सनसनी और उन्माद बेचता मीडिया ज़रूरत से ज़्यादा ग़ुलाम है या आजाद?
मीडिया
Aug 18, 2015
अभिरंजन कुमार
हर पल सनसनी और उन्माद बेचता मीडिया ग़ुलाम है या ज़रूरत से ज़्यादा स्वतंत्र? एक चैनल ने "ख़ुलासा" किया है कि लोग आतंकवादियों को अधिक, शहीदों को कम जानते हैं। सवाल है कि जब आप दिन रात आतंकवादियों और अपराधियों की कहानियां दिखाएंगे, तो जनता किसे जानेगी? इसी तरह 15 अगस्त और 26 जनवरी पर सभी चैनलों के बीच एक होड़-सी लग जाती है कवि-सम्मेलन और सैनिकों के बीच कार्यक्रम कराने की। लेकिन इन सभी कार्यक्रमों का प्रधान स्वर होता है- पाकिस्तान को गरियाना और लड़वाने-कटवाने वाली कविताओं का पाठ कराना।
सतही मीडिया-संपादकों और 1000-2000 रुपये के लिए तुकबंदी करने वाले फूहड़ कवियों को क्या पता कि देशभक्ति फ़ौज को लड़ने-मरने के लिए प्रेरित करते रहना और पड़ोसी देश को गरियाते रहना भर ही नहीं होती। भारत क्या इतना पूर्वाग्रही और बंद दिमाग वाला देश है, जिसपर चौबीसों घंटे सिर्फ़ एक पड़ोसी देश ही हावी रहता है? मेरी राय में यह उन्माद फ़ैलाने वाली पथभ्रष्ट पत्रकारिता है, जिसका लोगों के दिल-दिमाग पर ख़तरनाक असर होता है।
राष्ट्रकवि दिनकर की अमर कृति "कुरुक्षेत्र" की शुरुआती पंक्तियां याद आती हैं-
"वह कौन रोता है वहां
इतिहास के अध्याय पर
जिसमें लिखा है नौजवानों के लहू का मोल है..."
और
"जो आप तो लड़ता नहीं
कटवा किशोरों को मगर
आश्वस्त होकर सोचता
शोणित बहा, लेकिन गई बच लाज सारे देश की!"
वे कौन लोग हैं, जो चौबीसों घंटे भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध-उन्माद बेचना चाहते हैं? वे कौन लोग हैं, जो हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच लगातार एक दीवार खड़ी किए रखना चाहते हैं? वे कौन लोग हैं, जो हिन्दू आवाज़ के नाम पर साक्षी महाराज, योगी आदित्यनाथ, साध्वी प्राची और प्रवीण तोगड़िया जैसे लोगों को और मुस्लिम आवाज़ के नाम पर असदुद्दीन ओवैसी और आज़म ख़ान जैसे लोगों को शह देते रहते हैं?
दंगाई प्रवृत्ति के इन लोगों के साथ कोई अदालत लगाता है, कोई प्रेस कांफ्रेंस करता है, कोई सीधी-टेढ़ी बात करता है। इन लोगों को इतना दिखाना क्यों ज़रूरी है? दंगाइयों का प्रत्यक्ष और परोक्ष महिमांडन करना क्या ज़िम्मेदार पत्रकारिता है? मुझे जानकारी मिली है कि इनमें कई लोग मीडिया मैनेजमेंट पर मोटा ख़र्च करते हैं। वे चाहते हैं कि उनकी उन्मादपूर्ण बातों के इर्द-गिर्द कॉन्ट्रोवर्सीज़ लगातार गरम रहें और हमारा आज़ाद राष्ट्रभक्त मीडिया यह काम बखूबी करता रहता है।
कभी-कभी मुझे लगता है कि मीडिया को इतनी भी आज़ादी नहीं होनी चाहिए। इतनी आज़ादी उसे ढीठ, निर्लज्ज और ग़ैर-ज़िम्मेदार बना रही है। अगर यकीन नहीं हो, तो एक उदाहरण से समझिए इसे। देश का एक बहुत बड़ा मीडिया ब्रांड न्यूज़ चैनल के लाइसेंस पर 24 घंटे में 12-14 घंटे लटकन बाबा, बादल वाले बाबा, लकी आंटी, लकी गर्ल, लकी अंकल और एस्ट्रो अंकल जैसे अंधविश्वास फैलाने वाले फूहड़ कार्यक्रम दिखाता है। उसे रोकने-टोकने वाला कोई नहीं। दूसरे प्रमुख मीडिया समूहों की तरह वह मीडिया समूह भी "सेल्फ-रेगुलेशन" का हिमायती है।
जिस फ्रॉड निर्मल बाबा के ख़िलाफ़ चैनलों ने दिन-रात ख़बरें दिखाई, उसी से पैसे खाकर आज भी उसके प्रोमोशनल कार्यक्रम दिखा रहे हैं। ये लोग "सुखविंदर कौर" को "सुखविंदर कौर" नहीं लिख-बोल सकते। ये उस फ्रॉड महिला को बार-बार "राधे मां" लिखेंगे और बोलेंगे। कोई फ्रॉड अपना नाम "भगवान राम" या "भगवान कृष्ण" रख लेगा, तो हमारा मीडिया उसे "भगवान राम" और "भगवान कृष्ण" ही कहेगा। कोई अपने को ब्रह्मा, विष्णु, महेश, ईसा, अल्लाह, कुछ भी घोषित कर दे, तो हमारा मीडिया उसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश, ईसा, अल्लाह ही कहेगा। ऐेसे विवेक पर घिन आती है!
पिछले दस-पंद्रह साल में जिन लोगों ने जितने सतही और फूहड़ कार्यक्रम बनाए, वे उतना आगे बढ़े। जिन लोगों ने जितनी "जिस्मपरोसी" की, उन्होंने सफलता के उतने झंडे गाड़े। जिन लोगों ने अपराध की ख़बरों को सनसनीखेज़ बनाकर दिखाया और मज़े लिये, वे दूरदर्शी समझे गए। एक चैनल ने एक "अपराधी-नुमा" एंकर क्या पेश किया, अन्य चैनलों में भी वैसे ही एंकर पेश करने की होड़ लग गई। बताया जाता है कि एक चैनल ने तो एक "शराबी" को ही ऐसे एक कार्यक्रम का एंकर बना डाला। ऐसे कार्यक्रमों की एंकरिंग के लिए ड्रामे का कोर्स करके निकले "ड्रामेबाज़" ढूंढ़े जाने लगे।
देशभक्ति को उन्माद फैलाने का नारा समझने वाले हमारे मीडिया में आज देश की ग्राउंड रियलिटी से जुड़ी रिपोर्ट्स नदारद हैं। दिन-रात बहस कराने में तल्लीन रहने वाले चैनलों पर बुनियादी मुद्दों पर बहसें गायब हैं। अगर कार्यक्रम का नाम "हल्ला बोल" या "धावा बोल" भी रख देंगे, तो चर्चा करेंगे किसी नेता के बयान पर। दो-दो कौड़ी के ज़मीन से कटे हुए नेता राष्ट्रीय चैनलों पर छाए रहते हैं।
फिल्म, सीरियल और क्रिकेट के सितारों का थूकना-खांसना भी बड़ी खबरें हैं। उनके ट्वीट्स को भी हमारा मीडिया इतना अधिक स्पेस देता है, जितना देश के अलग-अलग हिस्सों में बुनियादी सवालों को लेकर हो रहे आंदोलनों को भी नहीं देता। अनुपात-ज्ञान बुरी तरह गड़बड़ाया हुआ है। हर वक़्त चटखारा, कॉन्ट्रोवर्सी, सनसनी, उन्माद, ग्लैमर। ख़बरों की पूरी की पूरी समझ ही सड़ गई है। फॉर्मूला फिल्मों जैसे "फॉर्मूला चैनल" चल रहे हैं। उनपर "फॉर्मूला कन्टेन्ट" परोसा जा रहा है, जिसके बड़े हिस्से पर "पेड" होने का संदेह है।
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाले मीडिया का अगर यही हाल रहा तो ग़रीब और कमज़ोर लोगों की आवाज़ें इस देश में घुट-घुटकर मर जाएंगी। एक तरफ़ कुछ करप्ट कॉरपोरेट्स ने इसे अपने मुनाफे का माल बना लिया है, दूसरी तरफ़ सभी सरकारें इसे भ्रष्ट करने के लिए विज्ञापन के रूप में घूस और मोटा माल खिला रही हैं। इस विज्ञापन के एवज में सरकारें पॉजिटिव रिपोर्ट्स चाहती हैं। जनता की समस्याओं और परेशानियों से जुड़ी ज़मीनी ख़बरों को रोका जाता है।
ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि आज देश की अधिकांश सरकारें भ्रष्ट और बुनियादी तौर पर जन-विरोधी हैं। व्यक्तिवादी और तानाशाही प्रवृत्ति वाले नेताओं की पूरी फसल तैयार हो गई है। व्यवस्था में बैठे लोगों को अपनी सात पुश्तों के लिए दौलतें इकट्ठा करनी हैं, इसलिए ज़मीन पर उतना दिखाई नहीं देता, जितने की उम्मीद लोग लगाए बैठे हैं। और जब काम हो नहीं रहा, तो राजनीति कैसे चमके? इसलिए झूठा प्रचार ही एकमात्र विकल्प है। इसलिए वे लोगों के जीवन में आमूलचूल सुधार लाकर नहीं, बल्कि मीडिया मैनेजमेंट के सहारे अपनी छवि चमकाना चाहते हैं।
आप सहमत नहीं होंगे, लेकिन मेरी व्यक्तिगत राय यह है कि प्राइवेट मीडिया को सरकारी विज्ञापन बंद होना चाहिए। सरकारें सरकारी मीडिया को सशक्त बनाएं और अपने विज्ञापन वहीं दिखाएं। सरकारी विज्ञापन के लालच में कुकुरमुत्ते की तरह "कोठा-कल्चर" वाले मीडिया हाउसेज उगते जा रहे हैं, जो न तो जनता के प्रति प्रतिबद्ध हैं, न पत्रकारों के प्रति। जिन्हें पत्रकारिता के "प" से भी कोई लेना-देना नहीं, ऐसे लोग इन मीडिया हाउसेज को चला रहे हैं। यह अफ़सोसनाक और दुर्भाग्यपूर्ण है।
आख़िर में, एक सवाल छोड़ रहा हूं- आज जितनी ग़ैर-ज़िम्मेदारी हम मीडिया में देख रहे हैं, वह इसकी ज़रूरत से ज़्यादा आज़ादी है या फिर कोई ग़ुलामी है या शासकों की साज़िश? इसे जनता से काट दो और ग्लैमर व पावर की ऐसी अफ़ीम सुंघा दो कि इसके बिना वह बेचैन हो उठे। सोचिए कि आम जन से विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का कटाव तो बढ़ ही रहा है, अगर मीडिया भी कट गया, तो क्या होगा? जनता की आवाज़ें दब जाएंगी या फिर दबी हुई आवाज़ों का एक दिन भयानक विस्फोट होगा? जो भी होगा, दोनों ही परिस्थितियों में लोकतंत्र का नुकसान तय है।
भडास4मीडिया से साभार
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