ओम प्रकाश।
मेरे कई जानने वाले खेल पत्रकार चैनल और वेबसाइट के लिए मैच कवर करने जाते हैं. आपके भी कई परिचित स्पोर्ट्स जर्नलिस्ट होंगे जो चैनल और वेबसाइट के लिए मैच कवर करते होंगे.
अब थोड़ा रुकिए, अपने दिमाग पर जोर डालिए, याद कीजिए कि ऐसे कितने रिपोर्टर हैं जिन्हें आपने ग्राउंड्समैन से बात करते देखा और सुना है?
फिलहाल मुझे तो ऐसा करते कोई रिपोर्टर दिखाई नहीं देता.
अगर आपका संपर्क बेहतर है तो ग्राउंड्समैन से काफी जानकारी जुटाई जा सकती है.
जैसे घास को पानी कब दिया गया? घास कब काटी गई? जो घास छोड़ी गई उसकी लंबाई कितनी है? बाउंड्री के किनारे कितनी नमी है?
मैदान के किस तरफ का एरिया ज्यादा सूखा है किस तरफ का नम?
ग्राउंड के किस तरफ परछाई जल्दी आ जाती जिधर नमी के चलते गेंद की रफ्तार धीमी हो जाती है.
उस एरिया में गेंद कभी-कभी बाउंड्री से पहले अपने आप रुक जाती है.
ग्राउंड्समैन बड़े शातिर होते हैं. जिस तरह पिच क्यूरेटर अपनी होम टीम के पक्ष में पिच बनाते हैं.
ऐसे ही ग्राउंड्समैन विपक्षी टीम के उन खिलाड़ियों को ध्यान में रखते हुए जो एक साइड में ज्यादा स्ट्रोक लगाते हैं उधर की घास थोड़ी लंबी छोड़ देते हैं.
जबकि होम टीम के कुछ खिलाड़ियों के शॉट्स को ध्यान में रखते हुए उस साइड की घास को छोटा कर देते हैं.
ये एक तरह का माइंडगेम होता है. इसे आप तब पता लगा पाएंगे जब मैदान के चारों तरफ जाकर बारीकी से देखेंगे.
बात थोड़ा पुरानी है, इंग्लैंड के मशहूर क्रिकेट पत्रकार जॉन वुडकॉक (जो अब नहीं हैं) नागपुर मैच कवर करने आए थे।
उन्होंने द टाइम्स के लिए लंबे समय तक रिपोर्टिंग की, उसी मैच की कॉमेंट्री करने मेरे एक परिचित सर गए थे।
उन्होंने वुडकॉक को देखा और पहचान लिया।
पास जाकर बोले, "आप तो जॉन वुडकॉक हैं" उन्होंने कहा, "हां मैं वुडकॉक हूं। "
हमारे परिचित सर ने वुडकॉक से पूछा, "आप इतनी गंभीर मुद्रा में क्यों बैठे हैं?"
वुडकॉक ने जवाब देते हुए कहा, "मैं ये सोच रहा हूं कि कल अपने पाठकों के लिए ऐसा क्या लिखूं जिसे वे पढ़ना पसंद करेंगे?"
जरा सोचिए आज ऐसे कितने खेल पत्रकार होंगे जो वुडकॉक जैसा पाठकों के प्रति समर्पण लेकर मैदान पर जाते होंगे? शायद एक भी नहीं.
बीसीसीआई की तरफ से एक साल की मान्यता वाला पट्टा गले में डाल लेने से क्रिकेट रिपोर्टिंग नहीं हो जाती.
ग्राउंड पर जाकर आकाश चोपड़ा के साथ सोशल मीडिया पर सेल्फी शेयर कर देना क्रिकेट रिपोर्टिंग नहीं है.
ग्राउंड पर ऐसी दिलचस्प घटनाएं होती रहती हैं जिन्हें दर्जनों कैमरे भी कैप्चर नहीं कर पाते.
मैदान पर मौजूद होने के बावजूद अगर मैच कैमरे की नजर से देखते हैं तो आपकी स्टोरी में दम नहीं होगी.
अब ये मत कहना कि सिक्योरिटी बहुत टाइट रहती है.
ऐसा करना बहुत मुश्किल है, सब हो जाता है, बस संपर्क और समर्पण होना चाहिए.
मेरे सर तो सीरीज में अंपायरिंग करने वाले अंपायर के रूम में जाकर सूचनाएं ले आए हैं.
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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