Breaking News

आरोपों की आड़ में तथ्यपरक आलोचना न मरने पाए

मीडिया            Apr 09, 2022


राकेश दुबे।
आखिर भारत सरकार को सोशल मीडिया के उन संस्थानों पर कार्रवाई करना पड़ी, जो चेतावनी के बाद भी अपना रवैया बदलने को तैयार नहीं थे।

ऐसे संस्थानों को जब सत्ता-प्रतिपक्ष का घोषित-अघोषित समर्थन और संरक्षण मिल जाता है, तो ये समाचार- सूचना को छोड़ प्रपोगंडा का हथियार बन जाते हैं। इसका प्रभाव मीडिया के उस वर्ग पर बेवजह पड़ता है, जो सत्य के साथ खड़ा होता है।

सर्व विदित है कि आज साइबर की दुनिया में व्याप्त अराजकता संसार भर की सरकारों के लिए एक बड़ा सिरदर्द बन गया है।

ऐसे में, भारत सरकार के केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा लगभग 25 यू-ट्यूब चैनलों, ट्विटर-फेसबुक अकाउंट और न्यूज वेबसाइट के खिलाफ की गई कार्रवाई की महत्व समझा जा सकता है।

वैसे पाकिस्तानी प्रॉपगेंडा के खिलाफ तो लगातार कार्रवाइयां होती रही हैं, खासकर जम्मू-कश्मीर से जुड़े उसके दुष्प्रचार को लेकर माकूल जवाब भी दिए गये हैं।

लेकिन अब सरकार पहले से कही जा रही उस बात को मान रही है कि कुछ चैनलों और सोशल मीडिया अकाउंट से देश की सुरक्षा, विदेश नीति व नागरिक व्यवस्था के बारे में लगातार गलत सूचनाएं प्रचारित-प्रसारित की जा रही है, इसीलिए अब इनको ब्लॉक करने का आदेश जारी हुआ है।

निश्चित ही यह एक बड़ी कार्रवाई है, और इन मंचों का इस्तेमाल करने वालों में निश्चित ही एक सख्त संदेश गया होगा, मीडिया में काम करने वाले हर छोटे बड़े साथी को देशहित को सर्वोच्च प्राथमिकता देना चाहिए।

इसके साथ ही अभिव्यक्ति की आजादी की हर संभव स्थिति में रक्षा होनी चाहिए, अभिव्यक्ति की आज़ादी यदि एक श्रेष्ठ लोकतांत्रिक, मानवीय मूल्य है, तो देशहित सर्वोच्च प्राथमिकता।

सबको यह समझना चाहिए कि कोई भी सिद्धांत या मूल्य एकांगी नहीं होता, कुछ जिम्मेदारियां और कर्तव्य अनिवार्य तौर पर उससे जुडे़ होते हैं।

मुख्य धारा के मीडिया ने इनकी ही रोशनी में अपनी सीमाएं तय की हैं। दुर्भाग्य से सोशल मीडिया की कोई आचार संहिता अब तक तय नहीं हुई है।

साफ़ नजर आता है कि सोशल मीडिया के इस विस्फोटक दौर में यू-ट्यूब, फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम जैसे बड़े मंचों पर सूचना और मनोरंजन का एक घालमेल पैदा हो गया है, जिसमें पाठकों-दर्शकों का कुछ समय के लिए भ्रमित हो जाना अस्वाभाविक बात नहीं है, इसके परिणाम घातक भी है।

असामाजिक तत्व और नफरत की सियासत करने वाले संगठन इसी का फायदा उठाते हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि इन सोशल मीडिया मंचों का इस्तेमाल करने वालों में बहुत बड़ी संख्या ऐसे ‘यूजर्स’ की है, जो पढ़े-लिखे तो हैं, मगर साइबर नियम-कानूनों से अनभिज्ञ हैं और अनजाने मं∵ ऐसे समूहों के मददगार बन जाते हैं।

इन माध्यमों के मारक असर को देखते हुए ही सुरक्षा एजेंसियां अब उपद्रवग्रस्त इलाकों में सबसे पहले इंटरनेट सेवाओं को बाधित करने को मजबूर होती हैं। इसका खामियाजा पूरे समाज, सूबे और देश को भुगतना पड़ता है।

पड़ोसी देश श्रीलंका का प्रकरण इसका ताजा उदाहरण है, जहां कोलंबो से शुरू हुए सरकार विरोधी प्रदर्शन ने सोशल मीडिया के जरिये पूरे देश को अपनी चपेट में ले लिया और सच्ची-झूठी खबरों की बाढ़ ने इसे आपातकाल वाली स्थिति में पहुंचा दिया।

इसमें कोई शक नहीं है, कि इन सोशल मीडिया मंचों ने नागरिक संवाद व संपर्क के क्षेत्र में एक क्रांति पैदा की है।

इसके साथ ही ले यह भी उतना ही कटु सत्य है कि विकासशील देशों की चिंताओं और शिकायतों को लेकर ये उतनी ही लापरवाह हैं, क्योंकि इनका बिजनेस मॉडल कहीं न कहीं विवादों के अधिकाधिक दोहन पर निर्भर है।

ये कंपनियां इससे बेशुमार दौलत कमाती हैं और इसीलिए इनका निगरानी तंत्र सामाजिक समरसता के बिगड़ने संबंधी शिकायतों के मामले में भी उदासीन बना रहता है। ऐसे में, सरकार को काफी संजीदगी के साथ कदम उठाना पड़ेगा।

कुछ भी करने के साथ यह ध्यान रखना होगा कि सोशल मीडिया के निगरानी तंत्र पर यह लांछन न लगे कि वह सरकार विरोधी स्वस्थ आलोचकों के प्रति भी अनुदार है।

सामाजिक-सांप्रदायिक वैमनस्य पैदा करने या देश की छवि धूमिल करने का विषय इतना संवेदनशील है कि सरकार को यह सुनिश्चित करना पड़ेगा कि ऐसे आरोपों की आड़ में तथ्यपरक आलोचना न मरने पाए, क्योंकि अंतत: हमारे लोकतंत्र की परिपक्वता इसी बात से तय होगी कि जिम्मेदार अभिव्यक्ति सुरक्षित और निडर है।

 



इस खबर को शेयर करें


Comments