मुकेश भारद्वाज।
पिछले दिनों पंजाब में मेडिकल कालेज के दौरे के दौरान सूबे के स्वास्थ्य मंत्री ने वहां के कुलपति को गंदे बिस्तर पर सोने के लिए मजबूर किया।
इससे लोगों का गुस्सा फूटा कि बदहाल अस्पताल की असली गुनहगार सरकार है। सरकार को कुलपति से माफी मांगनी पड़ी। दूसरी ओर, आए दिन पत्रकारों पर भीड़ हमलावर हो उठती है।
गोदी मीडिया का नारा लगा कर उन्हें किसी कोने में दुबका दिया जाता है। आम लोग यह सवाल नहीं करते कि इस दुबकी पत्रकारिता का असली गुनहगार कौन है?
वे कोने में खड़े किए गए पत्रकार को ही समस्या का आदि और अंत मान बैठे हैं। पूरी पत्रकारिता का गोदी मीडिया के रूप में सामान्यीकरण कर देने का फायदा सिर्फ उस भीड़तंत्र को पहुंचा है जो हर किसी का हिसाब सड़क पर कर देना चाहता है।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में खबर पेश करने वालों और पत्रकारिता के पेशे को पेशतर मौजूदा सबसे बड़ी परेशानी से परेशान बेबाक बोल।
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
-दुष्यंत कुमार
इस लेख के साथ जो एक तस्वीर है, वह किसी दुबकी हुई पत्रकार की नहीं है। यह तस्वीर दुबकी हुई पत्रकारिता की है।
बिहार में नीतीश कुमार कल क्या मोड़ लेंगे, उससे अहम सवाल यह है कि पत्रकारिता को इस कोने तक पहुंचाने का जिम्मेदार कौन है?
वो कौन लोग हैं जो सिर्फ गोदी मीडिया की दुर्गत वाली सूरत को ही पूरी पत्रकारिता बता कर इस विधा की हत्या करने पर तुले हैं।
इस मायूस और अलग-थलग खड़ी पत्रकारिता की दोषी क्या वो सरकार है, जिसने यह साबित करने की ठान ली है कि इन पत्रकारों को उसकी जरूरत है, उसे पत्रकारिता की जरूरत नहीं है।
भीड़ की भाषा में कहें तो सरकार ने पत्रकारों को उनकी औकात बताने की ठानी है।
इस गंभीर सवाल को आगे करने से पहले पत्रकारिता पर एक ऐसा चुटकुला जिसे सुन कर हंसी के बजाए रोना आ जाए।
एक बार खुशवंत सिंह से एक नए पत्रकार ने सवाल पूछा। पत्रकार ने पूछा-महोदय, जब राजनेता हमें प्रेस कांफ्रेंस में बुलाते हैं तो हमारा न्योता पांच सितारा होटलों में होता है।
लेकिन जब हमें वापसी में तोहफे देते हैं तो उसमें बहुत साधारण से छह गिलास या सस्ता सा थर्मस होता है।
खुशवंत सिंह ने जवाब दिया-नेता तुम्हें अपनी हैसियत के हिसाब से बुलाते हैं, क्योंकि उन्हें भी वहीं खाना होता है। तोहफे तुम्हारी हैसियत के हिसाब से देते हैं क्योंकि तुम्हें उन्हें लेकर अपने घर जाना होता है।
पहले जो औकात तोहफे और थर्मस देकर बताई जाती थी अब उसका तरीका अलग हो गया है।
पहले कम से कम नेता अपनी हैसियत वाली जगह में पत्रकारों को आने तो देते थे, लेकिन अब वैसी हर जगह पत्रकारों की हैसियत से बाहर की मान ली गई है जहां नेताओं का काम-धाम का विस्तार होता है।
चाहे सेंट्रल विस्ता हो या नेताओं की विदेश यात्रा, हर जगह से पत्रकार-दीर्घा खत्म कर दी गई है।
नेता अपने साथ दौरों में पत्रकार को लेकर जाएंगे नहीं, और उनके पीछे-पीछे अपने खर्चे पर वही पत्रकार जा सकते हैं जिनकी हैसियत बहुत ज्यादा हो, और वैसे सौ में से एक ही होते हैं।
पत्रकारिता को कोने में दुबकाने का काम किसी एक का नहीं है, पहली तो जिम्मेदार वह सरकार है जो पत्रकारों का भरोसा जीत कर सत्ता में आई।
पत्रकारिता ने विकल्प-विकल्प का शोर शुरू किया और जनता भी राग विकल्पगान के साथ हो गई।
लेकिन, नए सत्ताधारी को जल्द यह अहसास हो गया कि आज यह पत्रकारिता हमारी सत्ता का ताजमहल बना सकती है तो कभी किसी और की सत्ता का भी ताजमहल खड़ा हो सकता है।
इससे तो अच्छा है कि इन कारीगरों के हाथ ही काट दिए जाएं ताकि इनके जरिए आगे कोई और ताजमहल खड़ा होने का खतरा ही खत्म हो जाए।
पत्रकारिता को दुबकाने की दूसरी दोषी हमारी पत्रकार बिरादरी भी है जो किसी को सत्ता-नशीं करवा कर खुद के खुदा होने का यकीन कर बैठती है।
जिसे लगता है कि अगर फलां पत्रकार सरकार के ज्यादा करीब गया तो फिर हमारा क्या होगा।
विकल्प-विकल्प गाने वाले हर पत्रकार को अपने कायाकल्प की भी उम्मीद थी, सरकार के पक्ष में लिख रहे कलमश्री सोच रहे थे उन्हें तो पद्मश्री मिल ही जाएगा, हर विदेशी दौरे में उनका जलवा छाएगा, लेकिन हुआ उलटा ही।
पद्म पुरस्कार पहुंचे उन जमीनी लोगों तक जिन तक सरकार के प्रचार में व्यस्त पत्रकारिता नहीं पहुंचती थी।
ऐसे लोगों को पद्म पुरस्कार दे राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में प्रवेश करवाने वाली पहल कर सरकार की सकारात्मक छवि में चार चांद लग गए। बगलें झांकते पत्रकार इसे तुरुप का पत्ता लिखने को मजबूर हो गए।
अब विदेश दौरे पर मंत्री जाते हैं अकेले और पत्रकारों तक पहुंचती है प्रेस के लिए जारी सूचना की प्रति, जिससे किसी भी तरह के प्रतिवाद की गुंजाइश खत्म हो जाती है।
इसी पत्रकार बिरादरी के एक खेमे पर दोष है पत्रकारिता का गोदी मीडिया के रूप में सामान्यीकरण करने का।
एक सिर्फ मेरी कमीज सफेद वाले इस समूह ने गोदी मीडिया का इतना हल्ला मचाया कि अब आम लोग उन साधारण पत्रकारों को घृणा की दृष्टि से देखते हैं जो बिजली-पानी-सड़क की खबरें करने के लिए सड़कों पर घूमते हैं।
आज भी पत्रकारों की सबसे बड़ी कौम वही है जो न तो किसी ‘अ’ सरकार की समर्थक है और न किसी ‘ब’ सरकार की मुखालफत करना उसका एकसूत्रीय एजंडा, वह सिर्फ और सिर्फ पत्रकारिता करना चाहती है।
लेकिन अब ‘सिर्फ पत्रकारिता’ करने वालों की आवाज गोदी मीडिया के शोर में दफन हो चुकी है।
जिस तरह से एक खास कौम के हर व्यक्ति को आतंकवादी कहना मानवता के साथ अपराध है उसी तरह से पूरी पत्रकारिता का गोदी मीडिया के रूप में सामान्यीकरण करना उतना ही बड़ा अपराध है।
दुबकी पत्रकारिता के तीसरे दोषी हैं दर्शक, जिन्हें हर खबर में अपने राजनीतिक रूझान का जयकारा चाहिए।
अगर आज की तारीख में अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार विजेता, स्वघोषित शून्य प्रसार वाले पत्रकार सरकार के पक्ष में किसी खबर की प्रस्तुति करेंगे तो दर्शकों का एक खेमा उस पर यकीन नहीं करेगा और उसमें भी सरकार के खिलाफ कोई साजिश खोज ही लेगा।
वहीं सरकार के पक्षकार की आरोपी बनी पटना में कोने में दुबकी पत्रकार सरकार के खिलाफ भी खबर करेंगी तो दर्शकों का एक खेमा यही मानेगा कि यह सरकार द्वारा आरोपित खबर होगी, जिसमें अंतत: सरकार का ही फायदा होगा।
दर्शकों की इस खेमेबंदी का आधा फायदा चुनिंदा पत्रकार तो आधा सरकार उठाते हैं।
जाहिर सी बात है कि इस कारण जिसके हिस्से हर तरह का घाटा आता है वो पत्रकारिता है।
दुबकी पत्रकारिता की चौथी गुनहगार वह भीड़ है जो पिछले एक दशक में तैयार हुई। भीड़ ने सड़क पर चलने वाला अपना एक कानून बना लिया है।
भीड़ का यह कानून हर तरह की हिंसा में विश्वास करता है। यह भीड़ किसी को भी सार्वजनिक तौर से शर्मिंदा करने पर आमादा रहती है।
यह आपको इतना समय और जगह नहीं देती कि आप अपनी बात रख सकें कि आपने ऐसा किस वजह से और क्यों किया?
आपको यह मौका नहीं दिया जाएगा कि आपकी बात में से जो बाल की खाल निकाली जा रही है यह भीड़ हर जगह को घेरे हुए है।
आप कहीं पहुंचें और आपको गोदी मीडिया के नारे से नवाजा जाएगा या फिर देश के गद्दारों कह कर बुलाया जाएगा।
इस भीड़ से न तो बिहार में ही जन्मी पत्रकार बच सकी और न शीर्ष शिक्षा का केंद्र जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू), जहां के लोग देश की बौद्धिकता की अगुआई का दावा करते हैं।
यह भीड़ अब सोशल मीडिया पर भी अपना कब्जा कर चुकी है। सोशल मीडिया पर इस भीड़ ने सच और झूठ के फर्क को पूरी तरह खत्म कर दिया है।
सोशल मीडिया पर जो जितना पसरा वह उतना तगड़ा, और इस प्रतियोगिता में हार मान कर सच कहीं दुबका पड़ा रह जाता है।
सरकार, पत्रकार, दर्शक की तिगड़ी से बना चौथा खंभा वह भीड़ है जो इस लोकतंत्र के हर खंभे को हिला रही है। इस भीड़ ने सड़क और शिक्षा के बीच की दूरी खत्म कर दी है।
हर जगह के नागरिक एक भीड़ में तब्दील किए जा रहे हैं। सड़क और बौद्धिकता के बीच एक गंभीर खाई बन गई है जहां खड़े रहने के लिए भी कोई किनारा नहीं बचा है। आप इस पार रहें, या उस पार गिरना तो आपको खाई में ही है।
भीड़तंत्र ने जो नया सामान्य बनाया है उसके बाद अब हमारे कान सुनना बंद कर रहे हैं। भीड़ का चरित्र ऐसा होता है कि वह सिर्फ चीखती है।
जब आपका नागरिक से भीड़ के रूप में रूपांतरण होता है तो सबसे पहले कान, आंख और दिमाग से जुड़े तंत्र काम करना बंद करते हैं।
कान सुनकर उसे दिमाग तक पहुंचाने की क्षमता खो बैठता है। सड़क पर भीड़ के कानून को अभी नहीं रोका गया तो वह दिन दूर नहीं जब हमारा शरीर बहुअंगीय निष्क्रियता का शिकार हो जाएगा।
हमारी ज्ञानेंद्रियां सरकारों के सामने इतनी निष्क्रिय होंगी जिसे कभी भी अपनी सुविधानुसार शल्य-क्रिया से निकाल कर फेंका जा सकता है।
सड़क पर भीड़ बनाम दुबकी पत्रकारिता के ऐसे दृश्य के बाद भी हम सक्रिय नहीं होते हैं तो इस पूरी व्यवस्था की नाकामी तय है।
लेखक जनसत्ता के कार्यकारी संपादक हैं।
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