नवीन रंगियाल।
फेसबुक और दूसरे सोशल मीडिया के ये तमाम इमोजी ज़िंदगी में हमारा कितना साथ देते हैं. हमारे सारे सुख-दुख को व्यक्त करने के लिए वक्त-बेवक्त तैयार खड़े रहते हैं.
यह तब और ज्यादा मुफीद नज़र आते हैं जब हम चुप रहना चाहते है और लिखित में कोई टिप्पणी दर्ज नहीं करना चाहते हैं. लव, लाइक, अचंभे, दुख और लाफ के भाव लिए ये चेहरों ने हमारा कितना काम आसान कर दिया.
कोई बात दिलचस्प लगती है तो तुरंत ही लाइक, जिस बात से कुछ लगाव सा महसूस हो तो उसके लिए प्यार का बटन दबा दो. कभी wow रिएक्ट कर के हैरान हो जाओ. दुख व्यक्त करने के लिए एक दुखी इमोजी हमारी सारी तकलीफ़ हर लेता है.
हमें न आंसू बहाने पड़ते हैं न कोई विलाप करना पड़ता है. एक क्लिक में हमने सारी तकलीफ़ बयां कर दी और ढांढस बंधा दिया. एक संपूर्ण मृत्यु के ऐवज में सारा दुख एक sad इमोजी में सिमटकर व्यक्त हो गया.
क्या यह कम दिलचस्प बात नहीं है कि बिना हंसे, बगैर रोए और बगैर आंसू बहाए हम बेहद आसानी से व्यक्त हो गए? लोगों के सुख दुख में शामिल हो गए!
क्या यह हो सकता है किसी मृत्यु की श्रद्धांजलि देते हुए हमने हंसते हुए sad रिएक्ट किया हो! संभव है किसी की खुशी जाहिर करने वाली पोस्ट पर बधाई देते हुए हम सबसे ज्यादा उदास रहे हों! कौन जाने? क्या सच है?
क्या यह मुमकिन है कि असल ज़िंदगी में भी हम इसी तत्परता के साथ एक भाव से दूसरे पर शिफ्ट हो सकते हैं? एक ही क्षण में हम दुख को स्किप कर सुख और बेतहाशा हंसने वाली अवस्था में उपस्थित हो जाते. क्या हम असल ज़िंदगी में भी इतनी ही आसानी से अपनी अनचाही दुश्वारियों से मुक्त हो सकते है? या अपने लिए सुख चुन सकते हैं?
निर्मल वर्मा ने कहा था - सुख कोई ऐसी जगह नहीं जिस पर उंगली रखकर कहा जा सके की यह सुख है. लेकिन यहां हम एक क्लिक में सुखी हो गए और अगले ही क्षण दुखी भी.
क्या हम यहां भी अपने किसी सुख या दुख पर उंगली रखकर उसे पहचान सकते हैं?
दुखद और हैरान करने वाली बात है कि जो ज़िंदगी हम जी रहे हैं उसमे ऐसा मुमकिन नहीं है. मैं अक्सर अपने आभासी मित्रों की पोस्ट को रिएक्ट करने से पहले कुछ क्षण ठहर जाता हूं - ठिठक जाता हूं और अपने भीतर देखता हूं, क्या मैं सच में उनके दुख से दुखी हुआ? क्या मैं सच में हैरान हुआ या उनकी खुशी से मुझे खुशी मिली?
हम खुश नहीं है, किंतु हमने खुशी ज़ाहिर की. हम दुखी नहीं थे, किंतु फिर भी हमने करुणा दिखाई. यह इस ज़िंदगी और इस समय का बहुत बड़ा ट्रैप है, जिसमे हम फंसते जा रहे हैं. यह हमे इतनी भी मोहलत नहीं दे रहा है की हम अपने इमोशन को वॉच कर के उन्हें पहचान सके. हम सभी एक बहुत खौफ़नाक मनोवैज्ञानिक गिरफ्त में हैं. क्या आपको भी ऐसा लगता है?
हम किन सुखों पर सुखी हैं? किन दुखों पर दुखी हैं? वो कौनसी ज़िंदगी है जिसे हम जी रहे हैं?
#औघटघाट
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं वेब दुनिया में असिस्टेंट एडीटर हैं, यह आलेख उनके फेसबुक पेज से लिया गया है।
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