राकेश दुबे।
भारत में मीडिया को लेकर जो बहस चल रही है, उसके मुख्य बिन्दुओं में टीवी पर होने वाली बहसें 'पक्षपाती', 'दुर्भावना से भरी' और 'एजेंडा चलित' हैं। जैसी राय उभर कर सामने आ रही है।
आज मीडिया भले ही तमाम रूपों में सूचनाओं और विचारों का प्रसार कर रहा है, लेकिन मौजूदा दौर में वर्चस्व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया यानी टीवी चैनलों का ही है।
आज पैमाना इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर उपस्थिति से तय हो रहा है। इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में मसाला पत्रकारिता अब चरम दौर में है।
इसके विपरीत समाज का बौद्धिक और संजीदा वर्ग इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से दूरी बनाकर रखने लगा है।
प्रश्न उस आम जनता का है इस दौर में वो क्या करे, जो अब भी मीडिया साक्षरता से दूर है?
आम जनता वितंडावादी दृश्यों को ही हकीकत मान लेती है। शायद यही कारण देश के सर्वोच्च न्यायाधीश तक को अब मीडिया पर टिप्पणी करनी पड़ी है।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कर्ताधर्ताओं को सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी को समझना चाहिए।
आमतौर पर, न्यायपालिका किसी मुद्दे पर सार्वजनिक विचार व्यक्त करने से बचती है, परन्तु जब वह खुलकर बोलने लगे, तो समझना चाहिए कि वह उस मुद्दे को लेकर क्या सोच रही है?
न्यायपालिका कुछ आगे करे, उससे पहले मीडिया को खुद अपने अंदर झांकने की कोशिश करनी चाहिए।
याद कीजिये , शुरुआती दौर में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने रिपोर्टिंग पर ज्यादा ध्यान दिया, उसके बाद के दिनों में रिपोर्टिंग पर होनेवाले भारी-भरकम खर्च मेंकटौती करते हुए इलेक्ट्रॉनिक चैनलों ने बहसों की शुरुआत हुई।
एंकर की भूमिका ऐसे रिंग मास्टर में तब्दील होती चली गयी, जिसका काम स्टूडियो या स्क्रीन पर उपस्थित दो-चार राजनीतिक बिल्लियों को लड़ाना मात्र हो गया।
राजनीतिक विषयों की चैनली बहसों और उसके संचालनकर्ताओं की कामयाबी, हंगामे की बुनियाद पर तय होने लगी|, यह दौर अब भी जारी है ।
विचित्र बात है कि इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के संपादकीय आका रहे लोग भी इसे अब गड़बड़ बताने से नहीं हिचक रहे।
जबकि, उनके हाथ में जब कमान थी तो टेलीविजन रेटिंग प्वॉइंट के बहाने टेलीविजन के स्क्रीन को गड़बड़ और भ्रष्ट बनाते वक्त अपनी सारी संपादकीय नैतिकता वे भूल गये थे।
देश के प्रधान न्यायाधीश का यह कहना कि मीडिया पर पक्षपात से भरी बहसें लोगों, व्यवस्था और जनतंत्र को नुकसान पहुंचा रही हैं, सत्य है ।
इसका समाज की व्यवस्था पर भी बुरा असर पड़ता है।
समाज का संजीदा तबका तो पहले से ही मान रहा था कि चैनलों की बहसों में गहराई नहीं होती, संचालन कर्ताओं को विषयों की गहरी जानकारी कम ही होती है।
न्यायमूर्ति रमन्ना का कहना है कि मीडिया में गलत जानकारी और एजेंडा पर आधारित बहसें, कंगारू अदालतों के समान हैं जो 'जनतंत्र को दो कदम पीछे' ले जा रही हैं।
इलेक्ट्रॉनिक वर्चस्व के दौर में भी एक बात सर्व स्वीकार्य है- “प्रिंट माध्यम इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों की तुलना में अब भी ज्यादा संजीदा और जवाबदेह है”।
चाहे समाचार हो या विचार, वह संतुलित रुख अख्तियार करने की कोशिश करता है।
यह अलग बात है, वहां भी संपादक नामक संस्था का निरंतर क्षरण हो रहा है।
प्रिंट माध्यम का जन्म गुलाम भारत में हुआ और उसका विकास स्वाधीनता आंदोलन के साथ हुआ है।
इस वजह से स्वाधीनता आंदोलन के दौरान हमारे समाज ने जिन जीवन मूल्यों को आत्मसात किया, उससे प्रिंट माध्यम अछूता नहीं है।
स्वाधीनता आंदोलन की कोख से उपजे प्रिंट माध्यम में इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों की तुलना में अब भी संजीदगी कहीं ज्यादा नजर आती है।
यह कहने से गुरेज नहीं है कि प्रिंट माध्यम ने घोषित-अघोषित तरीके से अपने दिशा-निर्देश तय कर रखे हैं और ये उसके कर्ताधर्ताओं के गुणसूत्र में बस गये हैं।
जिससे उनका अवचेतन लगातार सक्रिय रहता है। प्रिंट मीडिया में अभी भी कुछ हद तक जवाबदेही बाकी है।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कोई जवाबदेही नहीं है और सोशल मीडिया पर कुछ भी टिप्पणी करना सही नहीं है।
सोशल मीडिया तो ज्यादा बेलगाम और अशिष्ट होता जा रहा है।
फेक न्यूज, भ्रामक जानकारी के साथ ही तोड़े-मरोड़े तथ्यों को प्रस्तुत करने से ही सोशल मीडिया को नियंत्रित करने की मांग होती रही है।
सोशल मीडिया पर लगाम की किंचित कोशिशें भी हो रही हैं, लेकिन पारंपरिक मीडिया के विस्तार के तौर पर स्थापित इलेक्ट्रॉनिक माध्यम पर रोक लगाने की सीधी कोशिश के कोई प्रयास नहीं हो रहे।
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