीं था कि सरकारों के खिलाफ नहीं लिखना। अब इसमें लोग प्रोफेशनली बायफोर्स आते हैं। पहले किसी को बताओ पत्रकार बनना है तो सामने वाले की प्रतिक्रिया कठोर होती थी अब तो क्रेज बहुत है। अब पत्रकारिता पेट पालने का जरिया है।
तब पत्रकार बनना बहुत मुश्किल था। संपादक के चार—छह महीने चक्कर काटने पड़ते थे जब उनको लगता था कि हां लड़के में स्पार्क है तो मौका मिल पाता था। तनख्वाह कोई 300—400 रुपये होती थी। जब मैंने देशबंधु की नौकरी छोड़ी तो मेरी तनख्वाह आठ सौ रुपये थी।
पत्रकारिता में आ रही विसंगतियों पर श्री शंकर कहते हैं कि जो पत्रकार अब फील्ड में आ रहे हैं पूरी समाज की राजनीति की या अन्य पहलुओं की पूरी जानकारी न होने के कारण वैचारिक तौर पर उतने समृद्ध नहीं हैं। मेहनत कर रहे हैं प्रतिभा भी खूब है लेकिन कहीं न कहीं ये सारी कमियां दिखाई देती हैं।
पत्रकारिता बिकाउ नहीं है
पत्रकारिता के बिकाउ होने की बात पर वे कहते हैं पत्रकारिता बिकाउ नहीं है पत्रकार कभी नहीं बिकता जब 300 रूपये तनख्वाह मिलती थी पत्रकार तब नहीं बिका तो अब तो 3 लाख रूपये तक मिलते हैं, फिर बिकने का सवाल कहां से आता है?
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